कथक्कड़ी के पाठ सुख का महोत्सव है राग दरबारी
प्रकाश उदय महान उपन्यास राग दरबारी के पचास साल हिंदी के पास कुछ अलग तरह से, अलग तरह के उपन्यास हैं, ‘राग दरबारी’ उनमें से एक है, लेकिन यह उनसे भी कुछ अलग तरह से अलग तरह का उपन्यास है. कैसे, यहां यही कहने की, और इसके साथ ही, इसके अलावा कुछ नहीं कहने की […]
प्रकाश उदय
महान उपन्यास राग दरबारी के पचास साल
हिंदी के पास कुछ अलग तरह से, अलग तरह के उपन्यास हैं, ‘राग दरबारी’ उनमें से एक है, लेकिन यह उनसे भी कुछ अलग तरह से अलग तरह का उपन्यास है. कैसे, यहां यही कहने की, और इसके साथ ही, इसके अलावा कुछ नहीं कहने की एक कोशिश है.
राग दरबारी, बेशक, और वाजिब ही, सबसे बढ़ कर अपने अलग तरह के व्यंग्य-व्यवहार को लेकर चर्चा में रहता आया है. परसाई जी जैसे व्यंग्यकारों के बूते व्यंग्य की स्वतंत्र-सी पहचान वाली एक विधा कायम हुई. आचार्य शुक्ल, हमारे पहले व्यवस्थित आलोचक, अगर कायल हुए तो प्रबंध-प्रतिभा के, और राग दरबारी व्यंग्य की उसी कायल कर देने वाली प्रबंध-प्रतिभा का विस्फोट है. ‘विस्फोट’, जाहिर है कि यहां बतौर बड़ाई ही है, लेकिन कहिए कि उसकी घायल कर देने वाली खासियत को भूलकर, तो बिल्कुल नहीं.
राग दरबारी के कायल, अनगिनत हैं अगर, तो उससे घायल भी कम नहीं हैं, न वे कम घायल हैं. सच तो यह है कि उससे घायल लोग जितनी तरह से घायल हैं, उसके कायल लोग उतनी तरह से कायल नहीं हैं, न हो सकते हैं. अब इसी से समझ लीजिए कि इन घायलों में श्रीलाल शुक्ल स्वयं भी शामिल हैं.
उनके पहले के लिखे को, और बाद के लिखे को भी, उनके राग दरबारी की आंच नहीं लगी, कौन कह सकता है यह! और चाहे जो रचा हो, चाहे जितना महत्वपूर्ण, लेकिन जब से राग दरबारी वाले वे हुए, कुछ और वाले रह नहीं पाये, हो नहीं पाये, चाह कर भी, सच तो यह है ही. यह सच भी हमारे उन कथा नवीसों के बहुत काम का है जिन्हें इस बात का दिली अफसोस कि राग दरबारी उनसे नहीं हुआ. वे संतोष कर सकते हैं, इस सच के सहारे, कि जिससे हुआ, उससे भी दुबारा नहीं हुआ.
वैसे, कोई क्लासिक इसलिए तो क्लासिक होता ही है कि जो है, जैसा है, वैसा वही है, इसलिए भी होता है कि वैसा उसी का होना काफी है. इस राग दरबारी में, कहते हैं कि जो है, सो कहने का कमाल है. असल में जो अलग तरह से है, अलग तरह का है वह यही है, इसका कहना. इसकी कथा-भाषा.
इस छोटी-सी जिद के साथ जो बनी है कि भले कुछ विलंब हो जाये, लेकिन वाक्यों से भरसक पूरा कहलाना है. ‘रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें खिल गयीं.’
इस कथा-भाषा को इतने से काम चला लेना नामंजूर है, भले कुछ विलंब हो जाये, लेकिन उसे पूरा ही कहना है – ‘रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें, वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों, खिल गयीं’. ऐसे में, जो व्यंग्य बना है, जाहिर है कि वह गोपन का नहीं है, ‘ओपन’ का है, लुके-छिपे दावं का नहीं, खुल कर खेल लेने के चाव का है.
यही वजह है शायद कि इसमें व्यंग्य कहीं किसी पर ताने गये या तने हुए तीर की तरह नहीं है. वह जहां है वहीं था, वहीं का बाशिंदा, उसे वहां तैनात नहीं किया गया, तलाश लिया गया है. एक कथा है राग दरबारी की, भरपूर नाटकीय, लायक लोग लगें तो यहां से उठाकर सीधे मंच पर रख दें, लेकिन एक जो कथक्कड़ी है उसकी, वह तो डिगाये न डिगे.
नाटक को जैसे देखने का, कविता-कहानी को सुनने का, वैसे ही उपन्यास को पढ़ने का सुख ही उसका असल सुख, ओरिजनल सुख. और राग दरबारी, खास तौर पर उसकी कथक्कड़ी, इसी पाठ-सुख का महोत्सव है. इसका यही प्रमाण पर्याप्त है कि इस सुख को जिसने पाया, अपने ही तक नहीं रख पाया, जिसने इसे पहली बार पढ़ा, किसी और से भी जरूर पढ़वाया, और इस तरह, इधर उसने अपने सुख को पक्का किया, उधर राग दरबारी के संस्करण पर संस्करण आते गये.
मेरे पास जो प्रति है वह पेपरबैक्स में चौदहवें संस्करण की तीसरी आवृत्ति है, आपके पास हो सकता है और आगे की हो. सो, अपने पाठक से प्रचारक का अतिरिक्त काम लेने का अपराध तो इस उपन्यास के माथे है ही. हिंदी के पास कुछ जो कुछ अलग तरह से अलग तरह के उपन्यास हैं, राग दरबारी उनमें से, लेकिन उनसे अलग तरह से अलग तरह का एक उपन्यास है….
(लेखक बिहार के रहने वाले हैं और वाराणसी के श्री बलदेव पीजी कॉलेज में पढ़ाते हैं.)
पुस्तक रागदरबारी
लेखक श्रीलाल शुक्ल
प्रकाशक राग दरबारी प्रकाशन
मूल्य 299 रुपये