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संघर्ष का आह्वान है आदिवासी दिवस

प्रभाकर तिर्की भारत के संविधान में आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा और उनके आर्थिक विकास, भाषायी विकास, उनके मानवाधिकारों की सुरक्षा व उनके साथ भेदभाव की घटनाओं से सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये हैं, लेकिन सत्ता की उदासीनता व गलत नीतियों के कारण आदिवासियों को दिये गये संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो […]

प्रभाकर तिर्की
भारत के संविधान में आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा और उनके आर्थिक विकास, भाषायी विकास, उनके मानवाधिकारों की सुरक्षा व उनके साथ भेदभाव की घटनाओं से सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये हैं, लेकिन सत्ता की उदासीनता व गलत नीतियों के कारण आदिवासियों को दिये गये संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा है और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करने की घटनाएं बढ़ रही है़ं
आज पूरे विश्व में नौ अगस्त को आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है़ पिछले कई वर्षों से देश का आदिवासी समुदाय भी इस उत्सव में शामिल हो रहा है़ वैसे भारत में आदिवासी दिवस को उत्सव के रूप में मनाने जैसी परिस्थिति नहीं है, क्योंकि विगत कई वर्षों में यहां के आदिवासियों पर शोषण, जुल्म और अत्याचार की घटनाएं बढ़ी है़ं उनके संवैधानिक अधिकारों का लगातार उल्लंघन हो रहा है़ उन्हें जातीय उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है़ आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए केंद्र व राज्य सरकारें संविधान तक में संशोधन की कोशिशें कर रही है़ं
झारखंड की स्थिति और भी गंभीर: झारखंड में स्थिति और भी गंभीर है़ सीएनटी-एसपीटी एक्ट में भूमि के व्यवसायीकरण के लिए संशोधन के प्रयास, भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन का प्रयास, ग्राम सभाओं को दरकिनार करने की कोशिश, राजनीतिक हित के लिए धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़, दमनात्मक रुख अख्तियार करना आदि सरकार की आदिवासी विरोधी नीतियों को उजागर करते है़ं ‘विकास’ आज आदिवासियों के लिए चुनौती बन चुका है़ अंतरराष्ट्रीय पटल पर, जहां खुली अर्थ नीतियां हैं, खुला बाजार है, विकास की ग्लोबल अवधारणा है, वहां आदिवासियों के जल, जंगल व जमीन की सुरक्षा का सवाल, आदिवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक व भाषायी पहचान का सवाल अत्यंत गंभीर है़
आदिवासी अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र : आदिवासी अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र एक विश्वव्यापी घोषणापत्र है, जो आदिवासियों के जल, जंगल व जमीन पर उनके पारंपरिक अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है़ उनकी जमीनों से उन्हें जबरन वंचित करने के लिये उन पर होने वाले जुल्म से सुरक्षा की गारंटी देता है़ आदिवासियों की आबादी की सुरक्षा इस घोषणापत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है़
सस्टेनेबुल डेवलपमेंट गोल 2030 और आदिवासी : हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा की बात कर उत्साहित जरूर होते हैं, पर हाल के वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ही विकास को नये परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हुए ‘सतत विकास’ के लिए लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं, जिसे सस्टेनेबुल डेवलपमेंट गोल 2030 के नाम से क्रियान्वित करने की पहल हुई है़ भूख, गरीबी उन्मूलन, गुणात्मक शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर लिंग भेद, पर्यावरण की सुरक्षा जैसे कुल 17 लक्ष्य निर्धारित किये गये है़ं पर दुर्भाग्य से उस विकास प्रक्रिया में आदिवासी अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र में दिये गये प्रावधानों को शामिल नहीं किया गया है़
आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा पर मौन है सरकार : भारत सरकार ने उपरोक्त लक्ष्य को सामने रख कर ही नीति आयोग का गठन करते हुए सस्टेनेबुल डेवपलमेंट गोल को पूरा करने का संकल्प दोहराया है़
दुर्भाग्य से नीति आयोग की नीतियों में भी आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा पर सरकार मौन है़ आज भारत सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा घोषित सस्टेनेबुल डेवलपमेंट गोल को पूरा करने की दिशा में लगी हुई है, लेकिन उसी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित आदिवासी अधिकारों की उपेक्षा कर रही है़ इन परिस्थितियों में आदिवासी दिवस को एक उत्सव के रूप में मनाना कितना उचित है? हमें यह मानना चाहिए कि हमारे लिये आदिवासी दिवस एक उत्सव नहीं, बल्कि आदिवासी अधिकारों के लिए एक संघर्ष का आह्वान है़
लेखक कांग्रेस पार्टी के प्रदेश मीडिया पैनलिस्ट हैं .

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