Advertisement
छठ-गीतों में छिपा है लोक-मर्म, रूढ़ियों के विरोध का मुखरित होता है स्वर
बिहार के लोक-पर्व छठ के अवसर पर गाये जानेवाले भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, वज्जिका आदि जन भाषाओं के गीतों में जीवन का सतत नाद गूंजता है. इस सतत नाद में जीवन का हर पक्ष मुखरित होता रहा है. संवेदनशील और धवल पक्ष के साथ-साथ जीवन के श्याम-पक्ष की अनगिनत छायाएं साथ-साथ चलती रही हैं. लोकगीत केवल […]
बिहार के लोक-पर्व छठ के अवसर पर गाये जानेवाले भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, वज्जिका आदि जन भाषाओं के गीतों में जीवन का सतत नाद गूंजता है. इस सतत नाद में जीवन का हर पक्ष मुखरित होता रहा है. संवेदनशील और धवल पक्ष के साथ-साथ जीवन के श्याम-पक्ष की अनगिनत छायाएं साथ-साथ चलती रही हैं.
लोकगीत केवल शब्दों का ताना-बाना नहीं होते. इनके शब्दों के अर्थ और अर्थ-भेद की खोज पर जब हम निकलते हैं, तो इनके भीतर छिपा जादुई संगीत हमें मिलता है. इस संगीत का जादू अपने बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से हमें एक विलक्षण सौंदर्य-दृष्टि देता है. यही सौंदर्य-दृष्टि हमारे कल्पना-लोक का निर्माण करती है. पर्व-त्योहार पर गाये जानेवाले गीतों और गीति-कथाओं की वाचिक परंपरा में लोक भाषाओं का यह जादुई संगीत हमें फिर-फिर रचता है. हमें एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में रचता-गढ़ता है. यह हमारी संस्कृति और इतिहास दोनों का संवाहक होता है. छठ गीतों में प्रकृति से मनुष्य के संबंध की विविधवर्णी छवियां अभिव्यक्त होती हैं-
रिमझिम बूंदवा बरसि गइल,
ओरियन मोती चूवे अब छठी होईं ना सहाय….
होत पराते पह फाटल, कोयली कुहुकि बोले
पूरूबि ही आदित उदित भइलें, चिरई चुरूंग बोले
जल बीचे ठाड़ बरतिया त अब छठी होईं ना सहाय.
रूढ़ियों के विरोध का मुखरित होता है स्वर
बिहार के लोक-पर्व छठ के अवसर पर गाये जानेवाले भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, वज्जिका आदि जन भाषाओं के गीतों में जीवन का सतत नाद गूंजता है. इस सतत नाद में जीवन का हर पक्ष मुखरित होता रहा है.
संवेदनशील और धवल पक्ष के साथ-साथ जीवन के श्याम-पक्ष की अनगिनत छायाएं साथ-साथ चलती रही हैं. स्त्रियों ने अपने दु:खों, संघर्षों, पुरुष-सत्ता के कुचक्रों, प्रकृति की लीलाओं, मानवीय करूणा आदि को स्वर देने के साथ-साथ अपने ही कंठ से अपने लिए रूढ़ियों को भी स्वर दिया है. समय-समय पर इन रूढ़ियों से मुक्ति के लिए स्वर भी मुखरित होते रहे हैं और इसके फलस्वरूप लोकगीतों के नये पाठ सामने आते रहे हैं. छठ के गीतों में बांझपन की पीड़ा और पुत्र-कामना जैसी रूढ़ि भी व्यापकता के साथ अभिव्यक्त होती रही है. यह पुत्र-कामना स्त्री की अपनी लालसा कम और पुरुष सत्ता की मार से उपजी पीड़ा का प्रतिफल ज्यादा है-
सबके डलियवा हो दीनानाथ लिहले मंगाय,
बांझ डलियवा हो दीनानाथ परले तमाय।
सासु मारे ठुनका हो दीनानाथ ननदिया मारे गाभि,
अनकर जनमल गोतिनिया हो दीनानाथ
बंझिनिया धइलस हो नाम||’
संतानहीन होने के दु:ख को रचते हुए स्त्रियों ने विलक्षण काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है. भाषा में लाघव से पैदा होनेवाले ऐसे तमाम गीत अपने मंत्र-प्रभाव के चलते मन पर दीर्घ प्रभाव छोड़ते हैं.
गंगा माई की ऊंची अररिया,
तेवईया एक रोवेली हो
गंगा माई अपनी लहर मोहे देतीं
त लहर बहि जइतीं नू हे
चुप होव, चुप होव तेवई,
पटोरे लोर पोंछि ल हो
किया तोर तेवई नईहर दुख,
किया रे सासुर दुख हो
किया तोरे कंता बिदेस गइलन,
कवन दुख रोवेलू हो…
हमारा समाज इन रूढ़ियों से आज भी जूझ रहा है. हालांकि बहुत कम ही सही पर, कुछ स्त्रियों ने बेटी की कामना को भी निर्भय होकर कुछ यूं गाया है-
रूनकी-झुनकी बेटी मांगिल,
पढ़ल पंडितवा दमाद हे छठी मइया
इस एक पद में बहुत कुछ शामिल है. बेटी तो चाहिए, पर उसका वर भी पढ़ा-लिखा यानी सुयोग्य हो. यह कामना बेटी को बोझ समझ किसी के भी पल्ले बांध देने की प्रवृत्ति के विरुद्ध एक ताकतवर आवाज बन कर उभरती है.
लोकथाओं के जरिये होती है जीवन के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति
किस्सागोई हमारे लोक-जीवन में अभिव्यक्ति का एक लोकप्रिय और बेहद कलात्मक माध्यम रहा है. छठ के गीतों में कथा-कथन की परंपरा भी रही है. गीतों में कथा को पिरोने का हुनर बिहार के ग्रामीण अंचल की स्त्रियां युगों से प्रदर्शित करती रही हैं. छठ गीतों में भी कई कथाओं के माध्यम से जीवन अभिव्यक्त हुआ है.
चनन ही काठ के रे नइया, चनन पतवारि लागे रे
ओहि नइया चढ़लन आदित देव, राति नगर भूले हे
सगरे नगरिया देव घूमि अइलन,
नगर के लोगवा त नींदियन मातल हे
एके घरे जागल परबइतिन, जाहि घरे छठी पूजन हे
जउरी भइलन सेवक बनि परबइतिन के,
भरिया बनि दउरिया ढोए हे
इस गीत का भाव यह है कि सूर्य रात में नगर घूमने निकलते हैं और खो जाते हैं. नगर के सारे लोग गहरी नींद में सो रहे हैं. केवल एक घर में, जिसमें छठ व्रत हो रहा है, एक व्रत करनेवाली स्त्री अकेली जाग रही है. सूर्य उसके सेवक बन कर फलों और प्रसाद से भरा दउरा ढोते हैं.
सूर्य का रात में निकलना और नगर में खो जाना एक विलक्षण काव्य- कल्पना है, जो हमारी लोकाभिव्यक्ति को पश्चिम के जादुई यथार्थ से आगे ले जाती है. लोक का यह काव्य-कौशल हमारी भाषाओं में छठ जैसे लोक- पर्वों के माध्यम से घटित होता है.
हमारी जीवन-पद्धति में लोकाचार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है. क्षेत्रीय और स्थानीय परंपराओं को हमेशा सम्मान और महत्व मिलता रहा है. वे जड़ भाव से या परिस्थितियों से आंखें मूंद कर जीवित रहने का हठ नहीं करतीं. लोकाचार ने या स्थानीय परंपराओं ने परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदला है, पर अपने को समाप्त नहीं होने दिया है.
छठ पर्व इसका सबसे सटीक उदाहरण है. इस अवसर के गीत-संगीत में हमारा लोक-मर्म छिपा हुआ है. यह लोक-मर्म ही लोक-विवेक रचता है और प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन जीने का हठ सौंपता है. इस हठ में एक ओर अपने श्रम के प्रति विश्वास शामिल होता है, तो दूसरी ओर प्रार्थनाएं भी शामिल होती हैं. ये प्रार्थनाएं हमें विनम्र बनाती हैं. हमारे अहं से हमें मुक्त करती हैं. छठ के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत –
केरवा जे फरेला घवद से,
ओहि पर सुगा मेंडराय,
मारबो रे सुगवा धनुख से,
सुगा गिरे मुरझाय
सुगनी जे रोवेली वियोग से
आदित होइना सहाय
इस गीत में करूणा और प्रार्थना की जो छवि उभरती है, वह बेहद मर्मस्पर्शी है. इस करूणा भरी पुकार और प्रार्थना के गर्भ में प्रकृति के उपादानों पर सबकी हिस्सेदारी के लिए विनम्र स्वर की एक अंत:सलिला धारा बह रही है. यह लोक का ही कौशल है कि वह ऐसे अनुष्ठानिक अवसरों पर भी कलात्मकता के साथ अपना स्वर मुखरित करता है. सांध्य-अर्घ के समय की यह पुकार –
बिलमू त बिलमू आदित देव,
छिन भर बिलमू नू हे
गोदिए गदेलवा कंता बिदेस बसे,
दउरा के भारे रहिया में बिलम भईल नू हे।
और फिर प्रात:अर्घ के समय का यह वर्णन अद्भुत चित्रात्मकता से भरा हुआ है –
काहे के नईया हो बरतिन काहे के केवाड़
काहे के बोझवा हो बरतिन अरघिया लेले हो ठाड़
सोनवा के नईया आदित देव रूपवे केवाड़
केरवे केबोझवा आदित देव अररिया लेले हो ठाड़
उगऽ उगऽ नन्हुआ सुरज देव भइल भिनसार.
बहुत व्यापक है भारतीय लोक की अवधारणा
हमारे लोकगीत सामुदायिक सहभागिता का श्रेष्ठ उदाहरण हैं. ये किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं और न ही इनमें किसी एक व्यक्ति का जीवन अभिव्यक्त होता है. सहभागिता की यह प्रवृत्ति ही लोक-पर्व छठ की विशिष्टता है.
समस्त सामाजिक वर्जनाओं की रूढ़ियों को तोड़ कर लोग एक-दूसरे के प्रति समभाव के साथ इसमें शामिल होते हैं. यह सहभागिता ही है, जो यह पर्व प्रदेश की सीमाओं का अतिक्रमण कर आज देश ही नहीं विदेशों में भी मनाया जा रहा है. भाषा के बंधनों को काटते हुए इस पर्व के अवसर पर गाये जानेवाले लोकगीतों की अनुगूंजें देश के हर भू-भाग में सुनने को मिलती हैं. इन लोकगीतों में निरंतरता है. अपने सामाजिक परिदृश्य के प्रति सजगता के साथ ये गीत हमारे लोक-जीवन के विकास का साक्ष्य भी बनते रहे हैं.
लोक-जीवन में केवल ग्राम्य-जीवन नहीं शामिल है, बल्कि नगर का भी अपना लोक होता है. भारतीय लोक की अवधारणा बहुत व्यापक है. छठ के गीतों ने शास्त्रीयता की परिधि को कभी स्वीकार नहीं किया और इस व्यापक लोक के लिए मानवीय संवेदना, करूणा, प्रकृति के प्रति आस्था और जिजीविषा का उत्साह बने रहना चाहिए.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement