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अटल बिहारी वाजपेयी स्मृति शेष : आओ मन की गांठें खोलें…

अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता के साथ ही एक पत्रकार, कवि और बेहतरीन वक्ता भी रहे. उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंचों पर अपनी कविताएं पढ़ीं भी और लोगों ने उन कविताओं को सराहा. उनकी कविताओं में जीवन के संवंेदनशील पक्षों को अभिव्यक्ति मिली. अटल जी की कविताओं में उनके जीवन और राजनीतिक दर्शन के गंभीर पुट […]

अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता के साथ ही एक पत्रकार, कवि और बेहतरीन वक्ता भी रहे. उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंचों पर अपनी कविताएं पढ़ीं भी और लोगों ने उन कविताओं को सराहा. उनकी कविताओं में जीवन के संवंेदनशील पक्षों को अभिव्यक्ति मिली. अटल जी की कविताओं में उनके जीवन और राजनीतिक दर्शन के गंभीर पुट हैं.

उन्होंने निजी जिंदगी से लेकर राजनीतिक घटनाक्रमों पर बड़े ही दार्शनिक अंदाज में अपनी अनुभूतियों काे काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी. राजनीतिक घटनाक्रमों के संदर्भ में उनकी कविताएं उनके गहरे चिंतन और राजनीतिक विचारों-आदर्शों से परिचित कराती हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चुनी हुई कविताएं.

आओ फिर से दीया जलाएं

आओ फिर से दीया जलाएं

भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाई से हारा

अंतरतम का नेह निचोड़ें-

बुझी हुई बाती सुलगाएं.

आओ फिर से दीया जलाएं

हम पड़ाव को समझें मंजिल

लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल

वर्तमान के मोहजाल में-

आने वाला कल न भुलाएं

आओ फिर से दीया जलाएं.

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने-

नव दधीचि हड्डियां गलाएं

आओ फिर से दीया जलाएं.

सपना टूट गया

हाथों की हल्दी है पीली

पैरों की मेहंदी कुछ गीली

पलक झपकने से पहले ही,

सपना टूट गया.

दीप बुझाया रची दिवाली

लेकिन कटी न मावस काली

व्यर्थ हुआ आवाहन

स्वर्ण सबेरा रूठ गया

सपना टूट गया.

नियति नदी की लीला न्यारी

सब कुछ स्वाहा की तैयारी

अभी चला दो कदम कारवां

सपना टूट गया, साथी छूट गया.

मन हार कर मैदान नहीं जीते जाते

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी

ऊंचा दिखाई देता है

जड़ में खड़ा आदमी

नीचा दिखाई देता है.

आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है

न बड़ा होता है, न छोटा होता है

आदमी सिर्फ आदमी होता है.

पता नहीं इस सीधे, सपाट सत्य को

दुनिया क्यों नहीं जानती?

और अगर जानती है

तो मन से क्यों नहीं मानती?

इसमें फर्क नहीं पड़ता

कि आदमी कहां खड़ा है

पथ पर या रथ पर

तीर पर या प्राचीर पर

फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है

या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है

वहां उसका धरातल क्या है?

हिमालय की चोटी पर पहुंच

एवरेस्ट-विजय का पताका फहरा

कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध

अपने साथी से विश्वासघात करे

तो क्या उसका

अपराध इसलिए क्षम्य हो जायेगा कि

वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था?

नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा

हिमालय की सारी धवलता

उस कालिया को नहीं ढक सकती

कपड़ों की दुधिया की सफेदी जैसे

मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती.

किसी संत कवि ने कहा है कि

मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता

मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर

उसका मन होता है

छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता

टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता.

इसलिए तो भगवान कृष्ण को

शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़े

कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े

अर्जुन को गीता सुनानी पड़ी थी

मन हार कर, मैदान नहीं जीते जाते,

न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं.

चोटी से गिरने से

अधिक चोट लगती है

हड्डी जुड़ जाती

पीड़ा मन में सुलगती है

इसका अर्थ यह नहीं कि

चोटी पर चढ़ने की चुनौती ही न मानें

इसका अर्थ यह भी नहीं कि

परिस्थिति पर विजय पाने की न ठानें.

आदमी जहां है, वहीं खड़ा रहे

दूसरों की दया के द्वार पर खड़ा रहे?

जड़ता का नाम जीवन नहीं है

पलायन पुरोगमन नहीं है,

आदमी को चाहिए कि वह जूझे

परिस्थितियों से लड़े,

एक स्वप्न टूटे, तो दूसरा गढ़े.

किंतु कितना भी ऊंचा उठे

मनुष्यता के स्तर से न गिरे

अपने धरातल को न छोड़े

अंतर्यामी से मुंह न मोड़े

एक पांव धरती पर रख कर ही

वामन भगवान ने आकाश

पाताल को जीता था

धरती ही धारण करती है

कोई इस पर भार न बने.

मिथ्या अभिमान से न तने

मनुष्य की पहचान

उसके धन या सिंहासन से नहीं होती

उसके मन से होती है

मन की फकीरी पर

कुबेर की संपदा भी रोती है.

दो अनुभूतियां

पहली अनुभूति

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं

टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

लगी कुछ ऐसी नजर बिखरा शीशे-सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

पीठ में छुरी-सा चांद, राहू गया रेखा फांद

मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं

गीत नहीं गाता हूं.

दूसरी अनुभूति

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर

पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

प्राची में अरुणिम की रेख देख पता हूं

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

गीत नया गाता हूं.

आओ मन की गांठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले, घास फूस का घर डंडे पर

गोबर से लीपे आंगन में, तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर

मां के मुंह से रामायण के दोहे-चौपाई रस घोलें

आओ मन की गांठें खोलें.

बाबा की बैठक में बिछी चटाई, बाहर रखे खड़ाऊं

मिलने वालों के मन में असमंजस, जाऊं या न जाऊं

माथे तिलक, आंख पर ऐनक, पोथी खुली स्वयं से बोलें

आओ मन की गांठें खोलें.

सरस्वती की देख साधना, लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा

मिट्टी ने माथे के चंदन बनने का संकल्प न तोड़ा

नये वर्ष की अगवानी में, कुछ रुक लें, कुछ ताजा हो लें

आओ मन की गांठें खोलें.

मेरे प्रभु, मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना

गैरों को गले न लगा सकूं, ऐसी रुखाई कभी मत देना.

ऊंचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते

पौधे नहीं उगते हैं, न घास ही लगती है

जमती है सिर्फ बर्फ

जो कफन की तरह सफेद और

मौत की तरह ठंडी होती है

खेलती, खिलखिलाती नदी

जिस पर बूंद-बूंद रोती है.

ऐसी ऊंचाई, जिसकी परस

पानी को पत्थर कर दे

ऐसी ऊंचाई

जिसकी परस हीन भावना भर दे

अभिनंदन की अधिकारी है

आरोहियों के लिए आमंत्रण है

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं

किंतु कोई गौरैया

वहां नीड़ नहीं बना सकती

न कोई थका-मांदा बटोही

उसकी छांव पे पलक

ही झपका सकता है.

सच्चाई यह है कि

केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती

सबसे अलग-थलग

परिवेश से पृथक

अपनों से कटा-बंटा

शून्य में अकेला खड़ा होना

पहाड़ की महानता नहीं, मजबूरी है

ऊंचाई और गहराई में

आकाश-पाताल की दूरी है.

जो जितना ऊंचा

उतना ही एकाकी होता है

हर भार को स्वयं ही ढोता है

चेहरे पर मुस्कानें चिपका

मन-ही-मन रोता है.

जरूरी तो यह है कि

ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो

जिससे मनुष्य ठूंठ-सा खड़ा न रहे

औरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले

किसी के संग चले.

भीड़ में खो जाना

यादों में डूब जाना

स्वयं को भूल जाना

अस्तित्व को अर्थ

जीवन को सुगंध देता है.

धरती को बौनों की नहीं

ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है

इतने ऊंचे कि आसमान को छू लें

नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें.

किंतु इतने ऊंचे भी नहीं

कि पांव तले दूब ही न जमे

कोई कांटा न चुभे

कोई कली न खिले

न बसंत हो, न पतझड़

हो सिर्फ ऊंचाई की अंधड़

मात्र अकेलेपन का सन्नाटा.

मेरे प्रभु, मुझे इतनी

ऊंचाई कभी मत देना

गैरों को गले न लगा सकूं

ऐसी रुखाई कभी मत देना.

कदम मिला कर चलना होगा

जीवन को शत-शत आहुति में जलना होगा,

गलना होगा, कदम मिला कर चलना होगा.

बाधाएं आती हैं, आएं

घिरे प्रलय की ओर घटाएं

पांवों के नीचे अंगारे

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं

निज हाथों से हंसते-हंसते

आग लगा कर जलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा.

हास्य-रूदन में, तूफानों में

अगर असंख्य बलिदानों में

उद्यानों में, वीरानों में

अपमानों में, सम्मानों में

उन्नत मस्तक, उभरा सीना

पीड़ाओं में चलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा.

उजियारे में, अंधकार में

कल कछार में, बीच धार में

घोर घृणा में, भूल प्यार में

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में

जीवन के शत-शत आकर्षक

अरमानों को दलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा.

सम्मुख फैला अमर ध्येय पथ

प्रगति चिरंतन कैसा इति-अथ

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम शलथ

असफल, सफल समान मनोरथ

सबकुछ देकर न कुछ मांगते

पावस बन कर ढलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा.

कुश कांटों से सज्जित जीवन

प्रखर प्यार से वंचित यौवन

नीरवता से मुखरित मधुवन

परहित अर्पित अपना तन-मन

जीवन में शत-शत आहुति में

जलना होगा, गलना होगा

कदम मिला कर चलना होगा.

कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन

कौन पांडव

टेढ़ा सवाल है.

दोनों ओर शकुनि

का फैला

कूटजाल है.

धर्मराज ने छोड़ी नहीं

जुए की लत है

हर पंचायत में

पांचाली

अपमानित है.

बिना कृष्ण के

आज

महाभारत होना है

कोई राजा बने

रंक को तो रोना है.

मौत से ठन गयी

ठन गयी!

मौत से ठन गयी!

जूझने का मेरा इरादा न था

मोड़ पर मिलेंगे, इसका वादा न था

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गयी

यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गयी

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं

जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं

लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?

तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आजमा.

मौत से बेखबर, जिंदगी का सफर

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर

बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं

दर्द अपने-पराये कुछ कम भी नहीं

प्यार इतना परायों से मुझको मिला

न अपनों से बाकी है कोई गिला

हर चुनौती से दो-दो हाथ मैंने किये

आंधियों में जलाये हैं बुझते दिये

आज झकझोरता तेज तूफान है

नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है

पार पाने का कायम मगर हौसला

देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गयी

मौत से ठन गयी.

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