मालदीव में बहाल हुआ लोकतंत्र, भारत को संबंधों में मजबूती की आस

मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद सोलिह की जीत हुई है. अब्दुल्ला यामीन को हराकर हासिल हुई इस जीत को मालदीव में लोकतंत्र की वापसी मानी जा रही है. सामरिक दृिष्ट से मालदीव भारत और चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण देश रहा है. एक समय बढ़िया रहे भारत-मालदीव संबंध आज खराब हैं और हालिया वर्षों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 27, 2018 8:19 AM
an image
मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद सोलिह की जीत हुई है. अब्दुल्ला यामीन को हराकर हासिल हुई इस जीत को मालदीव में लोकतंत्र की वापसी मानी जा रही है. सामरिक दृिष्ट से मालदीव भारत और चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण देश रहा है.
एक समय बढ़िया रहे भारत-मालदीव संबंध आज खराब हैं और हालिया वर्षों में चीन मालदीव का करीबी रहा है. चीन को पछाड़ने की चाहत लिए भारत सोलिह की जीत के साथ दोबारा मालदीव के साथ अपने संबंध मजबूत करना चाह रहा है और चुनाव परिणाम आने के बाद से ही बेहद उत्साहित है. भारत-मालदीव-चीन के त्रिकोण और राष्ट्रपति चुनाव परिणाम के निहितार्थों पर केंद्रित है आज का इन डेप्थ..
बहुआयामी हैं मालदीव के चुनावी नतीजे
अमित रंजन
सीिनयर फेलो,
सिंगापुर यूनिवर्सिटीज
मालदीव में हुए राष्ट्रपति चुनाव में मोहम्मद सोलिह ने 58.3 प्रतिशत के साथ जीत हासिल की है. चुनावी प्रक्रिया के दरम्यान कई अवांछित सियासी घटनाएं हुईं, जिनकी वजह से इन चुनावों के स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होने पर ही संदेह के बादल घिर गये थे. यूरोपीय यूनियन ने अपने चुनाव प्रेक्षक वहां भेजने से इंकार कर दिया था, क्योंकि उसने यह पाया कि मालदीव इन चुनावों की मॉनिटरिंग की बुनियादी शर्तें पूरी नहीं करता.
अमेरिका ने भी यह धमकी दी थी कि यदि ये चुनाव स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न हुए, तो वह मालदीवी अधिकारियों को प्रतिबंधित कर देगा. चुनावों के ठीक पहले सोलिह के चुनावी अभियान मुख्यालय पर पुलिस का छापा पड़ा. फिर भी इतना हुआ कि ये चुनाव निष्पक्ष ढंग से संपन्न हुए, वरना यह परिणाम लगभग असंभव ही था.
सोलिह की विजय के बाद भी उनके लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा. उन्हें अपनी ही पार्टी के सदस्य, एक नेता और पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद से ही मुख्य चुनौती मिलने जा रही है. दरअसल एमडीपी तथा अन्य विपक्षी पार्टियों द्वारा इस पद के लिए सोलिह को मनोनीत किये जाने की वजह स्वयं यामीन सरकार द्वारा पारित कराये गये निर्वाचन (आम) अधिनियम एवं राष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम थे.
ये संशोधित अधिनियम राष्ट्रपति पद हेतु वैसे मालदीवी नागरिकों की उम्मीदवारी को 10 वर्षों के लिए प्रतिबंधित करते हैं, जिन्होंने समुद्रपारीय देशों में शरण मांगी हो अथवा दोहरी नागरिकता का परित्याग कर दिया हो. परिणामस्वरूप मुहम्मद नशीद को अपनी उम्मीदवारी छोड़नी पड़ी तथा पार्टी द्वारा सोलिह का चयन किया गया. आगे आनेवाले दिनों में नशीद तथा सोलिह के बीच सियासी संबंधों पर गौर करना दिलचस्प होगा.
एमडीपी, अधालथ पार्टी, जम्हूरी पार्टी एवं मॉमून सुधार आंदोलन से निर्मित संयुक्त विपक्ष यामीन की अक्खड़ता के विरोध को छोड़कर कई मुख्य मुद्दों पर सहमत नहीं है.
एमडीपी का चुनावी घोषणा पत्र यह कहता है कि सत्ता में आने पर वह ‘पहले एक अंतरिम गठबंधन सरकार बनायेगी और 18 माह बाद राष्ट्रपति पद के लिए एक नया चुनाव करायेगी, जिसमें उन सभी नेताओं को उम्मीदवार होने की अनुमति होगी, जिन पर आज प्रतिबंध लगा है.’ वह वर्तमान राष्ट्रपति प्रणाली को परिवर्तित कर उसकी जगह संसदीय प्रणाली स्थापित करने की मांग भी करती है. दूसरी ओर, जम्हूरी पार्टी का घोषणा पत्र यह कहता है कि वर्तमान राष्ट्रपति प्रणाली ही जारी रखी जायेगी. वह एमडीपी के इस प्रस्ताव का भी विरोध करता है कि मालदीवी अदालतों में विदेशी न्यायाधीश नियुक्त किये जाएं. मगर संयुक्त विपक्ष का 17 सितंबर को जारी घोषणा पत्र संविधान में इस आशय के एक संशोधन का जिक्र करता है जिसके अंतर्गत देश की शासन प्रणाली की समीक्षा की जायेगी.
संयुक्त विपक्षी दल सिद्धांत रूप में विविध राजनीतिक आदर्शों पर यकीन करता है. एमडीपी खुद को उदारवादी एवं धर्मनिरपेक्ष समूह के रूप में पेश करती है, पर अन्य लोगों का विश्वास है कि वह ‘पश्चिम प्रभावित’ पार्टी है.
अधालथ पार्टी इस्लामी रूढ़िवादी है. मॉमून सुधार आंदोलन मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल गयूम द्वारा स्थापित पार्टी है, जो यामीन सरकार द्वारा उन पर सियासी हमले के बाद ही यामीन के खिलाफ गये. जम्हूरी पार्टी का संचालन कासिम इब्राहिम नामक एक कारोबारी करते हैं और उनकी सियासी भंगिमा उनके कारोबारी हितों के अनुरूप परिवर्तित होती रहती है.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने सोलिह की जीत पर मालदीव में लोकतांत्रिक शक्तियों की विजय का स्वागत किया है और नयी सरकार के साथ मिलकर दोनों देशों के संबंध और प्रगाढ़ करने के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की है.
मगर मालदीव में अपनी अहम आर्थिक उपस्थिति और यामीन के शासन काल में खासा सियासी प्रभाव रखने के बावजूद चीन ने वहां के चुनाव परिणामों पर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है. मालदीव में चीनी कंपनियां बुनियादी संरचनाओं की कई परियोजनाओं में लगी हैं. चीन-मालदीव मैत्री सेतु एक ऐसी ही परियोजना है. इस सेतु की वास्तविक लागत 25.37 करोड़ डॉलर है, जिसका 57.5 प्रतिशत चीनी सरकार से अनुदान के तौर पर मिला है, जबकि लागत का अन्य 36.1 प्रतिशत मालदीव को चीन सरकार से तरजीही कर्ज के तौर पर मिला है. बाकी 6.4 प्रतिशत मालदीव द्वारा स्वयं वहन करना है.
अतीत के अपने सियासी व्यवहारों की वजह से ऐसा यकीन किया जाता है कि मालदीव के अधिकतर नेता अपने व्यक्तिगत हितों से ही निर्देशित होते हैं. संयुक्त विपक्ष के ज्यादातर सदस्यों का अपना जाती सियासी एजेंडा है. ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि सोलिह उन्हें किस तरह संभाल पाते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
िदल्ली और माले का रिश्ता पुराना
1965 में ब्रिटिश शासन से आजाद होने के बाद मालदीव को मान्यता देनेवाला भारत पहला देश था. मालदीव के स्वतंत्र देश बनने के समय से ही भारत के साथ इसके नजदीकी रिश्ते विकसित हुए जिनमें रणनीतिक, सैन्य, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्ते शामिल रहे हैं.
1976 में दोनों देशों द्वारा आपसी सहमति से आधिकारिक तौर पर समुद्री सीमा निर्धारित की गयी. इतना ही नहीं, 1981 में दोनों देशों ने व्यापक व्यापार समझौता पर हस्ताक्षर किया. इस तरह भारत और मालदीव के बीच द्विपक्षीय संबंध मजबूत होते गये. नवंबर 1988 में पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन ऑफ तमिल इलम ने कुछ सहयोगियों के साथ मालदीव में घुसपैठ कर सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश की. उस वक्त भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मालदीव सरकार की मदद के लिए 12 घंटे के भीतर 1,600 सैन्य बलों का एक दल वहां भेजा था और ऑपरेशन कैक्टस नामक अभियान चलाया था.
इसकी सफलता के बाद भारत ने बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद दी और यहां की आधारभूत संरचना, स्वास्थ्य, नागरिक उड्डयन, दूरसंचार और श्रम संसाधनों के विकास के लिए द्विपक्षीय कार्यक्रमों में साझेदार बना. वर्ष 2009 से दोनों देशों के बीच प्रतिवर्ष सालाना संयुक्त सैन्य अभ्यास एक्यूवरिन आयोजित किया जाता है. हालांकि बीते कुछ वर्षों से मालदीव में चीन की बढ़ती दिलचस्पी और यहां चीन द्वारा उसके द्वारा किये गये बड़े पैमाने पर निवेश के कारण दोनों देशों के संबंधों में कड़वाहट घुलने लगी थी और 2015 में मोदी सरकार ने साझा सैन्य अभ्यास के लिए मना कर दिया था.
भारत को खुश होने की जरूरत नहीं
सालों से मालदीव और भारत के बीच काफी मजबूत संबंध रहे हैं और इस देश पर भारत का काफी प्रभाव भी रहा है. वहीं इस देश में चीन की दिलचस्पी हाल के वर्षों में बढ़ी है. हिंद महासागर में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चीन वैश्विक व्यापार और आधारभूत संरचना के निर्माण के जरिये मालदीव में भी तेजी से अपने पांव पसार रहा है. यह देश समुद्री जहाजों का महत्वपूर्ण मार्ग है. ऐसे में भारत और चीन दोनों की नौसैनिक रणनीति के लिए यह देश महत्वपूर्ण है. दूसरे, चीन अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट वन रोड के एक अहम मार्ग के तौर पर मालदीव को देख रहा है.
अब्दुल्ला यामीन की सरकार ने भी भारत की जगह चीन को ज्यादा तरजीह दी थी और भारत की कई परियोजनाओं को रद्द कर दिया है. इतना ही नहीं, इस साल भारत द्वारा मिलान में आठ दिवसीय सैन्य अभ्यास में शामिल होने के आमंत्रण को भी मालदीव ने अस्वीकार कर दिया था. इसके बाद, मालदीव में वैध रूप से काम कर रहे भारतीयों के वीजा नवीनीकरण से भी यामीन सरकार ने इंकार कर दिया था. ऐसे में भारत के लिए चीन की जगह लेना बहुत मुश्किल होगा. चीन ने मालदीव में 70 फीसदी से ज्यादा निवेश किया है और आज मालदीव पर जितना अंतरराष्ट्रीय कर्ज है, उसका 80 फीसदी चीन का ही है. रॉयटर्स ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मालदीव पर एक अनुमान के मुताबिक चीन का 1.3 अरब डॉलर का कर्ज है.
मोहम्मद सोलिह ने हासिल की अप्रत्याशित जीत
भारी उथल-पुथल के बीच मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आ गये हैं. इन परिणामों में विपक्ष के उम्मीदवार इब्राहीम मोहम्मद सोलिह ने जीत हासिल की है और वे मालदीव के सातवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगे. सोलिह ने विवादास्पद निवर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन को हराकर यह जीत हासिल की है. चुनावों के पहले उम्मीदवारों के प्रचार अभियान के दौरान पर्यवेक्षकों ने यहां तक आरोप लगाया था कि अब्दुल्ला यामीन जीत हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और चुनावों में गड़बड़ियां कर सकते हैं.
अब चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद से सभी आश्चर्यचकित हैं, लोकतंत्र की जीत होने का जश्न मना रहे हैं. माना जा रहा है कि मोहम्मद सोलिह की जीत उनके समर्थन की वजह से नहीं हुई, अपितु अब्दुल्ला यामीन की मुखालिफत में चल रही हवा के कारण हुई है. मोहम्मद सोलिह की जीत की घोषणा होने के बाद पूरे मालदीव में जश्न मनाया जाने लगा और देश की सड़कें विपक्ष के समर्थकों से भर गयी थीं.
अब्दुल्ला यामीन ने अपने कार्यकाल के दौरान विरोधियों के दमन की नीति अपनायी थी और हर असहमत आवाज को दबाने का काम किया था. गौरतलब है कि यामीन के सामने विपक्ष के समर्थन प्राप्त सोलिह के अलावा कोई और बतौर उम्मीदवार नहीं खड़ा हुआ था. इसका साफ कारण यह था कि ज्यादातर लोगों को यामीन सरकार ने जेल में ठूंस दिया था या निर्वासित कर दिया था. अब्दुल्ला यामीन के कार्यकाल के समय राजनीतिक पार्टियों, अदालतों और मीडिया पर कार्रवाई की गयी.
इस दौरान, अब्दुल्ला यामीन के खिलाफ महाभियोग की कोशिश कर रहे सांसदों पर भी कार्रवाई की गयी. साल की शुरुआत में जब सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने का आदेश दिया था, तब यामीन सरकार ने चीफ जस्टिस को भी जेल में डाल दिया था और फरवरी महीने में 15 दिन के लिए आपातकाल भी लगा दिया था.
इस साल के फरवरी महीने में यामीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तक को जेल में कैद कर दिया गया था. चुनावों में जीत के बाद, मोहम्मद सोलिह ने सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की बात की है. चुनाव आयोग द्वारा घोषित परिणामों के अनुसार, राष्ट्रपति चुनाव में 88 फीसदी मतदान हुआ था.
मोहम्मद सोलिह को कुल 2,62,000 हजार वोटों में से 1,33,808 वोट मिले, वहीं अब्दुल्लाह यामीन को 95,526 वोट मिले हैं. भारत ने भी मालदीव में मोहम्मद सोलिह के राष्ट्रपति चुने जाने का स्वागत किया है. सोलिह को भारत समर्थक माना जाता रहा है, इसलिए भारत की कूटनीतिक नीतियों के लिए सोलिह का चुना जाना बेहतर माना जा रहा है. इससे पहले, यामीन सरकार के कार्यकाल में चीन के साथ मालदीव के करीबी संबंध बने हुए थे.
Exit mobile version