व्यवसाय में भी दम दिखा रहे आदिवासी, चुनौतियां पहले से कहीं ज्यादा
बड़े मार्केटिंग कांप्लेक्स के मालिक हैं खेलाराम जादूगोड़ा निवासी खेलाराम मुर्मू ने 2004 में छोटी सी पूंजी लेकर छड़, सीमेंट व बिल्डिंग मेटेरियल की सप्लाइ का काम शुरू किया था़ आज वे जादूगोड़ा में एक बड़े मार्केटिंग कांप्लेक्स के मालिक हैं, जिसमें बिजली ऑफिस, नेशनल इंश्योरेंस, बैंक ऑफ इंडिया व इंडेन गैस एजेंसी के कार्यालय […]
बड़े मार्केटिंग कांप्लेक्स के मालिक हैं खेलाराम
जादूगोड़ा निवासी खेलाराम मुर्मू ने 2004 में छोटी सी पूंजी लेकर छड़, सीमेंट व बिल्डिंग मेटेरियल की सप्लाइ का काम शुरू किया था़
आज वे जादूगोड़ा में एक बड़े मार्केटिंग कांप्लेक्स के मालिक हैं, जिसमें बिजली ऑफिस, नेशनल इंश्योरेंस, बैंक ऑफ इंडिया व इंडेन गैस एजेंसी के कार्यालय सहित 20 दुकानें है़ं श्री मुर्मू का एक पेट्रोल पंप भी है़ साथ ही 15 एकड़ में सब्जी की खेती भी करते है़ं
जब मुर्मू सात साल के थे, तभी पिता भादो मुर्मू का निधन हो गया था़ खेलाराम मुर्मू कहते हैं कि बचपन से ही देखता था कि लोग बाहर से आते हैं, व्यवसाय करते हैं और कुछ दिनों बाद अपनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर लेते है़ं तभी यह विचार आया कि व्यवसाय ही करेंगे़ वे जल्द ही एक नया प्रोजेक्ट भी शुरू करने वाले हैं, जो होटल व्यवसाय से जुड़ा होगा़ खेलाराम मुर्मू का कहना है कि रोजगार का अपना अलग मजा है़
रोशन हेमरोम की कंपनी का सालाना टर्नओवर है पांच करोड़
रोशन हेमरोम जमशेदपुर के है़ं उनका बचपन बहुत ही गरीबी में बीता़ मैैट्रिक में थे, तभी पिता की मृत्यु हो गयी़ कोयला की गुंडी बेच कर, गांव के लोगों की मदद कर और गाड़ी चला कर अपनी जरूरतें पूरी करते थे़ ट्यूशन पढ़ने की फीस नहीं थी. इसलिए 1996 में फेल हो गये, पर परीक्षा लिखते रहे और अंतत: 1999 में सफलता मिली़
इसके बाद उन्होंने टाटा एआइजी इंश्योरेंस कंपनी में काम किया, जिससे काफी मदद मिली़ घर बना लिया़ एमए व बीएड की पढ़ाई पूरी की. 2012 में रोशन को टाटा स्टील का ट्रांसपोर्टिंग वेंडर बनने का मौका मिला़ नौ महीने बिजनेस समझने में ही लग गये़ सफलता नहीं मिल रही थी और मन उदास होने लगा़ इस बीच कुछ अच्छे लाेगों का सहयोग मिला, जिसके बाद उनकी कंपनी आगे बढ़ने लगी़ आज इस कंपनी का सालाना टर्नओवर पांच करोड़ रुपये का है़ वे बताते हैं कि ट्राइबल इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज, राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम, भारत सरकार व झारखंड सरकार के सहयोग से उनका व्यवसाय अच्छी तरह चल रहा है़ वह उन एसटी, एससी युवाओं की मदद करना चाहते हैं, जो व्यवसाय के क्षेत्र से जुड़ना चाहते है़ं
6000 मेगावाट का पावर प्राेजेक्ट लगायेंगे सुप्रभा
सुप्रभा मुर्मू गोड्डा जिले के अमरपुर गांव के है़ं विश्व आदिवासी दिवस के दिन, इसी नौ अगस्त को 28,000 करोड़ की लागत से 6000 मेगावाट क्षमता का थर्मल पावर प्राजेक्ट लगाने की प्रारंभिक प्रक्रिया शुरू करेंगे.
आदिवासी क्षेत्र में बिना किसी को विस्थापित किये व बिना किसी की एक इंच कृषि भूमि लिये इस प्रोजेक्ट को धरातल पर उतारने का यह अभिनव प्रयोग होगा़ सुप्रभा मुर्मू ने बताया कि प्रोजेक्ट के लिए संताल परगना के लिट्टीपाड़ा में 2800 एकड़ जमीन और डैम के लिए दौ सौ एकड़ जमीन ली जायेगी़ यदि कुछ लोगों से जमीन लेने की जरूरत पड़ी, तो यह एसपीटी एक्ट के सेक्शन 42 के तहत ली जायेगी. उतनी ही जमीन खेत बना कर व बंदोबस्ती करा कर रैयत को देंगे़ रैयतों का मालिकाना हक बरकरार रहेगा़ उन्होंने बताया कि जमीन के लिए लोगों की सहमति मिल चुकी है़ जमीन लेने के मुद्दे पर जल्द ही राज्यपाल से मिलेंगे़
इंडस्ट्रियल गार्मेंट के निर्माता हैं बसंत तिर्की
बसंत तिर्की मूल रूप से जमशेदपुर के रहनेवाले हैं और इंडस्ट्रियल गार्मेंट के निर्माता है़ं टाटा ग्रुप व भारत सरकार के उपक्रमों के सप्लायर है़ं बसंत बताते हैं कि मजदूर परिवार से ताल्लुक रखने के कारण अपना व्यवसाय शुरू करना आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया़
स्व कार्तिक उरांव के आदर्शों पर चल कर आदिवासी समाज को शिक्षित व आर्थिक मजबूती देने के लिए इसे सामाजिक उद्यमिता के रूप में अपनाया़ व्यापार जगत के उतार-चढ़ाव के बीच उन्हें सफलता मिली और आज उनकी ‘वर्ल्डइंड फैशन’ कंपनी से 20 से 25 लोग जुड़े है़ं अब उन्हें आज से 12 साल पहले लिया गया अपना निर्णय सही लगता है़ वे कहते हैं कि दूसरों को रोजगार देने से दिल को बहुत सुकुन मिलता है़ वे अपने रोजगार से काफी खुश हैं
टाटा मोटर्स, एनआइटी व बोकारो जेनरल हॉस्पिटल के वेंडर हैं चंचल
जमशेदपुर, बिरसा नगर के चंचल मनोज लकड़ा ने 1 995 में ‘काम इंटरप्राइजेज’ नामक कंपनी की शुरुआत की. यह कंपनी सिविल, मैकेनिकल, फैब्रिकेशन, ट्रांसपोर्टिंग व हाउसकीपिंग के कांट्रैक्ट लेेने लगी़ फिर इसे टाटा मोटर्स जमशेदपुर, एनआइटी जमशेदपुर और बोकारो जेनरल हॉस्पिटल के कांट्रैक्ट मिलने लगे़ अब उनकी कंपनी में 350 वर्कर हैं और इसका टर्नओवर आठ करोड़ रुपये का हो चुका है़ फिलहाल वे टाटा मोटर्स हॉस्पिटल जमशेदपुर, एनआइटी जमशेदपुर व बोकारा जेनेरल हॉस्पिटल में मेकेनाइज्ड क्लीनिंग की सर्विस दे रहे है़ं
टाटा मोटर्स के इंप्लाइज के लिए बस सर्विस भी मुहैया कराते है़ं श्री लकड़ा ने बताया कि मेरे पिता टाटा मोटर्स जमशेदपुर में काम करते थे़ जब मैंने स्कूली पढ़ाई पूरी की, तब मेरे माता-पिता ने जोर देना शुरू किया कि मैं टाटा मोटर्स में ही नौकरी करूं, क्योंकि टाटा कंपनी की यह नीति थी कि कर्मचारी की संतान को भी नौकरी मिलेगी़ लेकिन, मैं ऐसा नहीं चाहता था. कुछ अलग करना चाहता था. इसलिए पढ़ाई जारी रखने के साथ ही मैंने स्थानीय कंपनियों का छोटा-मोटा कांट्रैक्ट लेने लगा. इस बीच मैंने एमकॉम किया़
आदिवासियों के समक्ष चुनौती पहले से कहीं ज्यादा
आपसी मतभेद को भुला कर एकजुट रहें
आदिवासी समुदाय आज ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां से उसे आगे की राह के विषय में पूर्ण रूप से अनभिज्ञता है. आदिवासी दिवस को हम एक वैश्विक स्तर पर जन चेतना अौर सामाजिक राजनैतिक चेतना का उदय मान सकते हैं. किंतु ये कहीं से भी आज के संदर्भ में आदिवासी दिवस को हर्षोल्लास अौर त्योहार के रूप में मानना तर्कसंगत नहीं है. संपूर्ण विश्व में आदिवासी समुदाय पर चौतरफा हमला हो रहा है अौर यह गहन चिंतन का विषय होना चाहिए. इन शांतिप्रिय समुदायों में इतना आक्रोश अौर अस्थिरता क्यों? यह अस्थिरता सुदूर अौर ग्रासरूट में रहने वाले समुदायों के बीच से आ रही है. जल, जंगल जमीन के संघर्ष में अपने विशिष्ट धार्मिक और संस्कृति के संरक्षण के लिए एकजुट और सजग रहना होगा. अपने व्यक्तिगत और आपसी मतभेद भुला कर एक रहें अौर संवाद बनाये रखें. यह उन आदिवासियों के लिए भी जरूरी है जो आज अच्छे पद पर हैं.
-डॉ अभय मिंज, बुद्धिजीवी
चारों तरफ से हो रहे हैं हमले
आज आदिवासियों के समक्ष ऐसी परिस्थिति है, जिसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है. आदिवासी समुदाय पर चारों तरफ से हमले हो रहे हैं. यह अब लड़ो या मरो की लड़ाई है. आदिवासी समुदाय या तो पार पा जायेगा या गुलाम बन जायेगा. आज आदिवासी इलाकों में संसाधनों की लूट बढ़ी है. आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व धार्मिक मामलों में आक्रमण बढ़ रहे हैं. आदिवासी समुदाय को अगर दबाया जायेगा, तो वह फिर सतत चलने वाला हूल के रास्ते पर ही चलेगा. हमारे पुरखों ने हमें जीवन दर्शन, जमीन, संस्कृति, परंपरा, जंगल सौंपे. पर हम आनेवाली पीढ़ियों को ये चीजें नहीं सौंप पायेंगे, क्योंकि ये सभी हमसे छीने जा रहे हैं. हमारी एकता पर भी प्रहार किये जा रहे हैं. ऐसे में आदिवासी समुदाय खासकर शहरों में रहने वाले आदिवासी अौर उनमें भी युवा वर्ग पर काफी जिम्मेदारी है.
-वंदना टेटे, लेखिका व साहित्यकार
आदिवासी समुदाय शुरू से ही संघर्ष करता आया है
आदिवासी समुदाय शुरू से ही संघर्ष करता आया है. अंग्रेजों के समय भी संघर्ष हुआ, फिर अलग राज्य के लिए संघर्ष, लेकिन वर्तमान समय सबसे अलग और ज्यादा गंभीर है. सीएनटी/एसपीटी एक्ट व एससी/एसटी एक्ट को कमजोर करने की कोशिश हो रही है. सामाजिक समरसता पर प्रहार हो रहे हैं.
आदिवासी समाज को धर्म के नाम पर विभाजित करने की कोशिश हो रही है. राज्य की सवा तीन करोड़ जनसंख्या में तकरीबन 80 से 86 लाख आदिवासी समुदाय से है. अब विभाजित कर इन्हें अौर भी गौण कर दिया जायेगा. बाहर से आनेवाले लोगों को स्थानीय बनाकर राज्य के पूरे परिदृश्य को बदलने की कोशिश हो रही है. हमारी संस्कृति, भाषा, जमीन सभी पर हमले हो रहे हैं. शासक और शोषक वर्ग एक होकर हमारे खिलाफ साजिश कर रहे हैं.
दयामनी बरला, एक्टिविस्ट
झारखंड में जाति, धर्म के नाम पर बांटने की हो रही है कोशिश
आदिवासी समुदाय के समक्ष चुनौती पहले से कहीं ज्यादा है. सतत संघर्ष और आंदोलनों के बाद हमने अलग राज्य पाया. हमें लगा कि हमें अब हमारे वे अधिकार मिल जायेंगे, जो संविधान ने हमें दिये हैं.
हम अपने तरीके से इस राज्य को चला पायेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. झारखंड में आदिवासी समुदाय को जाति, धर्म के नाम पर बांटने की कोशिश की जा रही है. लोग एक दूसरे को शक की दृष्टि से देख रहे हैं. शहरों के अलावा गांवों में भी लोग विभाजित दिख रहे हैं. सौहार्द को खत्म किया जा रहा है. इसके बहुत सारे कारण हैं. राजनीतिक कारण भी हैं और दूसरे कारण भी. बिगाड़ने में ज्यादा समय नहीं लगता, जबकि बनाने में वर्षों लगते हैं. बावजूद इसके मुझे उम्मीद है कि जिस तरह समुदाय ने पहले की चुनौतियों का सामना किया है, आगे भी करेगा.
बीजू टोप्पो, डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता
राजनीतिक दलों से लेकर स्वयंसेवी संस्थाअों ने ठगने का काम किया
संविधान में आदिवािसयों के संरक्षण, विकास और कल्याण के लिए चाहे कितने भी नियम कानून बने हों, पर व्यवस्था की कमियों की वजह से इन्हें कभी भी सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका.
राज्य की मशीनरी से लेकर राजनीतिक दलों, स्वयंसेवी संस्थाअों, अतिवादी समूहों सभी ने ठगने का ही काम किया है. आदिवासी समुदाय आज भी याचक की मुद्रा में खड़ा है. आदिवासियों की बड़ी आबादी आज भी मुख्यधारा से कटी है अौर जीविकोपार्जन के साधनों से भी वंचित है. इनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य पहुंच पथ, सिंचाई व्यवस्था, पेयजल, सरकारी योजनाअों का लाभ पहुंचाना भी चुनौती है. इस समाज में कुरीतियां, अंधविश्वास, नशापान, पिछड़ा चिंतन को खत्म करना अौर वैज्ञानिक सोच समझ विकसित करना भी चुनौती है.
लक्ष्मी नारायण मुंडा, बुद्धिजीवी
बौद्धिक संघर्ष के लिए तैयार हों आदिवासी
आदिवासी समाज भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, पर उनमें से सिर्फ 8.9 प्रतिशत के जीवन में ही आर्थिक बदलाव नजर आता है़ आज भी 91.1 प्रतिशत लोग अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करने के लिए जूझ रहे है़ं
आदिवासी समाज के समक्ष मौजूदा चुनौतियाें में पहचान, स्वायत्तता, जमीन, प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, संवैधानिक व कानूनी अधिकार हासिल करना और भाषा, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज व रूढ़ि प्रथा को बरकरार रखते हुए आधुनिकता के साथ सामंजस्य स्थापित करना शामिल है़ं लगभग तीन सौ वर्षों से आदिवासी समाज ने तीर-धनुष व अन्य पारंपरिक हथियारों के बल पर संघर्ष करते हुए अपना अस्तित्व बचाये रखा है, लेकिन आज का संघर्ष सिर्फ बौद्धिकता के बल पर ही संभव है़ अब आदिवासी समाज सिर्फ खेती, वनोपज और सरकारी नौकरी पर आश्रित नहीं रह सकता है़
– ग्लैडसन डुंगडुंग, एक्टिविस्ट, शोधकर्ता व लेखक
आंतरिक उपनिवेशवाद के शिकार हैं आदिवासी
आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था पर हमले, जमीन की लूट, औद्योगिकीकरण आदि का सीधा दुष्प्रभाव उनके जीवन पर पड़ रहा है़ वे आंतरिक उपनिवेशवाद के शिकार है़ं यह आंतरिक उपनिवेशवाद कट्टरवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद, सांप्रदायिकता, सैन्यीकरण, राजकीय दमन, पितृसत्तात्मक सोच के तहत आदिवासियों, मूलवासियों और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का हनन के रूप में सामने है़
उनके हक व अधिकार छीनने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से राज्यसत्ता भी शामिल है़ आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है़ ऐसे में देश-विदेश के तमाम वंचित समुदायों के साथ समन्वय बनाने की जरूरत है़ यह एकजुटता भाषा-संस्कृति, मानवाधिकार आदि के मुद्दों पर बन सकती है, ताकि गरिमा के साथ जीने का अवसर मिले और उनके हक-अधिकारों की लूट पर रोक लगे़
-एलिना होरो, आदिवासी वीमेंस नेटवर्क की अध्यक्ष
आदिवासियों की जमीन, भाषा संस्कृति सब लुट रही है
भूमि अधिग्रहण (झारखंड संशोधन) कानून 2017 में उससे प्रभावित होने वाले किसानों व लोगों के पास असहमति जताने का कोई लोकतांत्रिक स्थान नहीं छोड़ा गया है़ सहमति के प्रावधान, जनसुनवाई, ग्रामसभा के अधिकार, सामाजिक प्रभाव और पर्यावरण प्रभाव आकलन आदि को साजिश के तहत समाप्त कर दिया गया है़ इ लंबे समय की मांग के बावजूद सरना धर्म कोड नहीं दिया जा रहा है़ धर्म कोड व आदिवासी एकता का सवाल ईसाई उठाते हैं, यह भ्रम फैला कर ईसाई आदिवासियों को एसटी का प्रमाणपत्र निर्गत नहीं करने से जुड़ा आदेश कार्मिक विभाग को दिया जा रहा है़ उनकी भाषा और संस्कृति को खत्म करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है़
– सुनील मिंज, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता
मुख्यधारा से कोसों दूर हैं सरना आदिवासी
मूल सरना आदिवासी आज भी विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर है़ं कई इलाकों में अशिक्षा, नशापान और अंधविश्वास की जड़ें गहरी है़ं उनकी हर धरोहर खतरे में नजर आ रही है़ अस्तित्व की रक्षा की जद्दोजहद भी है़ सरकार व कई स्वयंसेवी संगठन उनके विकास के लिए काम कर रहे हैं, पर अपेक्षित सफलता नजर नहीं आती़ अब कुछ सरना संगठनों ने भी अपने स्तर पर इस दिशा में प्रयास शुरू किया है़ उनके बीच, शिक्षा, रोजगार, नशा उन्मूलन, अंधविश्वास उन्मूलन, एकजुटता और सरना धर्म और समाज की मजबूती की दिशा में प्रयास किये जा रहे है़ं उम्मीद है कि इसका प्रतिफल भी जल्द दिखेगा़
– मेघा उरांव, झारखंड आदिवासी सरना विकास समिति के अध्यक्ष
1973 में जब झारखंड की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब यह विशुद्ध रूप से आदिवासियों व मूलवासियों द्वारा लड़ी जा रही थी़ लेकिन झारखंड गठन के ठीक बाद भी झारखंड की जैविक जरूरत को खुद झारखंड के राजनेताओं ने नहीं समझा और झारखंड की राजनीति को बाहर से आए हुए राजनेताओं, दलों व कार्यकर्ताओं के हवाले छोड़ दिया गया़ आदिवासी आज तक भावनात्मक तौर पर इस्तेमाल हो रहे हैं, लेकिन एक राजनीतिक नेतृत्व के रूप में यह समाज कभी भी खड़ा नहीं हो पाया़ यह समझने की आवश्यकता है कि झारखंड में आदिवासियों की आकांक्षाएं क्या हैं? झारखंड एक प्रयोग स्थली बना रहा है.
– डॉ प्रदीप मुंडा, आदिवासी छात्र संघ के केंद्रीय सचिव
झारखंड में 1.93 लाख आदिवासी परिवार भूमिहीन
रांची : सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना-2011 की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य के 1.93 लाख आदिवासी परिवारों के पास जमीन नहीं है. ऐसे लोगों की आजीविका मजदूरी पर निर्भर है. सबसे खराब स्थिति पश्चिम सिंहभूम जिले की है. यहां के कुल 42432 जनजातीय परिवारों के पास अपनी जमीन नहीं है. कोडरमा जिले में जनजातीय परिवार बहुत कम हैं, पर यहां के कुल 945 जनजातीय परिवारों में से 40 फीसदी (380 परिवार) के पास अपनी जमीन नहीं है. संख्या के लिहाज से राज्य के दो बड़े शहरों रांची व जमशेदपुर में भी भूमिहीन आदिवासी परिवार पश्चिम सिंहभूम के बाद सर्वाधिक हैं. जमशेदपुर में 25221 परिवार तथा रांची में 15968 परिवार खेती नहीं, बल्कि मजदूरी पर निर्भर हैं.
खतियान कहां से लायेंगे
भूमिहीन आदिवासियों की बड़ी संख्या के मद्देनजर एक सवाल यह भी है कि इन परिवारों से खतियान मांगा जाये, तो क्या वह दे पायेंगे? जनगणना रिपोर्ट से इस बात की पुष्टि नहीं होती कि उनके पास आवास के रूप में जो जमीन है, उसका खतियान उपलब्ध है या नहीं. या वे सरकारी या गैरमजरूआ भूमि पर बसे हैं.
किस जिले में कितने परिवारों के पास जमीन नहीं
जिला जनजातीय घर भूमिहीन परिवार फीसदी
प. सिंहभूम 154862 42432 27.4
पू. सिंहभूम 126107 25221 20.1
रांची 133072 15968 12.1
साहेबगंज 65187 12189 18.7
पाकुड़ 78702 11805 15.1
दुमका 121357 11286 9.3
गोड्डा 55081 9693 17.0
सरायकेला 50474 7066 14.0
धनबाद 37285 5742 15.4
बोकारो 46458 5575 12.0
रामगढ़ 36613 5235 14.3
गिरिडीह 41141 5019 12.2
गुमला 99915 4596 4.6
सिमडेगा 72374 4487 4.6
खूंटी 71400 4141 5.83
लातेहार 60141 4029 6.7
जामताड़ा 45259 3711 8.2
गढ़वा 31164 3210 10.3
पलामू 30543 3115 10.2
लोहरदगा 48460 3053 6.3
देवघर 33142 2850 8.6
हजारीबाग 21033 2166 10.3
चतरा 7922 800 10.1
कोडरमा 945 380 40.3
कुल 1468637 193860 13.2