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हिंदी कैसे बनेगी देश-भाषा ?

हनुमानप्रसाद शुक्ल हिंदी भारत वर्ष की भाषा है, भारत गणराज्य की राजभाषा भी है, इसमें शक की गुंजाइश नहीं ही है पर भारत गणराज्य के हिंदी एवं हिंदीतर भाषी तथा हिंदी भक्त ‘हम लोग’ स्वयं से यह सवाल पूछें कि आख़िर क्या हिंदी हमारी देश-भाषा हो सकी है, तो काफ़ी कड़वाहट महसूस होगी. कुछ आंदोलन-धर्मी […]

हनुमानप्रसाद शुक्ल

हिंदी भारत वर्ष की भाषा है, भारत गणराज्य की राजभाषा भी है, इसमें शक की गुंजाइश नहीं ही है पर भारत गणराज्य के हिंदी एवं हिंदीतर भाषी तथा हिंदी भक्त ‘हम लोग’ स्वयं से यह सवाल पूछें कि आख़िर क्या हिंदी हमारी देश-भाषा हो सकी है, तो काफ़ी कड़वाहट महसूस होगी. कुछ आंदोलन-धर्मी भक्त क़िस्म के लोग तिलमिला भी सकते हैं. देश-भाषा अर्थात् वह भाषा जिसे पूरे देश ने अपनत्व और गौरवबोध के साथ अंगीकृत किया हो, जिसमें सुख-दुःख और संवेदना का साझा होता हो, जिसमें ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, मनोरंजन, व्यापार, शिक्षा और सोच-विचार का काम होता हो और यह सब समूचा देश पूरे उत्साह एवं उल्लास से संपन्न करता हो.

सचमुच क्या यह सब हिंदी में होता है? राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हमारे पूर्वजों-अग्रजों ने हिंदी में यह सब करने का हौसला संजोया था तो क्या वह केवल खामखयाली भर था या वे देश की स्थिति और ज़रूरतों से बेख़बर थे? क्या आज़ादी के बाद भारत गणराज्य के संविधान निर्माताओं ने हिंदी को ‘राजभाषा’ का गौरव देते हुए अनुच्छेद 351 में उसे देश-भाषा के रूप में विकसित करने का उपक्रम सिर्फ़ तफ़रीह के लिए किया था, क्या उनकी दृष्टि हमसे अधिक धुँधली और मलिन थी और क्या उन्होंने स्वाधीन देश का सपना ‘देश-भाषा’ के सपने के बिना देखा था?

संविधान की शपथ लेकर राष्ट्र के निर्माण का दंभ भरने वाले स्वाधीन भारत गणराज्य के हम लोगों ने क्या अपनी ‘संविधान-निष्ठा’ सिद्ध की है या अपने पूर्वज-अग्रज स्वाधीनता सेनानियों द्वारा अपनी अगली पीढ़ियों पर किये गये भरोसे को हमने नहीं तोड़ा है? क्या हम लोगों ने एक गैरतमंद क़ौम का परिचय दिया है? क्या हमने स्वाधीनता की अर्हता बनाये रखी है?

हिंदी की दुरवस्था का उत्तरदायित्व किन पर है? क्या उन मुट्ठी-भर अंग्रेज़ों पर, जिन्होंने हम ‘बेचारों’ पर अपनी भाषा थोप दी और हम भारतीयों के बीच मतभेद एवं मनभेद का ज़हर तो फैला गये,पर इसका उपचार करने की औषधि देकर ही नहीं गये तो फिर हम अब क्या करें! यदि अंग्रेज़ों का नहीं तो ज़रूर उन लोगों का उत्तरदायित्व होगा, जो हिंदीतर भाषी हैं! वे इतने मगरूर लोग हैं कि हिंदी को मन से अपनाते ही नहीं! हिंदीभाषियों जैसी लापरवाह, बहानेबाज और बेगैरत क़ौम दुनिया में ढूँढने पर शायद ही मिले! हिंदी की इस दुरवस्था का ज़िम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदीभाषी समुदाय है या फिर वे हिंदी भक्त, जो करते-धरते तो कुछ नहीं, सिर्फ़ भजन गाते रहते हैं; हिंदी की ठगी और पंडागीरी करने वाले भी इसमें शामिल हैं. हिंदी को ओज-तेज और गौरव से संपन्न करना इन सबके बूते का नहीं.

हिंदी देश-भाषा बन सके, आख़िर इसके लिए हम लोगों ने किया क्या है? क्यों नहीं; पुरस्कार-सम्मान का इंतज़ाम किया है, नियम-क़ायदे एवं संस्थाएं बनायी हैं और विश्वविद्यालय खोल दिये हैं! आख़िर और क्या करना था? धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत के साझे और एक देश भर हो जाने से कोई भाषा देश भर की भाषा नहीं हो जाती. क्या हमने शिक्षा की भाषा के रूप में हिंदी को समर्थ बनाया,क्या उसमें ज्ञान के सृजन एवं अभिव्यक्ति की क्षमता लाने का कोई सफल उद्यम हुआ और क्या संसार की किसी भी भाषा में विद्यमान अद्यतन ज्ञान के हिंदी में संधारित कर सकने, या अनुवाद का ही, हौसला एवं पुरुषार्थ प्रदर्शित किया?

दुनिया के जो देश ‘एक देश-एक भाषा’ की हसरत रखते हैं, वे इसके लिए विकट पुरुषार्थ संभव करते हैं; हमने नहीं किया है. हम हौसले के नहीं, टालूपन और मनसुखियापन के उस्ताद हैं. दुनिया कमज़ोर, दरिद्र और दयनीय लोगों के साथ नहीं खड़ी होती, अधिक-से-अधिक सहानुभूति दे सकती है. देश और भाषाएं दया और सहानुभूति के बल पर खड़ी होती नहीं देखी गयी हैं.

स्‍वयं हिंदीभाषी ज्ञान-साधना के लिए जब अपनी भाषा पर निर्भर नहीं रह सकते तो कोई हिंदीतर भाषी ऐसा कैसे कर सकेगा? हम विधि, प्रबंध, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि की आपकी ज़रूरतें हिंदी में नहीं पूरी कर सकते, पर आप तमिल, मराठी या अंग्रेज़ी की जगह हिंदी अपना लें; लेकिन हम अपना काम अंग्रेज़ी से ही चलाएंगे.आपको राष्ट्रवादी होना है, हिंदी को अपनाना है; अवसरवाद सिर्फ़ हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.
ज्ञान-विज्ञान या किसी और क्षेत्र में हमने कभी ऐसी कोईकिताब सिरजी है कि पूरा देश या दुनिया के दूसरे देश उसे अपनी भाषा में हासिल करने के लिए आतुर हो जाएं? क्या कभी ऐसा हुआ है कि हिंदी की कोई किताब अपने प्रकाशन के एक वर्ष के भीतर देश-दुनिया की किसी भाषा में अनूदित हो गयीहो? केवल कहानी-उपन्यास से दुनिया नहीं चलती.

संसार की कोई भी देश-भाषा केवल साहित्य की भाषा नहीं है. हिंदी का जीवन की भाषा के रूप में समर्थ होना अभी बाक़ी है. किंतु इस स्थिति के लिए उत्तरदायी समूचा हिंदी समुदाय नहीं है. असली ज़िम्मेदार पढ़ा- लिखा या शिक्षित वर्ग ही है, जो शेष समुदाय के श्रम पर पलता है पर अपना कर्तव्य भूल जाता है. बृहत्तर हिंदी समाज का यह दोष अवश्य मानना होगा कि वह अपने शिक्षितों को जवाबदेह बनने के लिए क्यों बाध्य नहीं करता? यह शिक्षित वर्ग न केवल अपने समुदाय के प्रति बेपरवाह होता है, शेष देश के साथ भी वह ऐसा ही बरताव करता है.वह यह तो चाहता है कि हिंदीतर भाषी हिंदी कोदेश- भाषा के रूप में तो अपनायें, पर उसे एक भी हिंदीतर भारतीय भाषा सीखने का कष्ट न उठाना पड़े.

इस संदर्भ में हिंदीतर भाषियों की शिकायत को आप अनसुना कैसे कर सकते हैं. हिंदी और हिंदीतर भाषियों के रिश्ते मध्यकालीन सामंती या आधुनिक औपनिवेशिक क़िस्म के नहीं हो सकते. भला हो हिंदी सिनेमा और बाज़ार का, कि उसने हिंदी को अखिल भारतीय भाषा के रूप में उपयोज्य बना दिया है. शिक्षा, ज्ञान, सृजन और अंतर्प्रांतीय व्यवहार की भाषा के रूप में हिंदी को सहज स्वीकार्य बनाने के लिए भगीरथ-प्रयत्न कीज़रूरत है।हिंदी की भागीरथी के जीवन-भूमि पर अवतरण का पुरुषार्थ हिंदीभाषी शिक्षितों का ही है, उन्हें सचमुच भगीरथ जैसा तप और पुरुषार्थ करना होगा. क्या हम हिंदीभाषी शिक्षित आत्मालोचन करेंगे और अपना कर्तव्य समझकर अपने लक्ष्य के लिए समर्पित हो सकेंगे? नहीं?

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा संकाय के प्रोफेसर और डीन हैं)

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