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अमेरिकी आर्थिक नीतियों के साये में सिकुड़ रही है वैश्विक अर्थव्यवस्था
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक संरक्षणवादी नीतियों के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूती की ओर अग्रसर है और डॉलर की कीमतें बढ़ रही हैं. पर, दुनिया की अन्य बड़ी और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में कमी के आसार हैं. आयात शुल्क बढ़ाने, चीन के साथ वाणिज्य युद्ध, रूस एवं ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध, विभिन्न देशों के साथ व्यापार […]
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक संरक्षणवादी नीतियों के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था मजबूती की ओर अग्रसर है और डॉलर की कीमतें बढ़ रही हैं. पर, दुनिया की अन्य बड़ी और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में कमी के आसार हैं. आयात शुल्क बढ़ाने, चीन के साथ वाणिज्य युद्ध, रूस एवं ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध, विभिन्न देशों के साथ व्यापार घाटे को कम करने की कोशिशों जैसी नीतियों का नकारात्मक प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है. जानकारों की राय है कि एकतरफा रवैया जल्दी ही खुद अमेरिका के लिए नुकसानदेह हो सकता है. इस पूरे मसले पर आज के इन-दिनों में एक विश्लेषणात्मक प्रस्तुति…
भारत के लिए चिंता अभी गहरी नहीं
संदीप बामजई
आर्थिक मामलों के जानकार
अमेरिका में फेडरल बैंक की तरफ से इजी मनी की पॉलिसी चल रही थी, लेकिन अब अमेरिका की आर्थिक नीतियों में बदलाव के चलते यह नीति भी खत्म हो गयी है. इसकी वजह से अमेरिकी सरकार को ब्याज की दरें बढ़ानी पड़ी हैं.
अमेरिका का फेडरल बैंक अगर ब्याज की दरें बढ़ायेगा, तो इसका असर दूसरे देशों पर भी पड़ेगा, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है. अमेरिका की जीडीपी का आकार 20 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि भारत की जीडीपी का आकार 2.8 ट्रिलियन डॉलर है. इसलिए जब भी बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी ब्याज दर बढ़ाती हैं , तो इसका असर दूसरी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ता ही है, क्योंकि इस बढ़ोतरी के फलस्वरूप अमेरिका से आयात करनेवाले देशों को अब ज्यादा पैसे अदा करने पड़ेंगे.
इस स्थिति में, जब अमेरिकी डॉलर की हालत मजबूत होगी, तो इससे आयात करनेवाली कंपनियों को घाटा होगा और निर्यात करनेवाली कंपनियों को फायदा होगा. भारत पूरे साउथ एशिया को वस्तुएं निर्यात करता है. इसका मतलब साफ है कि इससे डॉलर में कारोबार करनेवाली भारतीय कंपनियों को ही फायदा हो रहा है. बीते कुछ महीनाें से ऐसी भारतीय कंपनियां खूब कमाई कर रही हैं.
अमेरिका के संरक्षणवादी नीतियों पर चलने की वजह से और ट्रेड वार की हालत पैदा हो जाने से डॉलर लगातार मजबूत हुआ है, इससे होता यह है कि भारत की इंफोटेक, टेक्सटाइल, फार्मास्युटिकल आदि कंपनियों की कमाई बढ़ जाती है, क्योंकि ये कंपनियां डॉलर में ही कारोबार करती हैं.
लेकिन वहीं, बीएचइएल, लार्सन एंड टुब्रो, हिंदुस्तान पेट्रोलियम जैसी कंपनियों को घाटा होता है, क्योंकि इन्हें खरीद करने के लिए रुपये के मुकाबले मजबूत हुए डॉलर खर्च करने पड़ते हैं. भारत 80 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है. और जब कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की वृद्धि होती है, तो भारत को साढ़े चार-पांच हजार करोड़ रुपये का घाटा (ऑयल पुल डेफिसिट) होता है.
जैसे-जैसे यह घाटा बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे रुपये की कीमत पर इसका असर पड़ता है और डॉलर भी मजबूत होता जाता है. यही स्थिति दुनिया के बाकी देशों के साथ भी है, जिनकी अर्थव्यवस्था में आयात की हिस्सेदारी ज्यादा होती है.
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जनवरी 2017 में 426 बिलियन डॉलर था, जो अब घटकर 399 बिलियन डॉलर हो गया है. चूंकि आरबीआई डॉलर खरीदता है, लेकिन रुपये को मजबूत करने के लिए उसे वायदा बाजार में डॉलर बेचने पड़े हैं, इसलिए भारत का विदेशी मुद्रा भंडार कम हो गया है.
भारत के पास रुपये को मजबूत करने का एक ही उपाय है कि आरबीआई स्पॉट और फ्यूचर्स मार्केट में डॉलर बेचे. इस डॉलर को बेचने से पैसा आता है और रुपये की हालत मजबूत होती है. अब सवाल यह है कि भारत कितना डॉलर बेच सकता है? फिलहाल तो भारत को अपने विदेशी मुद्रा भंडार में करीब 27 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है और यह सब अमेरिकी आर्थिक नीतियों में हो रहे बदलाव का ही नतीजा है.
जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था की ग्रोथ की बात है, तो फिलहाल इस पर इतना असर नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि इस साल कुछ हिस्सों को छोड़कर देशभर में ठीक-ठाक बारिश हुई है और उत्पादन ठीक रहने से उपभोग अच्छा रहने की उम्मीद भी है.
जितनी भी कंजप्शन कंपनियां हैं, वे अभी से कमर कस चुकी हैं कि फिलहाल उन्हें उपभोक्ताओं के हितों का ख्याल रखते हुए मार्केट में अच्छे से जमे रहना है. अच्छी बारिश और उस कारण होनेवाले उत्पादन से ग्रामीण क्षेत्रों में भी उपभोग बढ़ता है और अर्थव्यवस्था की ग्रोथ बढ़ती है. इसलिए फिलहाल अर्थव्यवस्था सात के पार रहेगी .
क्या कह रहे हैं फेडरल रिजर्व के चेयरमैन
तेल प्रतिबंधों का वैश्विक बाजार पर असर
तेल निर्यातों पर लगे प्रतिबंधों के आगामी नवंबर से बड़े पैमाने पर प्रभावी होने के बाद वैश्विक बाजार पर 2015 के प्रतिबधों की तुलना में बड़ा और बुरा असर देखने को मिल सकता है. हालांकि तेल व्यापारियों के बीच से अभी तक कोई चिंता नहीं व्यक्त की गयी है.
विशेषज्ञों के अनुसार, यूरोपीय या अन्य सरकारें चाहें कितना भी ट्रंप सरकार के ईरान न्यूक्लियर डील से पीछे हट जाने का विरोध कर लें, राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी चाहें कितना भी ईरान के तेल और गैस के निर्यात करने की स्वतंत्रता के पक्ष में कोशिश कर लें, लेकिन आने वाले वक्त में यह प्रतिबंध हटने वाला नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि तेल की खरीद-फरोख्त सरकारें नहीं, बल्कि प्राइवेट कंपनियां करती हैं. ऐसी कोई सूरत नहीं दिखायी देती कि कंपनियां अमेरिकी बाजारों और बैंकिंग सिस्टम से बेदखल कर दिए जाने का खतरा उठाकर ईरान से व्यापार करना चाहेंगी और इसी वजह से अंतरराष्ट्रीय शिपिंग कंपनियां भी वित्तीय परिवहन में ईरान का सहयोग नहीं करना चाह रही हैं.
जुलाई में क्रूड आयल का निर्यात 4,30,000 बैरल/प्रति दिन की दर से नीचे चला गया था. अप्रैल महीने की तुलना में यह गिरावट 15 प्रतिशत की थी. मई महीने में डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया था, जिसका असर अब दिखायी देना शुरू हो गया है.
हॉलैंड की कंपनी रॉयल डच शेल और पूरे दक्षिण अफ्रीका के आयात से पीछे हटने के बाद आशंका जतायी जा रही है कि यूरोपीय कंपनियां भी ईरान से संबंध रखने में पीछे हट जायेंगी. जुलाई में ही यूरोपीय क्रूड आयल आयात अप्रैल की तुलना में 41 प्रतिशत नीचे यानी, 2,20,000 बैरल/प्रति दिन की दर से नीचे चला गया था. नवंबर तक यह शून्य तक जा सकता है.
धीमी हो सकती है अमेरिकी अर्थव्यवस्था
पिछले साल के आखिर में 1.5 ट्रिलियन डॉलर की कर कटौती पारित होने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही में 4.1 प्रतिशत के वार्षिक दर से बढ़ी, जो लगभग चार वर्षों में इसका सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा.
लेकिन रायटर समाचार एजेंसी द्वारा सौ से अधिक अर्थशास्त्रियों के बीच किये गये नवीनतम सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि अप्रैल-जून तिमाही में चार साल के उच्चतम स्तर को छूने के बाद आगामी तिमाही में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि तेजी से धीमी होगी और अगले साल के अंत तक इसकी वृद्धि दर में वर्तमान के मुकाबले अाधे से अधिक की कमी दर्ज की जायेगी. अर्थशास्त्रियों का यह भी अनुमान है कि चालू तिमाही में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 3 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी, लेकिन आगामी तिमाही में इसकी वृद्धि दर 2.7 प्रतिशत पर आ जायेगी. उम्मीद यह भी जतायी जा रही है कि अर्थव्यवस्था के धीमा होने के कारण चीन के साथ ट्रेड वार को नुकसान पहुंचेगा.
इस बारे में राबोबैंक के जानेमाने वरिष्ठ अमेरिकी रणनीतिकार फिलिप मैरे का कहना है कि व्यापार को लेकर अब तक अमेरिका और उसके प्रतिरोधस्वरूप दूसरे देशों की सरकारों द्वारा जो कदम उठाये गये हैं, उससे अर्थव्यवस्था के आंशिक रूप से धीमा होने की संभावना है.
लेकिन वैश्विक ट्रेड वार के मामले में, जहां अमेरिका को लक्ष्य कर दूसरे देशों द्वारा संरक्षणवादी रवैया अपनाये जायेगा, इसमें बदलाव आ सकता है. वेल्स फार्गो के वरिष्ठ अर्थशास्त्री सैम बुलार्ड ने भी व्यापार विवाद के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना जतायी है, लेकिन जीडीपी की वृद्धि दर बहुत ज्यादा कम होगी, ऐसा वे नहीं मानते हैं.
हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि व्यापार विवाद के और ज्यादा गहराने और उसके बाद अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन के आधार पर ही कुछ भी कहा जा सकता है. वहीं, सर्वेक्षण में शामिल सौ से अधिक अर्थशास्त्रियों में से महज एक ने माना कि 2020 में अमेरिका में मंदी आ सकती है. जबकि ट्रंप का मानना है िक ट्रेड टैरिफ से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लाभ होगा.
डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों का नकारात्मक असर
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका आर्थिक नीतियों में आक्रामक रुख अपनाये हुए है. इसी हफ्ते अमेरिका और चीन ने एक-दूसरे के आयातों पर 16 बिलियन डॉलर मूल्य के टैरिफ बढ़ा दिये हैं.
मार्च 2018 में, डोनाल्ड ट्रंप ने ‘ट्रेड वार’ छेड़ने की धमकी दी थी और उसके बाद से लेकर आज तक हुए आर्थिक क्रियान्वयन के आधार पर देखा जा रहा है कि अब अमेरिका ही जी-7 के देशों में अकेला ऐसा देश है, जिसकी अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर्ज की जा रही है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी का नकारात्मक असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है. डॉलर का मूल्य बढ़ने और ब्याज दरों में वृद्धि करने के बाद भारत, चीन ही नहीं अपितु वैश्विक अर्थव्यवस्था गिरावट पर है. हालांकि वैश्विक विकास दर अपनी वृद्धि पर है, लेकिन अमेरिका के अलावा इसमें अपनी भूमिका निभाने वाले अन्य देशों का प्रदर्शन गिर गया है.
यह हिस्सेदारी 60 प्रतिशत पर आ गयी है, जो 2016 में 80 प्रतिशत थी. वित्तीय बाजारों में समानांतर वैश्विक उछाल के धीमे होने का असर स्पष्ट दिखायी दे रहा है. नेटवेस्ट मार्केट में क्रॉस-एसेट प्रमुख जिम मैकॉर्मिक के प्रमुख का कहना है कि आर्थिक वृद्धि में अनियमितता आगे भी दिखायी देती रह सकती है. कुछ महीने पहले तक भारत और चीन वैश्विक वृद्धि में 45 प्रतिशत की भागीदारी करने वाले देश थे, लेकिन अभी परिस्थितियां दूसरे पाले में ही विचरण कर रही हैं.
विकसित देशों की आर्थिकी में उतार-चढ़ाव
अमेरिका के फेडरल रिजर्व द्वारा इस वर्ष ब्याज दरों में दो बार वृद्धि करने से अमेरिकी डॉलर के मूल्य में लगभग छह प्रतिशत का इजाफा हुआ है. इस वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह इस वर्ष की सर्वाधिक महंगी मुद्रा बन चुकी है.
भले ही ट्रंप ने यह कदम चीन को धमकी देने के लिए उठाया , लेकिन इस कदम ने अंतरराष्ट्रीय कर्जदारों के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है. डॉलर के मूल्य में इस वृद्धि के कारण दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ने की संभावना भी जतायी जा रही है.
इस वृद्धि से अमेरिका के साथ जी-7 में शामिल देश भी खासे प्रभावित हुए हैं. हालांकि वित्तीय बाजार इसे अल्पकालिक वृद्धि मान रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद इसका परिणाम अच्छा नहीं रहनेवाला है. नैटवेस्ट मार्केट की मानें तो स्टैंडर्ड और पुअर के 500 सूचकांक में जहां ऑस्ट्रेलिया को मिलने वाले लाभ का प्रतिशत लगभग सात बताया गया था, उसकी तुलना में इस वर्ष ऑस्ट्रेलियाई डॉलर और तांबे के मूल्य में 4.5 प्रतिशत की कमी आयी है.
इस संबंध में नैटवेस्ट के क्रॉस-एसेट स्ट्रेटजी के प्रमुख जिम मैक कॉर्मिक का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया के प्रदर्शन में आयी इस कमी के कारण इस वर्ष होनेवाला विकास निश्चित तौर पर असंतुलित रहेगा. जापान की अगर बात करें तो अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वजह से जापान की अर्थव्यवस्था भी धीमी हो चली है.
वहीं कई सर्वेक्षण बताते हैं कि अमेरिकी डॉलर का मूल्य बढ़ने के कारण यूरोप का निर्यात भी प्रभावित हुआ है. बीते दो वर्षों के दौरान इस वर्ष जून में पहली बार जर्मनी द्वारा किये जाने वाले निर्यात में कमी देखी गयी है, जबकि इटली को अपने वित्तीय योजनाओं के लिए निवेशक जुटाने में परेशानी आ रही है. वहीं ब्रेक्जिट के कारण यूके की अर्थव्यवस्था अनिश्चितताओं के भंवर में फंसी हुई है. जर्मनी फैक्टरी आर्डर ने भी जून में ही दी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वे पिछले दो वर्षों की सबसे बड़ी वार्षिक गिरावट का सामना कर रहे हैं.
भारत की चिंता
अमेरिकी आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के समीकरण भी बदल रहे हैं. मांग और पूर्ति किसी भी स्थिति में रोकी नहीं जा सकती है, क्योंकि ये अर्थव्यवस्था के मूल कारक हैं. अगर पक्के या कच्चे माल की कमी आती है, तो इस स्थिति में उपभोक्ता पर अतिरिक्त आर्थिक भार देखने को मिल सकता है.
डोनाल्ड ट्रंप ने जब भारत पर 100 प्रतिशत टैरिफ का आरोप लगाया था, उसके बाद से भारत ने चीन के साथ-साथ अमेरिकी कूटनीतिक चालों में अपनी भूमिका शामिल की है. लेकिन फिर भी, इस महीने रुपये की कीमत पहली बार डॉलर के मुकाबले 70 के पार चली गयी है. भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह अच्छे संकेत नहीं हैं. लेकिन आर्थिक विकास पर फिलहाल इतना असर नहीं पड़ेगा. देश के जो हिस्से उत्पादन में असरकारी भूमिका निभाते हैं, उन इलाकों में अच्छी बारिश हुई है, जिससे उत्पादन ठीक रहने की उम्मीद है.
उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर भी असर
लॉजिस्टिक के क्षेत्र में अग्रणी कुएने व नागेल ग्रुप की मानें तो अमेरिकी आर्थिक नीतियों का असर उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ा है. इन नीतियों की वजह से न सिर्फ आयात-िनर्यात में कमी आयी है, बल्कि इस महीने उभरती अर्थव्यवस्था की विकास दर भी धीमी हुई है. इस समूह की गणना के अनुसार ब्राजील, दक्षिण कोरिया, ताईवान और भारत का व्यापार साल-दर-साल पांच प्रतिशत से अधिक की दर से सिकुड़ रहा है.
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