डॉ कमल कुमार बोस
संत, साहित्यकार, भारतीय धर्म एवं संस्कृति के अध्येता, बाइबिल के अनुवादक, अंगरेजी हिंदी कोश के प्रणेता, तुलसी के अनन्य भक्त, भारत-प्रेमी, हिंदी सेवी, रामकथा के मर्मज्ञ विद्वान बाबा कामिल बुल्के, संत बुल्के, पिता बुल्के, हम सभी के गर्व-गौरव के प्रतीक थे. उनका जन्म दूर बेल्जियम के फ्लैंडर्स में सन 1909 ई को हुआ था. उनके पुश्तैनी गांव का नाम है – राम्सकैपल. डॉ बुल्के जितने आदर्श मसीही थे, उतने ही अंतरंग निष्ठावान हिंदी-सेवक थे. वे बेल्जियम के होते हुए भी पूरी तरह भारतीय थे, अपने लिए किये गये ‘विदेशी’ संबोधन से आहत हुआ करते थे. स्वयं को किसी भारतीय से ज्यादा भारतीय होने का सगर्व दावा किया करते थे. किसी भी बातचीत या अभिव्यक्ति में अंगरेजी शब्दों का प्रयोग हिंदी के साथ कर शिक्षित व आधुनिक होने का भ्रम पालनेवालों को ऐसा न करने की नेक सलाह देकर हिंदी की क्षमता के प्रति आश्वस्त थे. अभियांत्रिकी से हिंदी के बीच का सफर उन्होंने धर्म और दर्शन के विभिन्न क्षेत्रों में किया.
1932 में जर्मनी के युसुइट कॉलेज से दर्शनशास्त्र में एमए एवं कॉर्सियंग कॉलेज द्वारा 1939 से 1942 ई में धर्मशास्त्र की प्रवीणता प्राप्त करने के बाद फादर बुल्के का पदार्पण भारतीय भाषा-साहित्य के क्षेत्र में हुआ. 1930 ई में पहली बार भारत आये. उन्होंने बार-बार स्वीकारा है कि उन्हें गंगा और यमुना के इस देश में खींच लाने का श्रेय मानसकार गोस्वामी तुलसीदास को है. ‘‘परहित सरसि धर्म नहिं भाई/पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’’- वाली अद्धीली से वे इतना अभिभूत हुए कि उन्होंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वे कभी-न-कभी तुलसी के देश में जायेंगे और इस कवि के साहित्य को मूल में पढ़ेंगे, जिसमें मानवता के लिए ऐसे ऊंचे संदेश हैं. बहुभाषाविद, कर्मयोगी, संन्यासी फादर बुल्के सबके लिए स्नेह का अपार खजाना लुटाते. मुक्तहस्त पुस्तकें बांटनेवाले, दुर्लभ पुस्तकों को उपलब्ध करा आनंदित होनेवाले, अपनी स्नेहमयी मुस्कान से लोगों को राहत देनेवाले, दुखियों, अभावग्रस्तों एवं तनावों से आक्रांत लोगों के दु:ख-दर्द को दूर करने के लिए व्यग्र होनेवाले फादर बुल्के सच्चे मानव थे. जो उनके संपर्क में आता, उन्हीं का हो जाता.
पुरुलिया रोड रांची में अवस्थित मनरेसा हाउस स्थित अपने आवास एवं उनके द्वारा उन दिनों स्थापित पुस्तकालय का द्वार हमेशा खुला रहता, सबका स्वागत सम्मान करते, उचित सलाह-मार्गदर्शन देते, मित्र-अभिभावक एवं दार्शनिक की भांति पेश आते, किसी की सफलता पर बेहद खुश होते, असफल होनेवाले को हिम्मत देते, गुरुमंत्र देते. बड़े ही आत्मीय थे फादर, बड़े अनौपचारिक और मनोविनोदी भी. आचार-विचार से पूर्णत: सात्त्विक थे फादर. मनुष्य मात्र के लिए प्रेम, धर्मों के विविध एवं व्यापक फलक के प्रति समभाव रखनेवाले, आजीवन कर्म की अहर्निश उपासना करनेवाले, जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठ चुके उदार एवं मानवता के पुजारी फादर बुल्के सच्चे अर्थों में संत थे.
उनका शोघ प्रबंध ‘‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’’ ने संपूर्ण विश्व-साहित्य में रामकथा के उद्भव और प्रसार के विश्व-कोश का रूप धारण कर लिया था. फादर बुल्के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वैसे पहले शोधकर्ता थे, जिन्होंने अपना शोध प्रबंध हिंदी में लिखा और शोधों की माध्यम भाषा के रूप में हिंदी को प्रतिष्ठित किया. सन् 1950 तक वे रांची संत जेवियर कॉलेज के हिंदी-संस्कृत विभागाध्यक्ष रहे. फादर अपने धर्मसंघ को हिंदीमय देखना चाहते थे. उन्होंने सबसे पहले दर्शन एवं धर्मशास्त्र आदि विषयों की पारिभाषिक शब्दावली का एक लघुकोश ‘ए टेक्निकल इंग्लिश हिंदी ग्लौसरी’ (1955) में प्रकाशित किया. इस लघुकोश का व्यापक स्वागत हुआ एवं कठिन परिश्रम के बाद उनका वृहद एवं अतिलोकप्रिय कोश ‘अंगरेजी हिंदी कोश’ (1968) में तैयार किया. उनकी पुस्तक ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ को भी काफी ख्याति मिली. कोश पूरा करने के तुरंत बाद फादर बुल्के ने मूल ग्रीक से ‘न्यू टेस्टामेंट (नया विधान) के हिंदी अनुवाद में हाथ लगाया. अनुवाद फादर बुल्के के लिए कोई नया काम नहीं था. उन्होंने 1942 ई में अपनी पुस्तक ‘द सेवियर’ का हिंदी अनुवाद ‘मुक्तिदाता’ के नाम से किया. 1958 ई में बिहार राज्य भाषा परिषद के अनुरोध पर ‘द ब्लू बर्ड’ नाटक का हिंदी अनुवाद ‘नील पंक्षी’ के नाम से किया.
उन्होंने नया विधान के ‘संत लुकस का सुसमाचार’ का अनुवाद 1963 ई में प्रस्तुत किया था. उन्होंने इस रचना के ‘पर्वत प्रवचन’ और ‘प्रेरित चरित्र’ नामक अंशों का अनुवाद क्रमश: 1959 एवं 1973 में किया था. उनके अनेक शोधात्मक एवं हिंदी प्रेम से सराबोर निबंध हिंदी, अंगरेजी एवं अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुए हैं. संपूर्ण बाइबिल के अनुवाद में संलग्न फादर बुल्के को मरण-शय्या तक यह चिंता सालती रही कि उन्होंने ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के 930 पृष्ठों का अनुवाद तो कर दिया है, शेष 150 पृष्ठ अनुदित नहीं हो सके. भाषा को समृद्ध करनेवाले रचनात्मक कार्य के रूप में अनुवाद का महत्व है, इस दृष्टि से फादर बुल्के का योगदान महत्वपूर्ण है. हिंदी अौर अंगरेजी में उनकी पुस्तकों की कुल संख्या उनतीस है और उनके शोध निबंधों की संख्या साठ से भी ज्यादा है. उनके अतिरिक्त उनके लगभग सौ से अधिक प्रकाशित लघु निबंध और छोटी-बड़ी टिप्पणियां हैं, जो मुख्यत: नागरी प्रचारिणी सभा के हिंदी विश्वकोश के विभिन्न खंडों में मुद्रित हैं. उन्हें 1973 ई में बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया था. उनकी हिंदी सेवाओं के लिए 1974 ई में उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया. फादर बुल्के का पार्थिव शरीर 17 अगस्त 1982 ई को संसार से उठ गया. अपने मानववादी हृदय द्वारा छात्रों और शोधार्थियों की लंबी कतार को उपकृत करनेवाले फादर बुल्के का व्यक्तित्व हम सबके लिए अनुकरणीय है.
लेखक संत जेवियर्स कॉलेज, रांची में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं.