निराला बिदेसिया
तिस्ता चली गयी. उसका पूरा नाम था-अनुभूति शांडिल्य तिस्ता. छपरा के रिविलगंज की रहनेवाली थी वह. प्रसिद्ध लोकगायक और संगीत-गुरु उदय नारायण सिंह की बिटिया थी. संगीतकार-गायक कलाकार पिता के सान्निध्य में बचपन से ही रगों में राग का रंग चढ़ने लगा था.
कलाकार बनने के लिए सबसे जरूरी होता है बिना किसी अहंकार के, बिना किसी विशिष्टताबोध के खुद को कला के प्रति समर्पित कर देना. रियाज,अभ्यास,साधना. और इन सबके बाद ईश्वरीय कृपा. तिस्ता कला के रंग में ही रंगने लगी. वही उसके जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य बनने लगा. एक पिता को और क्या चाहिए होता है? उसकी संतान अगर उसकी विरासत और परंपरा को ही आगे बढ़ाने लगे तो वह फिर संतान से एकाकार होने लगता है.
अपने जीवन में न कर पाने की तमाम कसक को, तमाम सपनों को संतान के जरिये ही पूरा करने के सपने के साथ जीने लगता है. वही हुआ था तिस्ता के साथ.
तिस्ता ने लोकगाथा का गायन शुरू किया. बाबू वीर कुंवर सिंह की गाथा का प्रदर्शन शुरू किया. शैली अपनायी पंडवानी की. तिस्ता का प्रदर्शन मैंने सिवान जिले के पंजवार गांव में आखर के मंच पर देखा था. ओज और ऊर्जा के साथ उसे मौखिक भाषा और दैहिक भाषा का मिलान करवाते हुए.
चार रोज पहले तिस्ता से मिलने पटना एम्स गया था. उसका हाल देखकर लग गया था कि अब चमत्कार ही इसे बचा पायेगा. दो दिनों बाद चमत्कार की आस भी टूट चुकी थी, क्योंकि डाक्टरों ने कह दिया था कि अब कुछ भी संभव नहीं. हम जैसे कुछ लोग दो दिनों पहले ही जान चुके थे कि सारा केस हाथ से निकल चुका है, लेकिन जब तक सांस, तब तक आस वाली बात होती है. लेकिन जिस दिन से आस टूटी, उसी दिन से यह सवाल सामने है कि एक तिस्ता के जाने से कितना नुकसान हुआ है? उदय नारायण सिंह के परिवार का जो नुकसान हुआ है, उसे शब्दों में नहीं लिखा जा सकता.
लेकिन उससे इतर कला जगत का, विशेषकर भोजपुरी कला जगत का जो नुकसान हुआ है, वह सवाल बार-बार सामने आ रहा है. किसी कलाकार का जाना, उसकी जगह को रिक्त कर जाता है, लेकिन भोजपुरी की किसी महिला कलाकार का जाना, ऐसी रिक्तता पैदा करता है, जिसकी भरपाई संभव नहीं. और वह भी तब जब वह महिला कलाकार भोजपुरी भाषा को औजार बनाकर औरतों का देह नोच रहे गीतकारों, संगीतकारों, रिकार्डिस्टों, कलाकारों का मुकाबला करने को त्याग और समर्पण के साथ मैदान में हो.
भोजपुरी में ऐसी महिला कलाकारों की संख्या बहुत कम है. बहुत कम. ऐसी महिला कलाकारों की संख्या क्या कहें, भोजपुरी में अपने समाज से महिला कलाकारों की ही संख्या बहुत कम है. भोजपुरी समाज नायक और गायक पैदा करनेवाला, उसे बढ़ानेवाला समाज रहा है.
उसे मनोरंजन और मनरंजन के लिए स्त्री कलाकार तो चाहिए, लेकिन अपने घर की बेटी-बहू नहीं, वह उधार से काम चलाता है. यह कोई आज की बात नहीं. शुरू से देख लें. अगर शारदा सिन्हा न होतीं, विंध्यवासिनी देवी न होतीं, विजया भारती न होतीं, जिन्होंने भोजपुरी लोकगीतों को ऊंचाई दी, दुनिया में फैलाया.
भोजपुरी ने ताल ठोंककर अरसे बाद अपने समाज से छपरा की रहनेवाली गायिका को बढ़ाया था. अरसे बाद ऐसा हुआ था, जब कोई पिता भोजपुरी समाज से अपनी बेटी को लेकर मंचों पर जाने लगा था, गवाने लगा था. लंबा समय लगा था ऐसा होने में. विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा, विजया भारती जैसे कलाकारों ने वर्षों अपना जीवन खपाकर जिस रास्ते को तैयार किया था, उस पर चलने को भोजपुरी समाज जल्दी तैयार नहीं हुआ था.
लेकिन यह ट्रेंड नहीं बन सका. भोजपुरी समाज डरता रहा अपनी बेटियों को गायिका और नायिका बनाने में. गायकी से इतर सिनेमा की ही बात करें तो भोजपुरी सिनेमा के लिए भोजपुरी समाज ने अपने इलाके से नायिकाओं को नहीं दिया. जब पहली फिल्म बन रही थी, तब भी भोजपुरी समाज की अपनी नायिका नहीं थी और आज भी पाखी हेगड़े, रानी चटर्जी जैसी नायिकाएं अपनी नहीं हैं. प्रतिकूल स्थितियों के बावजूद कुछ अभिभावकों ने साहस दिखाया. अपनी बेटियों को मंच पर उतारा. उंगली पकड़कर साथ ले जाने लगे.
चुनौतियों से मुकाबला करने लगे. कुछ ने बेटियों को उतारा तो बेटियों ने बाजार और गायक-नायक प्रधान समाज के मन मिजाज के हिसाब से अधिक से अधिक पैसे कमाने के फेरे में, रातों-रात शोहरत के फेरे में दूसरा रास्ता अपना लिया. शमियान के चोंप से ढोंढ़ी को घोंपनेवाला गीत गाने लगे. और अंत में कुछ लड़कियां बच गयीं भोजपुरी के खाते में, जो संयम, विवेक, साहस के साथ त्याग और समर्पण के साथ मैदान में डंटी रहीं. डंटने का संकल्प लिया.
सिर्फ संकल्प नहीं लिया, निरंतर सक्रिय रहीं. लेकिन, ऐसी लड़कियों की संख्या बहुत कम. एकदम उंगली पर गिनने लायक. तिस्ता वर्तमान समय में भोजपुरी की उसी दुर्लभ धारा की कलाकार थी. उसका जाना अकालग्रस्त भोजपुरी की सांस्कृतिक रूप से बंजर जमीन पर ऊपर से वज्र गिरने के समान है.