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प्रभात खबर स्थापना दिवस पर विशेष : पत्रकार अब किस-किस के हिसाब से राग दरबारी गाये

शकील अख्तर सरकार और समाज की गलतियां बताना पत्रकारिता का पहला और मूल धर्म है. यह पहले भी हुआ करता था. आज भी है. पत्रकारिता पहले स्वतंत्र हुआ करती थी. पर क्या यह अब भी पहले की तरह ही स्वतंत्र है? अब उसे अपनी आजादी का लुत्फ किसी खास मौके या किसी खास वजह से […]

शकील अख्तर
सरकार और समाज की गलतियां बताना पत्रकारिता का पहला और मूल धर्म है. यह पहले भी हुआ करता था. आज भी है. पत्रकारिता पहले स्वतंत्र हुआ करती थी.
पर क्या यह अब भी पहले की तरह ही स्वतंत्र है? अब उसे अपनी आजादी का लुत्फ किसी खास मौके या किसी खास वजह से पल भर के लिए मिलती है. बाकी के वक्त वह डरी सहमी रहती है. अब तो उसपर हर पल नाराजगी और नाराजगी के नतीजों का डर छाया रहता है.
जंग-ए- आजादी के दौर में तो सिर्फ अंग्रेज हुक्मरान ही अपने अपने हिसाब से राग दरबारी गवाना चाहते थे. भला हो उस दौर की पत्रकारिता का जिसने अंग्रेजों के हिसाब से राग दरबारी नहीं गाया. पर अब आजाद हिंदुस्तान में सिस्टम, विज्ञापन दाता, समाज का हर हिस्सा चाहता है कि पत्रकार या रिपोर्टर उसके हिसाब से राग दरबारी गाये.
अगर किसी पत्रकार या रिपोर्टर ने राग-ए- हकीकत गा दिया तो उसकी खैर नहीं. कभी विज्ञापन काटने की धमकी तो कभी किसी और तरह की धमकी. कुछ न हुआ, तो बहुत ही आसानी से रिपोर्टर के गले में ’ब्लैक मेलर’ का तमगा बांधने की कोशिश भी करता है. सबूत मांगते ही सामनेवाले के मुंह पर सवाल दे मारता है. तो मैं क्या झूठ बोल रहा हूं? इस बदले माहौल में रिपोर्टर अब किसी खबर को लिखने से पहले कई बातें सोचता है.
पहले तो किसी खबर को लिखने से पहले यह भर सोचना पड़ता था कि कि खबर सही है या नहीं. अगर खबर सही साबित हुई तो बेबाक होकर लिखा जाता था. पर अब तो खबर के सही होने का सबूत जुटाने के बाद नाराजगी और बहिष्कार के प्वाइंट पर भी सोचना पड़ता है. दस्तावेज जुटाने के बाद यह सोचना पड़ता है कि कहीं इससे कोई नाराज तो नहीं होगा? अगर परिस्थितियां अनुकूल हुईं, तो खबर बनी वरना सारी मेहनत बेकार.

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