पत्रकारिता और राजकाज …

आनंद मोहन नौ अगस्त़ राज्यसभा के उपसभापति के रूप में निर्वाचित पत्रकार- सांसद हरिवंश जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उच्च सदन में बधाई दे रहे थे़ अपने उदबोधन में प्रधानमंत्री ने प्रभात खबर का जिक्र किया़ प्रधानमंत्री ने प्रभात खबर के साथ हरिवंश जी के लगभग तीन दशकों की पत्रकारिता की याद दिलायी़ प्रधानमंत्री ने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 14, 2018 7:05 AM
आनंद मोहन
नौ अगस्त़ राज्यसभा के उपसभापति के रूप में निर्वाचित पत्रकार- सांसद हरिवंश जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उच्च सदन में बधाई दे रहे थे़ अपने उदबोधन में प्रधानमंत्री ने प्रभात खबर का जिक्र किया़ प्रधानमंत्री ने प्रभात खबर के साथ हरिवंश जी के लगभग तीन दशकों की पत्रकारिता की याद दिलायी़ प्रधानमंत्री ने कहा कि प्रभात खबर में हरिवंश जी ने समाज कारण की पत्रकारिता की, राजकारण की नही़ं सचमुच प्रभात खबर की यही ताकत भी रही है़ जमीनी और पब्लिक एजेंडे पर प्रखर पत्रकारिता करता रहा है़ सत्ता-शासन में दलाल संस्कृति के रास्ते सीढ़ी बनाने वालों को एक्सपोज किया है़
समाज,सरकार के लिए आइने का काम किया है़ प्रधानमंत्री की बातें सारगर्भित थी़ं पत्रकारिता का मर्म था़ मूल्यों की बात थी़ इसे समझने के लिए थोड़ा नेपथ्य में जाना होगा़ 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में आधी रात को देश आजादी का जश्न मन रहा था़ देश उत्सवी रंग में डूबा था़ समारोह, उत्सव, उमंग से दूर महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं, बंगाल में थे़ सांप्रदायिक हिंसा की आग में बंगाल जल रहा था़ गांधी ने उसे खत्म करने के लिए अनशन करने का फैसला कर लिया था़ आजाद देश को रास्ते पर लाना चाहते थे़ देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लौह पुरुष व पहले गृहमंत्री सरदार पटेल ने गांधी जी को दिल्ली आने के आग्रह के साथ एक पत्र भेजा़ गांधी जी से विनती की़ जवाहर-पटेल ने पत्र दूत के माध्यम से भेजा, कहा : देश में आजादी का जश्न है, पूरा देश आपका इंतेजार कर रहा है़
आप देश के राष्ट्रपिता हैं, आप दिल्ली आते तो सबको अच्छा लगता़ गांधी जी ने नेहरू-पटेल का आग्रह ठुकरा दिया़ उनका दो टूक जवाब था, ऐसे माहौल में मैं जश्न नहीं मना सकता़ तब गांधी ने कहा था: सत्ता से सावधान होनी की जरूरत है़ यह भ्रष्ट बनाती है़ गांधी जी ने बड़ी बात कही़ देश की आजादी के सत्ता के साथ जुड़ने वाला बड़ा तबका इस सूत्र को भूल गया़ दिल्ली से लेकर राज्यों के सत्ता के गलियारे अभिजात्य होते चले गये, लकदक सत्ता की चकाचौंध में डूब गये़ राजनीति खाने-कमाने का जरिया बन गया़ सत्ता सेवा से दूर होती गयी़
हालात बदले, तो फिर मीडिया की भूमिका वाच डॉग के रूप में देखी जानी लगी़ थके-हारे समाज का मानस मीडिया के प्रति आशावान बना़ मीडिया ने अपनी भूमिका भी निभायी़ देश-समाज को बनाने, संवारने, राह पकड़ाने में अागे रहा़ निष्पक्ष और प्रतिबद्धता के साथ जर्नलिज्म हुए, इसमें कोई शक नहीं है़ं
बाजारवाद के बाद भी कई लोगों ने अपनी साख बचायी़ फिर सूचना क्रांति का दौर आया़ खासकर जब सोशल मीडिया के माध्यम से एक अघोषित पुष्ट-अपुष्ट खबरों के प्रचार-दुष्प्रचार का दौर चल रहा हो़ सोशल मीडिया में मशाला खबरें एक साथ हजारों लोगों तक भागती हो, तो पत्रकारिता के पारंपरिक विद्या, तंत्र-मंत्र पर संकट तो होगा ही़ अखबारों और चैनल के पास बासी होती खबरों से निपटने की प्रतिस्पर्द्धा है़
ऐसे में विश्वसनीयता का संकट तो वाजिब है़ खबरों की आपाधापी बढ़ी़ खबरों को पाठकों तक पहले पहुंचाने की होड़ है़ न्यूज के साथ तथ्यों से दूर व्यूज के रंग चढ़े़ंगे धीरे-धीरे यह भी हुआ, मीडिया अघोषित रूप से ट्रायल का मंच बनता गया़ सोशल मीडिया में खबरों की भीड़ के बीच दरअसल वाजिब बातें गुम होती गयी़ं सत्ता का अधोपतन हुआ, तो पत्रकारिता की साख गिरी़
खबरों की विश्वसनीयता के साथ समाज और सरकारों की अपेक्षाओं का भी एक नया संकट है़ पत्रकारिता के कामकाज की प्रकृति ऐसी है कि इसका शासन-प्रशासन के साथ एक किस्म का रिश्ता है़ यह रिश्ता कैसा हो, इसके डाइमेंशन क्या हों, यही बड़ी चुनौती है़ रिश्तों में अपेक्षाएं भी होती है, तो यहां भी होंगी़ बदलते दौर में गिरावट और मानसिकता दोनों स्तर पर बदली है़ं
मीडिया कहीं सत्ता के प्रति आग्रही, तो कहीं बेवजह दुराग्रही भी हुआ़ संबंधों का दायरा भी टूटा़ उधर खबरों की गंभीरता खत्म हुई़, तो शासन भी मीडिया की खबरों में अपने लिए रस-रंग ढ़ंढूने लगा है़ शासन को भी खट्टे नहीं, केवल मिठे रस तलाश होने लगी़ इधर मीडिया का चाल, चरित्र और चेहरा बदला़ शासन में बैठे लोगों का नजरिया भी़ तथ्य परक, पारदर्शी और सिस्टम को दुरुस्त करने वाली खबरें भी व्यक्तिगत ली जाने लगी़ मीडिया में राग-दरबारी के ही धुन खोजे जाने लगे़
वास्तविकता यह है कि जो बात सदन में प्रधानमंत्री मोदी ने कही है, वही देश-समाज को बचा सकती है़ं ऐसी पत्रकारिता का सम्मान होना चाहिए, जो सामाजिक सरोकार से जुड़ीं हो़ं राजकाज से जुड़ी पत्रकारिता से ना तो शासन-प्रशासन का भला होगा, ना ही समाज को दिशा मिलेगी़ सत्ता पर मीडिया की पारखी नजर होनी चाहिए, लेकिन लठैत की तरह भूमिका में नही़ं
वहीं शासन संचालित करने वालों को भी सच के सहारे खड़ी खबरों, आत्म आलोचना को भी सहर्ष स्वीकार करना होगा़ ब्लैकमेलिंग और राग-दरबारी किस्म की पत्रकारिता दोनों के स्वाद अलग-अलग हो सकते हैं, पर हैं तो दोनों ही घातक़ इसमें एक पक्ष को तत्कालिक लाभ तो मिलता है़ लेकिन पाठक निर्भीक है, तटस्थ है, निरपेक्ष है़ वह सबको तौलता है़

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