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गांवों तक विशेषज्ञ डॉक्टर पहुंचाने का महाराष्ट्रीयन तरीका

सुरेंद्र किशोर , राजनीतिक विश्लेषक महाराष्ट्र सरकार ने निजी डॉक्टरों से मोल-तोल कर ऊंचे वेतन पर सरकारी अस्पतालों के लिए विशेषज्ञ चिकित्सक उपलब्ध कराये हैं. ये ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात किये जा रहे हैं. ध्यान रहे कि सुदूर स्थानों में जाने के लिए आमतौर से विशेषज्ञ चिकित्सक तैयार नहीं होते. यह समस्या बिहार सहित पूरे […]

सुरेंद्र किशोर , राजनीतिक विश्लेषक

महाराष्ट्र सरकार ने निजी डॉक्टरों से मोल-तोल कर ऊंचे वेतन पर सरकारी अस्पतालों के लिए विशेषज्ञ चिकित्सक उपलब्ध कराये हैं. ये ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात किये जा रहे हैं. ध्यान रहे कि सुदूर स्थानों में जाने के लिए आमतौर से विशेषज्ञ चिकित्सक तैयार नहीं होते. यह समस्या बिहार सहित पूरे देश की है. सामान्य सरकारी क्टरों में से भी अधिकतर अपने कार्य स्थलों से अनुपस्थित ही पाये जाते हैं. कुछ साल पहले एक बिहार के विधायक के यहां एक महिला डॉक्टर आयीं. उन्होंने कहा कि मैं आपके क्षेत्र में ज्वाइन करने को तैयार हूं. पर आप मुझे अनुपस्थित रहने की ‘छूट’ दिलवा दीजिए. विधायक ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया. यह हाल सामान्य चिकित्सकों का है.

यानी ब्लाॅक स्तर पर तैनात कुछ ही सरकारी डॉक्टर ईमानदारी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र सरकार ने हाल में जो कुछ किया है, उसे बिहार सहित अन्य राज्य भी अपना सकते हैं. गरीब देश के आम लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सरकार पर ही तो निर्भर रहते हैं. महाराष्ट्र सरकार ने निजी विशेषज्ञ डॉक्टरों से मोल-तोल कर और उन्हें भारी वेतन देकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के लिए राजी कर लिया है. इस तरीके से कुल 356 डॉक्टरों की नियुक्ति हुई है. इनमें 12 विशेषज्ञ चिकित्सक तीन लाख रुपये मासिक से अधिक वेतन पर राजी हुए. अन्य 12 चिकित्सकों का वेतन दो और तीन लाख रुपये के बीच तय हुआ. 51 विशेषज्ञ डॉक्टरों का वेतन एक से दो लाख रुपये के बीच है. बाकी डॉक्टरों के वेतन 50 हजार से एक लाख रुपये के बीच है. बिहार के चिकित्सकों की शिकायत थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली नहीं रहती. पर अब तो स्थिति बदली है. ऐसे में महाराष्ट्र जैसा प्रयोग यहां भी किया जा सकता है.

क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार जरूरी : सुप्रीम कोर्ट की यह पीड़ा स्वाभाविक ही है कि ‘लेफ्ट, राइट और सेंटर हर तरफ बलात्कार हो रहा है. इसे रोका क्यों नहीं जा रहा है?’ हालांकि, इस देश में सिर्फ बलात्कार ही हर जगह नहीं हो रहा है, बल्कि हर तरह के अपराध हो रहे हैं. शासन ‘कानून का राज’ कायम करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पा रहा है. नतीजतन तरह-तरह के अपराधियों के मन से कानून का खौफ गायब है. 2016 में इस देश में हर तरह के अपराधों में अदालती सजाओं का औसत प्रतिशत 46 दशमलव 8 ही रहा. अमेरिका व जापान में कुल अपराधों में से 99 प्रतिशत अपराधों में आरोपितों को सजा मिल ही जाती है. तर्क दिया जाता है कि भारत में पुलिस और कचहरियों की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं. अपराधों के वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सरकार के पास साधन नहीं है. यहां तक कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरीज की भी भारी कमी है. गवाहों की सुरक्षा का प्रबंध नहीं है. यह सब करने के लिए सरकार को देश भर में बहुत बड़ी राशि खर्च करनी पड़ेगी. यह पैसा कहां से आयेगा? क्यों नहीं ‘टैक्स फाॅर रूल आॅफ लाॅ’ लगाया जाना चाहिए. पहले तो जनता को वह बोझ लगेगा. पर बाद में इसके इतने अधिक फायदे होंगे कि लोगबाग खुश हो जायेंगे. अभी नहीं तो कम से कम 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में सत्ता में आने वाली सरकार को इस पर विचार करना चाहिए. अन्यथा संकेत हैं कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की लगातार अनदेखी के अंततः भयानक परिणाम होंगे.

आरके धवन और एमओ मथाई : किसी बड़े नेता के निजी सचिव को कैसा होना चाहिए? एमओ मथाई की तरह या आरके धवन की तरह? इस सवाल का जवाब तो आसान नहीं है. दोनों के अपने-अपने पक्ष हैं. पर इन दोनों के बारे में कुछ बातें जानने योग्य हैं. आरके धवन ‘1937-2018’ का हाल में निधन हो गया. वे लंबे समय तक इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे. एमओ मथाई ‘1909-1981’ सन 1946 से 1959 तक जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव थे. मथाई ने अपनी दो पुस्तकों के जरिये लोगों को यह बता दिया कि जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार में कौन-कौन सी खूबियां और कमियां थीं. दूसरी ओर, आरके धवन इंदिरा गांधी से संबंधित सारे अच्छे-बुरे संस्मरण अपने साथ लेते चले गये. कभी इंदिरा जी के खिलाफ कुछ नहीं कहा. इस बिन्दु पर कुछ लोगों ने मथाई को सराहा तो कुछ अन्य ने धवन की तारीफ की. कुछ ने कहा कि निजी सचिव को धवन जैसा ही होना चाहिए. दूसरी ओर खुशवंत सिंह ने तब लिखा था कि ‘मथाई नमक हराम है. उसे चौराहे पर कोड़े लगाये जाने चाहिए.’ वैसे यह कहने वाले लोग भी थे कि मथाई ने लोगों को साफ-साफ यह बता तो दिया कि आजादी के तत्काल बाद के शासकों ने इस देश को किस तरह चलाया. हालांकि, दोनों बारी-बारीे से विवादास्पद परिस्थितियों में पद से हटाये गये. धवन की तो शानदार वापसी हो गयी. पर मथाई की संभव नहीं थी. वैसे भी उन्होंने किसी ‘देवता’ को बख्शा ही नहीं था.

भूली-बिसरी याद : सन् 1857 के हीरो बाबू वीर कुंवर सिंह की 1856 की सक्रियता पर भी एक नजर डाल लीजिए. मई, 1856 में कुंवर सिंह ने जहानाबाद के अपने मित्र को लिखा था, ‘भाई जुल्फिकार, आपकी उपस्थिति से उस बैठक में जो कुछ तय हुआ, उस सिलसिले में तैयारी पूरी करने का वक्त आ गया है. अब भारत को हमारे खून की जरूरत है. हम आपकी मदद और समर्थन के आभारी हैं. पत्रवाहक से आपको मालूम हो जायेगा कि यह पत्र किस जगह से लिखा जा रहा है. आपका पत्र समय पर मिल गया था. अब 15 जून 1856 को बैठक होगी. उसमें आपकी उपस्थिति अनिवार्य है. यह हमारी अंतिम बैठक होगी. तब तक सभी तैयारियां पूरी कर लेनी है.’ अगस्त 1856 में बाबू कुंवर सिंह ने उन्हें फिर लिखा,‘समय आ गया है. मेरठ की ओर कूच करें. वहां आपका इंतजार किया जायेगा. सभी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. आप स्वयं अनुभवी और योग्य हैं. हमारी फौज तैयार है. हम यहां से कूच करेंगे और आप वहां से. ब्रिटिश फौज काफी कम है. आपके जवाब की प्रतीक्षा है.’ तीसरी चिट्ठी कुंवर सिंह ने जनवरी, 1857 में उन्हें लिखी. उन्होंने लिखा कि ‘हम दिल्ली के लिए रवाना हो चुके हैं. हमें अपनी जान की बाजी लगानी है. समय करीब है. यही बेहतर है कि हम रण क्षेत्र में लड़ते-लड़ते मर जाएं. यह एक दुखद सूचना है कि असद अली ने हमारे बारे में ब्रिटिश अधिकारियों को खबर दी है.’ याद रहे कि 1857 के विद्रोह से पहले के ये पत्र हैं. इन पत्रों की पुष्टि डाॅ केके दत्त और प्रो एसएच असगरी ने की है. इन पत्रों से यह जाहिर होता है कि 1857 के विद्रोह से पहले ही बिहार लड़ने की तैयारी कर रहा था. काजी जुल्फिकार अली जहानाबाद के थे. उन्होंने भी अपनी पलटन तैयार की थी. वे वीर कुंवर सिंह के दोस्त थे. जुल्फिकार अली दिल्ली पहुंच कर ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए शहीद हो गये थे. आश्चर्य है कि किन कारणों से जुल्फिकार अली का उतना नाम नहीं हुआ जिसके वे हकदार थे!

और अंत में : अस्सी के दशक की बात है. मैंने एक मुख्यमंत्री के आवास पर फोन किया. फोन किसी ‘गोपाल’ ने उठाया. मुझे जो सूचना लेनी थी, वह मिल गयी. मैंने समझा कि गोपाल कोई स्टाफ होगा. पर दूसरे दिन उस मुख्यमंत्री के एक करीबी व्यक्ति मुझे मिले. उन्होंने कहा कि ‘आपने जब फोन किया था, उस समय मैं भी वहां मौजूद था.’ मैंने पूछा कि ‘वहां गोपाल कौन हैं ?’ उन्होंने बताया कि गोपाल-वोपाल कोई नहीं है. दरअसल, मुख्यमंत्री जी के पुत्र ने ही फोन उठाया था. पर, वे आपको भी अपना नाम नहीं बताना चाहते थे. किसी को नहीं बताते हैं. क्योंकि वहां फोन उठाना उनकी ड्यूटी नहीं है. अब मैं सोचता हूं कि उस जमाने के लोग कम से कम इस बात का ध्यान तो रखते थे.

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