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सात श्लोकों में सप्तशती का संपूर्ण सार, मां दुर्गा का शाब्दिक शरीर है ‘दुर्गासप्तशती’

मार्कण्डेय शारदेय (ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ) markandeyshardey@ gmail.com श्री दुर्गासप्तशती शाक्त परंपरा का सर्वोपरि एवं रहस्यमय ग्रंथ है. चूंकि इसमें देवी की दिव्यता, संहारकता, युद्ध-कौशल, दया, करुणा, ममता, मातृत्व आदि समस्त गुणों का सहज, सजीव वर्णन है, इसलिए यह भगवती दुर्गा के शाब्दिक शरीर के रूप में भी ख्यात है. यह इतना अलौकिक और अद्वितीय […]

मार्कण्डेय शारदेय
(ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
markandeyshardey@
gmail.com
श्री दुर्गासप्तशती शाक्त परंपरा का सर्वोपरि एवं रहस्यमय ग्रंथ है. चूंकि इसमें देवी की दिव्यता, संहारकता, युद्ध-कौशल, दया, करुणा, ममता, मातृत्व आदि समस्त गुणों का सहज, सजीव वर्णन है, इसलिए यह भगवती दुर्गा के शाब्दिक शरीर के रूप में भी ख्यात है.
यह इतना अलौकिक और अद्वितीय है कि तौल में तराजू के पलड़े पर दूसरा कोई स्तोत्र आ ही नहीं सकता-‘स्तवानामपि सर्वेषां तथा सप्तशती-स्तवः’। स्वयं शिव भी भगवती से कहते हैं कि हे सुमुखी पार्वती! इस स्तोत्र से बढ़कर पवित्र तथा भौतिक एवं पारलौकिक सुख देने में समर्थ और कोई स्तुतिग्रन्थ है ही नहीं –
‘नेतः परतरं स्तोत्रं किंचिदस्ति वरानने।
भुक्ति-मुक्तिप्रदं पुण्यं पावनानामपि पावनम्’।।
यह ‘सप्तशती’ ‘मार्कण्डेय पुराण’ का अंश है. उक्त पुराण के 81वें अध्याय से 94वें अध्याय तक में वर्णित देवी-माहात्म्य को विशिष्ट रूप देकर ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ नाम से प्रस्तुत है. ‘सप्तशती’ का अर्थ सात सौ श्लोकों का संग्रह, इसलिए यहां आधे श्लोकों और ‘उवाच’ मंत्रों की भी गणना कर सात सौ की संख्या पूरी गयी है. दूसरी ओर मूल स्थान (मार्कण्डेय पुराण) में कुल 591 श्लोक ही हैं. आधा एक और श्लोक भी है.
असल में शाक्त मत के अनेक तंत्रग्रंथ तो हैं ही, देवीभागवत, देवीपुराण, कालिका पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथ भी हैं. कई वैष्णव एवं शैव पुराणों में भी ‘सप्तशती’ के मधु-कैटभ, महिषासुर एवं शुम्भ-निशुम्भ के संहार से संबंधित आख्यान आये हैं, पर इसे जो उत्थान मिला, वह किसी और को नहीं.
इसका मुख्य कारण शायद क्रमिक रूप में एक से तेरह अध्यायों में एक ही जगह मिल जाना भी हो सकता है. इनमें आक्षरिक, ध्वन्यात्मक व पदात्मक कुछ विशिष्टता अवश्य है, जिससे यह रहस्यग्रंथ बना है. तभी तो शाक्त आचार्यों ने ही नहीं, वैष्णव और शैवों ने भी इसे भरपूर प्रतिष्ठा दी है.
सप्तशती का स्थान सर्वोपरि
शाक्त तंत्र सर्वाधिक हैं, पर उनमें भी सप्तशती का स्थान सर्वोपरि है. इसीलिए सबने इसका महिमागान किया है. स्पष्ट है कि जिसका प्रचलन अधिक बढ़ेगा, उसे प्रचार-प्रसार तो मिलेगा ही, जीवनी शक्ति भी मिलेगी.
इसीलिए यह अधिक विख्यात एवं प्रयोग-सिद्ध रहा. तांत्रिकों ने इसमें गूढ़ तत्वों का अन्वेषण पर अन्वेषण कर इसके कलेवर को भी नयापन दिया. इसीलिए केवल मार्कण्डेय पुराण वाले भाग को आत्मा मानकर भी अंगपाठ के बिना उतना महत्व नहीं दिया गया, बल्कि यह बता देना जरूरी है कि इससे दोष व पाप होता है.
इसीलिए सशक्त, सिद्ध एवं सर्वोपयोगी कवच, अर्गला, कीलक तथा रात्रिसूक्त जोड़कर सप्तशती का पूर्वांग बनाया तो देवीसूक्त एवं तीनों रहस्यों (प्राधानिक, वैकृतिक तथा मूर्ति) को जोड़कर उत्तरांग बनाया. हां, पूर्वापर अंगों की संख्या आठ होती है, पर दोनों सूक्तों (रात्रि एवं देवी सूक्त) को छोड़ देने पर षडंग होते हैं. दोनों विहित हैं.
आशय यह कि षडंग पाठ करना भी दोषमुक्त है. इस तरह मार्कण्डेय पुराण वाला भाग तो अंगी (आत्मा) रहा ही, पर इन संकलनों के बाद सप्तशती सशरीर तथा सजीव हो गयी. फिर क्या? फिर तो इसके प्रति तंत्रगंथों की मुखरता और-और बढ़ती ही गयी. इसकी महिमा गाते-गाते कोई थका ही नहीं.
12वें अध्याय में स्वयं मां ने दिया बाधाओं से मुक्त होने का आशीष
श्रीदुर्गासप्तशती के बारहवें अध्याय में तो भगवती ने स्वयं बताया है कि मधु-कैटभ का संहार, महिषासुर का नाश एवं शुंभ-निशुंभ के वध से संबंधित तीन चरित्रों वाली इस सप्तशती के पाठ से व्यक्ति दरिद्रता, शत्रुभय, चोरभय, आघात-भय, गृहबाधा, आधि-व्याधि, ग्रहदोष, महामारी आदि से मुक्त हो जाता है. पुनः युद्ध में पराक्रम की वृद्धि करनेवाला, निर्भय बनानेवाला, दुश्मनों के मार-भगाने में सहयोगी एवं दुःस्वप्न का नाशक भी है.
उन्होंने इसे परम स्वस्त्ययन (समस्त कल्याणों का केंद्र) कहकर इसके चिन्तामणित्व का सार ही व्यक्त कर दिया है. जगदम्बा का एक और विशेष कथन हमारे जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान के लिए अद्भुत वरदान के रूप में है. वह बताती हैं कि उनकी पूजा के साथ सप्तशती का पाठ हर तरह की बाधाओं को दूर करनेवाला एवं धन-धान्य, संतान प्रदान करनेवाला –
सर्वाबाधा-विनिर्मुक्तो धन-धान्य-सुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः।।
जब बाधाएं रहेंगी ही नहीं, जब धन-धान्य से संपन्नता रहेगी ही तथा जब कुलरक्षक सुयोग्य संतान होगी ही, तो जीवन को और चाहिए ही क्या? जो इतना पर भी संतोष न करे, वह तो लोभ में फंसता ही जायेगा न! उसे खुशी कहां मिलनेवाली है? उसे शांति कहां मिलनेवाली है?
खैर, हम जगदम्बा दुर्गा की लायक या नालायक जैसी भी संतान हों, वह कृपा बरसायेंगी ही. इसलिए उनकी पूजा और इस माहात्म्य का पाठ हमारे इहलोक और परलोक को धन्य करनेवाले हैं. अमृतमय पोषक तत्व हैं. इसीलिए नवरात्र में तो पूजन-कीर्तन सर्वाधिक मूल्यवान हैं ही, अन्य समय भी अष्टमी, नवमी व चतुर्दशी तिथियों में भी आराधन हर संकट को दूर करनेवाला है.
विष्णु, ब्रह्मा भी नहीं जान पाये इस ग्रंथ का पूरा रहस्य
श्रीदुर्गा-सप्तशती के प्रयोग अलौकिक अथवा साक्षात् कामधेनु भी माने गये हैं. चिंतकों ने इसमें छिपे बहुरत्नों का साक्षात्कार किया है, तभी तो ‘रुद्रयामल’ कहता है- ‘अतिगुह्यतमं देव्या माहात्म्यं सर्वसिद्धिदम्’, अर्थात् यह देवी का माहात्म्य अत्यंत गूढ़ एवं समस्त सिद्धियां प्रदान करनेवाला है.
जहां ‘भुवनेश्वरी संहिता’ में वेद की तरह इसे अपौरुषेय माना गया, वहीं ‘मेरुतन्त्र’ के अनुसार शिव कहते हैं कि सप्तशती के समग्र रहस्य का एकमात्र ज्ञाता मैं ही हूं. विष्णु इसके रहस्य का तीन हिस्सा, ब्रह्मा आधा और व्यासजी चौथाई भाग ही जानते हैं. अन्य लोग तो करोड़वें हिस्सा ही जान पाये हैं- ‘कोट्यंशम् इतरे जनाः’.
कैसे पाठ करना शास्त्र-सम्मत
नवरात्र में प्रायः नित्य एक आवृत्ति होकर कुल नौआवृत्ति पाठ होता है, परंतु समयाभाव होने पर नित्य एक चरित्र का पाठ भी शास्त्र-सम्मत है. ऐसे में नौ दिनों में तीन ही आवृत्ति हो पाती है.
पुनः यदि इतना भी समय न हो तो नौ दिनों में एक आवृत्ति भी बतायी गयी है. एकावृत्ति में प्रथम दिन पूर्वांग पाठ करना होता है. फिर द्वितीया से अष्टमी तक इन सात दिनों में क्रमशः 1. प्रथम अध्याय 2. द्वितीय-तृतीय अध्याय 3. चतुर्थ अध्याय 4.पंचम से अष्टम तक अध्याय 5. नवम-दशम अध्याय 6. एकादश अध्याय 7. द्वादश-त्रयोदश अध्याय तक का पाठक्रम है. नवमी को उत्तररांग पाठ के बाद एक संपूर्ण पाठ नौ दिनों में सहज रूप में हो जाता है.
108 पाठों से पूरी होगी इच्छा
वाराही तंत्र में सप्तशती की पाठावृत्ति की संख्या के अनुसार विशेष फल बताये गये हैं. उपसर्गों की शांति के लिए तीन आवृत्ति, ग्रहों की शांति के लिए पांच, संकटग्रस्त होने पर सात एवं सभी सुख-शांति के लिए नौ आवृत्ति पाठ करना उत्तम है.
अधिकारियों से तंग होने पर 11, कामनाओं की सिद्धि एवं शत्रुओं से बाधा के निवारण के लिए 12, शत्रुओं को वश में करने के लिए 14, विशेष सुख के लिए 15, राजभय के निवारण के लिए 17 व 18, ऋणमुक्ति के लिए 20 तथा मोक्ष के लिए 25 आवृत्ति पाठ उपयोगी है. 50 बार के पाठ से सिद्धियां प्राप्त होती हैं. 108 पाठों से मनोकामनाएं पूरी होती हैं. पुनः हजार बार के पाठ से तो व्यक्ति अचल लक्ष्मी का सुख भोगकर मुक्ति पा सकता है. हां, अंगहीन पाठ निषिद्ध है. कवच, अर्गला, कीलक (पूर्वांग) एवं तीनों रहस्य (उत्तरांग) से रहित सप्तशती पाठ व्यर्थ है. कहा गया है रावण ने अंगहीन पाठ किया, इसलिए राम के द्वारा मारे गये-
रावणाद्याः स्तोत्रमेतत् अंगहीनं सिषेविरे।
हता रामेण ते यस्मात् नांगहीनं पठेत् ततः।।
एक से तेरह अध्याय में त्रिगुणात्मिका दुर्गा का आख्यान
वस्तुतः दुर्गा-सप्तशती के तीन विभाग हैं. प्रथम विभाग वह है, जिसमें मधु-कैटभ नामक असुरों का संहार हुआ है. इसमें दुर्गा के महाकाली, रात्रि व निद्रा के चरित्र उद्घाटित हैं. इसी भगवती ने श्रीहरि को बेहोश कर रखा था और उधर ब्रह्माजी उन दोनों के अत्याचार से परेशान-परेशान थे. यह अंश सप्तशती के पहले अध्याय के रूप में है तथा देवी का प्रथम आख्यान यही है, इसलिए इसे प्रथम चरित्र भी कहते हैं.
द्वितीय विभाग में दूसरे अध्याय से लेकर चौथे अध्याय तक कुल चार अध्याय हैं. इसमें महिषासुर-संहार की कथा है. चूंकि यह बीच का अंश है, इसलिए इसे मध्यम चरित्र कहा गया है. इसकी देवता महिष-मर्दिनी महालक्ष्मी हैं.
तृतीय विभाग में पांच से तेरह तक कुल नौ अध्याय हैं. यहां शुम्भ-निशुम्भ नामक दो महाबलशाली असुर भाइयों का युद्ध में भगवती द्वारा संहार की गाथा है. इसकी देवता कौशिकी व महासरस्वती बतायी गयी हैं.
यों तो ग्यारहवें अध्याय में ही देवताओं द्वारा देवी की स्तुति के बाद यह चरित्र पूर्ण हो जाता है, पर बारहवें में फलस्तुति एवं पहले अध्याय से ही सुरथ राजा तथा समाधि वैश्य को लेकर चली संपूर्ण कथा तेरहवें अध्याय में उनके मनोरथ की सिद्धि के साथ ही विराम लेती है. इस तरह एक से तेरह अध्यायों में निबद्ध सप्तशती के प्रथम, मध्यम एवं उत्तर, ये तीन चरित्र महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती रूपा त्रिगुणात्मिका दुर्गा का पावन आख्यान है. इसी पाठ को दुर्गापाठ व चण्डीपाठ भी कहते हैं
नवरात्र में सामान्यत: संपूर्ण सप्तशती का पाठ होता ही है, कुछ लोग कामना-परक सम्पुटित पाठ भी करते हैं. यों तो यह ग्रंथ लघु कलेवर वाला होकर भी प्रयोगों का सागर है. ये प्रयोग कामना-सिद्धि के लिए जप, पाठ आदि के लिए हैं. दुर्गापाठ की नौ विधियां बतायी गयी हैं-महाविद्या, महातंत्री, चण्डी, सप्तशती, मृतसंजीवनी, महाचण्डी, रूपदीपिका, चतुष्षष्टि योगिनी एवं परा. इन सबकी पाठविधियों में अंतर है. उदाहरणार्थ क्रमशः प्रथम, मध्यम, उत्तर चरित्रों का पाठ महाविद्या है.
इसकी देवी जया हैं. उत्तर, मध्यम एवं प्रथम, इस क्रम के पाठ का नाम महातंत्री है और इसकी देवी विजया हैं. उत्तर, प्रथम तथा मध्यम-इस क्रम से पाठ मृतसंजीवनी है,जिसकी देवी सुमुखी हैं. ये भेद विशिष्ट तांत्रिक क्रियाओं से संबंधित हैं, इसलिए बिना योग्य गुरु के मार्ग-निर्देश के ऐसा कोई प्रयोग केवल पढ़कर करना श्रेयस्कर नहीं. सहज-से सहज विधि ही अपनानी चाहिए, ताकि बोझ न बने. कुछ नहीं तो सप्तश्लोकी दुर्गा का ही पाठ किया जा सकता है.
सात श्लोकों में सप्तशती का संपूर्ण सार
दुर्गा सप्तश्लोकी मां दुर्गा की प्रार्थना है. इन सात श्लोकों में सप्तशती का संपूर्ण सार समाहित होता है. दुर्गा सप्तश्लोकी नवरात्रि दुर्गा पूजा के दौरान सबसे महत्वपूर्ण पाठ माना गया है.
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥1॥
भावार्थ :
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं.
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ता ॥2॥
भावार्थ :
मां दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्धारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं. दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवी! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो.
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥3॥
भावार्थ :
नारायणी! आप सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हैं, आप ही कल्याणदायिनी शिवा हैं. आप सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी हैं. आपको नमस्कार है.
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥4॥
भावार्थ :
शरणागतों, दिनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी! आपको नमस्कार है.
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवी नमोऽस्तु ते ॥5॥
भावार्थ :
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से संपन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी! सब भयों से हमारी रक्षा कीजिए, आपको नमस्कार है.
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥6॥
भावार्थ :
देवी! आप प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं. जो लोग आपकी शरण में हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं, आपकी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं.
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ॥7॥
भावार्थ :
सर्वेश्वरि! आप तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करें और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहें.

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