आलोचना का वर्तमान परिदृश्य
पल्लव संपादक, बनास जन आज आलोचना की जरूरत किसे है? साहित्य में सक्रिय नयी पीढ़ी को देखकर लगता है कि उसे तो आलोचना की कोई जरूरत ही नहीं है. फिर हमारा समाज? आजकल जिस तरह हमारे समाज और परिवार में आलोचना की जगह घटी है, उसी तरह साहित्य में आलोचना का स्थान पुस्तक प्रशंसा या […]
पल्लव
संपादक, बनास जन
आज आलोचना की जरूरत किसे है? साहित्य में सक्रिय नयी पीढ़ी को देखकर लगता है कि उसे तो आलोचना की कोई जरूरत ही नहीं है. फिर हमारा समाज? आजकल जिस तरह हमारे समाज और परिवार में आलोचना की जगह घटी है, उसी तरह साहित्य में आलोचना का स्थान पुस्तक प्रशंसा या लेखन तारीफ ने ले लिया है. इसके कारण अज्ञात नहीं हैं. फिर भी इस विषय पर बात करनी चाहिए.
इस संबंध में कुछ बातें हैं- मसलन, साहित्य का सृजन अब साहित्येतर कारणों से अधिक हो रहा है. साहित्य लेखन पर बाजार का असर देखा जा सकता है.
इंटरनेट और नये संचार माध्यमों ने साहित्य के प्रसार के साथ दूसरी और तीसरी श्रेणी की प्रतिभाओं को भरपूर बढ़ाया है. विचारधारा की बहसों की छीजती जगह से रचना विवेक को क्षति पहुंची है. ऐसे में भी यदि किसी को आलोचना लिखना जरूरी लगता है, तो उसका कारण यही हो सकता है कि आलोचक को इस परिदृश्य को सही-सही देखने समझने की जरूरत लगती है.
आलोचना है क्या? आलोचना का अर्थ है हमारे समय की रचनाशीलता की पहचान करना और उसे रेखांकित करना. उदाहरण के लिए, जो समझते हैं कि दोहा भक्तिकाल और रीतिकाल की विधा थी, उन्हें यह बताना आलोचना नहीं है कि फलाना जी ने इतने महत्वपूर्ण दोहे लिखे हैं या फलाना जी के दोहों की इतनी पुस्तकें आ चुकी हैं. मतलब यह कि क्या कोई विधा या रचनाशीलता अपने समय का सबसे उचित प्रतिनिधित्व करती है अथवा नहीं? यही आलोचना के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है.
याद कीजिए समांतर कहानी के सुनहरे दिन, सारिका के विशेषांक और सुंदर तस्वीरों वाले कहानीकारों को… कहां गये वो लोग? तब तो लगता था न कि भविष्य के प्रेमचंद, रांगेय राघव और यशपाल इन्हीं में से कोई है. तब कड़वी लगनेवाली बातें कह रही आलोचना ही आगे असल आलोचना बन पायी.
इस दृश्य में बहुत बदलाव अब भी नहीं है, इस बार आलोचना को साधने में ज्यादा मुश्किल नहीं है. प्रकाशन हैं, पत्रिकाएं हैं, पुरस्कार हैं, टीवी है और जाने क्या-क्या है.
अपने-अपने ब्लॉग और फेसबुक पेज भी हैं ही. वहां छद्म नाम से अपन ही अपने लेखन पर टिप्पणी भी कर सकते हैं. ऐसे में आलोचक की जरूरत किसे है? आलोचना होगी तो वह तारीफ ही नहीं करेगी, आईना भी सामने करेगी और तब रचनाशीलता को भी अपनी शक्ति और सीमा का सही सही आकलन करने का अवसर मिलेगा.
आलोचना और रचनाशीलता के द्वंद्व को समझने के लिए रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल की पुस्तक ‘मित्र संवाद’ पढ़नी चाहिए. पढ़िये कि अपने घनघोर मित्र को भी कैसे कमजोर रचना के लिए लताड़ा जा सकता है या कवि कैसे आलोचक को कहता है, सुनाता है.
आलोचना से प्रशंसा की अपेक्षा करनेवाले रचनाकार असल में सच्चाई से मुंह मोड़ लेना चाहते हैं. वे नहीं जानते की आलोचना सभ्यता समीक्षा है, जिसका काम बहुत मुश्किल है.
इधर बीच इन्सटेंट ग्रेटिफिकेशन की प्रवृत्ति साहित्य में खतरनाक ढंग से बढ़ी है, यानी आज रचना छपे, कल समीक्षा, परसों आलोचना, तरसों पुरस्कार और अगले दिन ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक पुस्तक में इस रचना का ढंग से वर्णन हो.
फेसबुक जैसे आभासी संसार में ऐसा संभव है और जब रचनाशीलता ऐसी अपेक्षा आलोचना से करने लगती है, तो नतीजे खतरनाक होते हैं. कुछ मासूम रचनाकार सोचते हैं कि भई मेरी तारीफ हो जायेगी, तो इससे आलोचना का क्या नुकसान हो जायेगा?
वे नहीं जानते कि सवाल नुकसान या फायदे का नहीं, बल्कि संस्कार और कायदे का है. आप एक कमजोर रचना को बढ़ावा देकर पूरी पीढ़ी को गलत संस्कार दे रहे होते हैं और उस रचनाकार को भी यह भ्रम देना खतरनाक है कि आप प्रेमचंद हैं या मुक्तिबोध. अज्ञेय ने कहा था कि अपनी पीढ़ी में दो-चार कहानीकार हो जाएं, तो भी बहुत समझिए.
बहुधा पुस्तक समीक्षा को आलोचना की शुरुआत माना जाता है. पुस्तक समीक्षा को घटिया दर्जे की आलोचना कहनेवाले भी हैं, लेकिन कौन लेखक है, जो अपनी पुस्तक की समीक्षा न चाहे? सही है कि बाजार अब पुस्तक के क्षेत्र में भी है. हर प्रकाशक चाहता है कि उसके द्वारा प्रकाशित पुस्तक की तारीफ हो, ताकि लोग उसे खरीदें-पढ़ें. अखबार, पत्रिकाएं और दूसरे माध्यमों पर पुस्तक समीक्षा भी आती है. इन सबसे मिलकर ही आज की पुस्तक समीक्षा के परिदृश्य को देखा जा सकता है.
और यह उतना निराशाजनक भी नहीं है कि हाय-तौबा मचायी जाये. जनसत्ता, सहारा और प्रभात खबर जैसे अखबार इसके महत्व को जानते हैं, तो इंडिया टुडे और आउटलुक जैसी साप्ताहिक व्यावसायिक पत्रिकाएं भी. साहित्यिक पत्रिकाओं और पत्रों का संसार तो है ही.
पुस्तक समीक्षा कभी-कभी आलोचना के ऊंचे दर्जे तक भी पहुंच जाती है, अन्यथा इधर के परिदृश्य में उसकी भूमिका पुस्तक पहचान की अधिक रही है.
मेरे जाने ढंग से किया जाये, तो यह भी जरूरी काम है. हिंदी में हर साल छपनेवाली सैंकड़ों साहित्यिक-गैरसाहित्यिक विषयों की सभी पुस्तकों को पढ़ पाना संभव नहीं है. इसलिए यदि पुस्तक समीक्षा से इतना काम भी हो पाता है तो बहुत उत्तम है.
यह माना जा सकता है कि इस लिहाज से पुस्तक समीक्षा का काम संतोषप्रद है ही, बस यह शिकायत की जा सकती है कि जिस परिमाण में पुस्तक प्रकाशन हो रहा है, उसे देखते हुए समीक्षा कहीं पीछे है. इसके लिए संस्थागत और व्यक्तिगत स्तरों पर कोशिश करनी चाहिए कि ‘पुस्तक वार्ता’ और ‘समीक्षा’ जैसी कुछ पत्रिकाओं की जगह ज्यादा पत्रिकाएं हों और वे अंग्रेजी ‘बुक रिव्यू’ और ‘बिबिलियो’ की तरह पाक्षिक-मासिक भी हों.
भूमंडलीकरण के इस नये दौर के नये-नये ढंग के शोषण और लूट को समझने में आलोचना पुस्तकों ने बहुत ही कायदे का काम किया है. साहित्य कोई समाजशास्त्र नहीं है, जो सीधे-सीधे किसी तथ्य को बताये. साहित्य-आलोचना साहित्य के साथ-साथ साहित्य की जरूरत और सही साहित्य की पहचान की स्थापना भी करती है.