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हिंदी दिवस आज : वाह-वाह व फूल-माला से उठें ऊपर
वर्तमान में देश की लगभग 44 फीसदी आबादी हिंदी को अपनी मातृ-भाषा के रूप में स्वीकारती है. जनगणना के इन आंकड़ों से इतर हिंदी अब भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर देश-दुनिया में खासो-आम की जुबान बन रही है. तमाम संदर्भों और प्रयोजनों में जिस व्यापकता और सहजता के साथ हिंदी ने पैठ बनायी है, उससे […]
वर्तमान में देश की लगभग 44 फीसदी आबादी हिंदी को अपनी मातृ-भाषा के रूप में स्वीकारती है. जनगणना के इन आंकड़ों से इतर हिंदी अब भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर देश-दुनिया में खासो-आम की जुबान बन रही है.
तमाम संदर्भों और प्रयोजनों में जिस व्यापकता और सहजता के साथ हिंदी ने पैठ बनायी है, उससे स्पष्ट है कि हिंदी महज अकादमिक पठन-पाठन तक सीमित न होकर आम-संपर्क का सशक्त माध्यम बन रही है. सूचना क्रांति ने जिस प्रकार साहित्यिक परिवेश को बदला है, उससे लेखकों-पाठकों के बीच दूरियां अभूतपूर्व रूप से कम हुई हैं. हिंदी की नयी रचनाओं और लेखकों को लेकर लोगों में जो उत्सुकता और रुचि बढ़ी है, वह हिंदी के भाषाई प्रवाह के और भी तेज होने का स्पष्ट संकेत है. हिंदी दिवस पर जन-जन के मन में रची-बसी हिंदी के बदलते स्वरूप और दृष्टिकोण पर केंद्रित विशेष प्रस्तुति…
नीलोत्पल मृणाल, लेखक
समय के साथ बदल रहे हिंदी साहित्य के पुरे परिदृश्य को समग्रता में देखने की जरूरत है. जब हम 21वीं सदी के भारत में हिंदी साहित्य लेखन पर बात करेंगे तो उसके विमर्श में इंटरनेट का प्रभाव, ग्लोबल होती दुनिया के कारण भिन्न-भिन्न भाषाओं के हिंदी भाषा पर पड़े प्रभाव, भाषाई शब्दकोश में जुड़ते नये शब्द भंडार, कविता और कहानी लेखन के नये विषय,लेखन की बदलती शैली इत्यादि पर पूर्वाग्रह से मुक्त हो बड़ी उदारता और निष्पक्षता से बात करनी होगी.
जब हम बड़ी सहजता से इस इंटरनेट दौर के लेखन को कूड़ा-करकट बता उसे हल्का और सतही लेखन करार दे अपना साहित्यिक दायित्व निभा दे रहे हैं, तो असल में हम उसका बिना मूल्यांकन किये खारिज करने की हड़बड़ी में हैं, जिस कारण नयी-पुरानी पीढ़ी के बीच एक रचनात्मक संवाद के पुल का बनना बाधित होता है, जिसके रास्ते नयी पीढ़ी के पास पुरानी पीढ़ी का अनुभव और कौशल आता और पुरानी पीढ़ी के पास देखन-कहन की एक नयी दृष्टि जाती है.
यद्यपि हिंदी साहित्य में एक दूसरी पीढ़ी को नकारने लताड़ने का यह खारिजवाद हर काल में रहा है और इसके बावजूद अच्छे लेखन ने नये पुराने के छाप से इतर अपनी जगह हमेशा बनायी है. टिकाऊ और भरभरा तो हर दौर में लिखा गया. पाठकरूपी राजहंस इस ढेर में से जरूरत के मोती चुन ही लेता है और कूड़ा छोड़ देता है.
आज के दौर में एक सबसे अच्छी बात यह है कि इंटरनेट ने लेखन के प्रसार को लोकतांत्रिक बना दिया है. इसने हिंदी साहित्य के पठन पाठन के दायरे का निःसंदेह विस्तार किया है. चूंकि सोशल मीडिया पर कोई भी लिख पा रहा है, तो इसने न केवल लिखने की प्रवृत्ति को हवा दी है, बल्कि इससे पढ़ने की भी जिज्ञासा जागृत हुई है. हिंदी साहित्य के नयेदौर के युवा लेखकों ने इसी इंटरनेटिया पटल से शुरुआत कर आज पाठकों के अध्ययन टेबल पर किताबी पहुंच बनायी है.
वर्तमान हिंदी साहित्य को कई लेखक यहीं मिले और हजारों हजार पाठक भी यहीं से मिल रहे. जब हिंदी साहित्य में हजार से पांच हजार किताबों की बिक्री का आंकड़ा जादुई लगता था, वहां इन्हीं सब माध्यमों के कारण कई नयी किताबों ने पच्चीस से तीस हजार का आंकड़ा छू लेने का करिश्मा आसानी से कर दिखाया है, जो आगे और बढ़ने की उम्मीद है.
गंभीर पीठ पर ट्रेडमार्क खुदवाये जो साहित्यकार अक्सर लेखकाें की बढ़ती संख्या से चिंतित रहते हैं, उन्हें ये समझना चाहिए कि साहित्य में किसी भी व्यक्ति में लेखक बन जाने का होनेवाला भरोसा ही पाठक और पठनीयता को बढ़ा भी रहा है. सोशल मीडिया ने जब यह भ्रम तोड़ा कि लेखक किसी दूसरे ग्रह का करामाती प्राणी नहीं होता है और न किसी मठाधीश के दिये वरदान का चमत्कार होता है, तो आम आदमी का भी पहले पढ़ने और फिर लिखने की तरफ रुझान बढ़ा है. साहित्य को अपना कीमती साहित्यकार इसी रास्ते मिलना है.
अच्छे लेखक का प्रमाणपत्र अब किसी होलमार्की संस्थान या साहित्यकार से नही, आम पाठक की अदालत से मिलने लगा है. बेस्ट सेलर और स्टार अथवा लोकप्रिय लेखक जैसे शब्द को सुनते ही कुर्ता फाड़ सस्वर रोदन कर सारी नयी रचना धोकर बहा देने वाले गंभीर कालजयी चिंतक साहित्यिक वर्ग को सोचना चाहिए कि हिंदी भी बदलते समय के मानक को पकड़ने में सफल होने की दिशा में प्रयत्नशील है.
साहित्य के प्रसार का जब सबसे ताकतवर और प्रभावी माध्यम ही बाजार है, तो इससे परहेज को बेवजह अच्छे साहित्य की कसौटी मान लेना एक गैरजरूरी प्रलाप है. इस विमर्श के बीच हमे बड़े सावधानी से, बाजार में होने और बाजारू होने के बीच के अंतर को समझने की जरूरत है.
बाजार में उत्साहजनक उपस्थिति ने और अमेजॉन से ले फ्लिपकार्ट के रथ पर चढ़ हिंदी की किताबों ने पाठक तक पहुंच का दायरा बढ़ाया है. हालांकि, अब भी भारत में हिंदी पठन-पाठन की संख्या को बहुत संतोषजनक नहीं माना जा सकता. अंग्रेजी साहित्य के मुकाबले ये अभी भी बहुत दूर है. और इसी कारण शायद अभी भी हिंदी में व्यावसायिक लेखन का ठोस दौर आना बाकी है, जहां युवा बतौर पेशा हिंदी साहित्य लेखन को अपना सकें.
थोड़ा बहुत फिल्मी लेखन के क्षेत्र में एक व्यावसायिक ठौर दिखता है. लेकिन फिर खालिस साहित्य लेखन का क्या होगा? उसको प्रेरित करने के लिए क्या उसमें एक सुरक्षित आर्थिक भविष्य नहीं जोड़ना होगा? किसी भी न केवल साहित्य लेखन बल्कि भाषा को भी कालसंजीवी होने के लिए उसका पेट और जीविका से जुड़ना बेहद जरूरी होता है.
भारत में संस्कृत से लेकर अरबी, फारसी और उर्दू तक का इतिहास यही बताता है कि जैसे ही भाषा का राजकीय संरक्षण खत्म हुआ और वह पेट से कटी और कमजोर हो गयी. अंग्रेजी अपने बाजार पर राज के कारण ही तो हमारी भी जरूरत बनी, अंग्रेजों ने तलवार रख थोड़े इसे दुनिया पर थोपा. हिंदी भाषा और लेखन जब तक वाह-वाह और फूल-माला-सफेद चादर से उठ धनोपार्जन के माध्यम तक नहीं आयेगा, तब तक आप और हम कब तक इसे महज संस्कृति और परंपरा के नाम पर संरक्षित कर पायेंगे?
भाषागत समृद्धि और लेखनीय गुणवत्ता के साथ साथ कैसे हम हिंदी का एक शक्तिशाली बाजार गढ़ पाएं और उसका एक सुरक्षित आर्थिक पक्ष स्थापित कर पायें, इसकी पड़ताल बेहद जरूरी है. और यही चीज आनेवाले दिनों में हिंदी को शक्तिशाली और समृद्ध भविष्य देगी.
वर्ना याद रहे, हमने अपने महान पूर्वजों- प्रेमचंद से निराला तक की कालजयी रचनाओं को भी चाहे कलेजा निकाल कर सम्मान दे दिया हो, पर उन्हें घी लगी हुई दो-चार रोटी नहीं दी. लेकिन, अब यह नहीं चलेगा. नैतिकता और महानता के छूरे से किसी की भूख का कत्ल नहीं होता. याद रहे, भूख तो रोटी खाकर ही मरती है.
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