समय की छन्नी में जो बच जायेगा वही साहित्य होगा हृषिकेश सुलभ
हृषिकेश सुलभ उन चुनिंदा साहित्यकारों में से हैं, जो आज की तेजी से बदली साहित्यिक दुनिया में एक पुल की तरह नजर आते हैं. उनका लेखन जितना साहित्य की शास्त्रीय मान्यताओं पर खरा उतरता है, उतना ही नयी फास्टफूड पीढ़ी को आकर्षित भी करता है. साथ ही उनकी एक पहचान नाटककार के रूप में भी […]
हृषिकेश सुलभ उन चुनिंदा साहित्यकारों में से हैं, जो आज की तेजी से बदली साहित्यिक दुनिया में एक पुल की तरह नजर आते हैं. उनका लेखन जितना साहित्य की शास्त्रीय मान्यताओं पर खरा उतरता है, उतना ही नयी फास्टफूड पीढ़ी को आकर्षित भी करता है. साथ ही उनकी एक पहचान नाटककार के रूप में भी है. तमाम उम्र शहरों में गुजारने के बावजूद गांवों में हो रहे बदलाव पर भी उनकी उतनी ही पैनी नजर है, जितनी पल-पल बदलते सोशल मीडिया के ट्रेंड्स पर. नये और पुराने लेखकों के बीच समान रूप से सक्रिय और प्रतिष्ठित हृषिकेश सुलभ से हमने इस बार कहानी, नाटक, गांव, सोशल मीडिया, नयी वाली हिंदी जैसे कई विषयों पर बातचीत की.
बातचीत- पुष्यमित्र
Qआप कथा लेखक के साथ-साथ नाटककार भी हैं. नाटक लिखने की शुरुआत कैसे हुई और आज के दौर में एक नाटककार के लिए हिंदी में कितनी गुंजाइश बची है?
मैं मूलतः कहानी लेखक ही हूं. हां, बचपन से नाटक से जुड़ाव रहा है. एक समय बिहार में ग्रामीण रंगमंच काफी सक्रिय हुआ करता था. खास कर पर्व त्योहार के मौसम में वहां नाटकों की परंपरा रही थी. उस दौर में हमारे गांव का ग्रामीण रंगमंच भी काफी सक्रिय था.
लोग लंबी छुट्टियां लेकर आते थे और महीने भर रहकर नाटक तैयार करते थे. वहां से जुड़ाव की वजह से हमारी बनावट में नाटक शामिल हो गया. फिर पटना आया, तो यहां भी नाटक से जुड़ गया, मगर मेरा मुख्य उद्देश्य नाटक लिखना था. 1984 में पहला नाटक लिखा ‘अमली’.
यह सच है कि कहानी और नाटक दोनों अलग विधाएं हैं, तकनीकी रूप से दोनों काफी अलग हैं. साहित्य में अलग तरह के मूल्यों की दरकार होती है, जबकि रंगमंच के अलग रंग-मूल्य होते हैं. जहां तक आज के दौर में नाटक लेखन का सवाल है, यह वाकई चिंताजनक है. हालांकि कभी किसी दौर में बहुत ज्यादा नाटक नहीं लिखे गये और इतनी मात्रा में नये नाटक उपलब्ध नहीं हो सकते कि हर निर्देशक को नया नाटक मिल जाये. वैसे, रंगमंच के पास यह हुनर है कि लोग कविता और कहानी को नाटक में बदल देते हैं. इसके बावजूद नाटक लिखे जा रहे हैं.
दरअसल, नाटक की दुनिया में निर्देशक का वर्चस्व है. लेखक को दूसरे दर्जे की नागरिकता भी रंगमंच ने नहीं दी है. इसलिए कोई लेखक नाटक लिखने के लिए सहजता से प्रेरित नहीं होता, वह कविता-कहानी लिखने लगता है. अगर नये और अच्छे नाटक आज नहीं आ रहे तो यह दोतरफा मामला है..
Qआप विष्णु प्रभाकर और आवारा मसीहा लिखने में की गयी उनकी मेहनत और शोधवृत्ति से काफी प्रभावित रहे हैं. आज के दौर में, जब फटाफट लेखन बहुत पॉपुलर हो रहा है, आप शोधपरक साहित्य की कितनी संभावना देखते हैं?
विष्णु प्रभाकर को 14 साल लग गये थे आवारा मसीहा लिखने में, जो बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र की सबसे रोचक और प्रामाणिक जीवनी है. यह समर्पण और निष्ठा का उदाहरण है. साहित्य के लिए सबकुछ होम कर देना है.
मेरे लिए यह बहुत विलक्षण बात थी. जहां तक आज लिखे जा रहे साहित्य का सवाल है, आप किसी को लिखने और छपने से रोक नहीं सकते. हां, छप जाने के बाद आलोचना कर सकते. आज सिर्फ साहित्य ही नहीं, हर क्षेत्र में जल्दबाजी है, हर कोई हड़बड़ी में है. वैसे कविता और कहानी के लिए गहन शोध से अधिक संवेदनशीलता जरूरी है. यह सच है कि नये लोग बहुत हड़बड़ी में हैं, इसके बावजूद कुछ लोग बढ़िया भी लिख रहे हैं..
Qआपने एक जगह लिखा है कि रेडियो की नौकरी आप नौकरी की तरह ही करते रहे, मगर सच यह भी है कि आप नौकरी के सिलसिले में जहां भी गये, वहां युवा नाटककारों की एक पीढ़ी भी तैयार हुई. इस संबंध में विस्तार से बताएं.
रेडियो और दूरदर्शन जैसे संस्थान प्रतिभाओं की कब्रगाह हैं. वहां क्रिएटिव लोग नष्ट हो जा रहे हैं. नौकरी करते हुए लिखना-पढ़ना और अपनी रचनाशीलता को बचाये रखना बहुत मुश्किल होता है.
जहां तक नौकरी वाले शहरों में मेरी सक्रियता का सवाल है, वह नौकरी का प्रभाव नहीं था. वह मेरी ललक और अपनी संवदेनशीलता थी. पूर्णिया में इसके बेहतर नतीजे आये. वहां के युवाओं में नाटकों के प्रति काफी ललक थी. बस्तर जैसे इलाकों में भी मैं काफी सक्रिय रहा, पर रांची में बहुत सक्रिय नहीं हो पाया. पूर्णिया सांस्कृतिक रूप से काफी उर्वर है, इसलिए भी वहां महत्वपूर्ण काम हो सका.
Qआपकी जीवन संगिनी मीनू जी आपकी एक सहृदय पाठिका रही हैं. यह सौभाग्य बहुत कम लेखकों को मिलता है कि उनकी रचनाओं के पाठक घर में हो. आपके साहित्य लेखन में उनका कितना योगदान है?
परिवार के लोग, आपके मित्र और परिजन आपके साहित्य लेखक के प्रति सहयोगी रुख रखते हैं, तो निश्चित तौर पर उनकी आपके जीवन में उत्प्रेरक की भूमिका होती है और इसका लाभ भी मिलता है.
Qआप पटना और अलग-अलग शहरों में रहते हुए भी ग्रामीण जीवन की बड़ी यथार्थपरक और विश्वसनीय कहानियां लिखते हैं, यह कैसे मुमकिन होता है?
13-14 साल की उम्र में मैं गांव से शहर आया. यहां से 135-140 किमी दूर है मेरा गांव. इसके बावजूद गांव से मेरा पर्यटकों वाला रिश्ता नहीं रहा. गांव से जुड़ाव हमेशा बना रहा. अब जब पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में बड़े बदलाव हुए हैं, तो भला गांव को लेकर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वहां बदलाव नहीं आया होगा? और, चूंकि मैं पर्यटक की दृष्टि से गांव को रेखांकित नहीं करता, इन बदलावों को समझता-जानता हूं, तो ये मेरी रचनाओं में भी आ जाते हैं.
Qइंटरनेट क्रांति और सोशल मीडिया ने साहित्य को काफी प्रभावित किया है. कई वरिष्ठ साहित्यकार एक झटके में खुद को हाशिये पर या अप्रासंगिक महसूस करने लगे हैं. आप सोशल मीडिया में भी सक्रिय रहे हैं, इस बदलाव को किस रूप में देखते हैं?
सोशल मीडिया एक नया प्लेटफाॅर्म है, जो पाठकों से आपको अधिक करीब ला देता है, वह आपके लेखन पर तत्क्षण प्रतिक्रिया करता है. इससे लेखकों के जीवन का तिलिस्म भी टूटा है. नयी पीढ़ी, खास तौर पर स्त्रियां काफी मुखर हुई हैं.
उनके जीवन में यह एक बड़े अवसर के रूप में आया है. वे संगठित कर खुद को अभिव्यक्त कर रही. अब जैसे पटना में महिला पुलिसकर्मियों के विद्रोह की घटना को ही देखिए, कितना तनाव, कितना टाॅर्चर झेला होगा इन पुलिसकर्मियों ने, तभी सड़कों पर आयीं. पता चला है कि वे व्हाट्सएप के जरिये एकजुट हुईं. हालांकि हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता, मगर सोचिए, उन लड़कियों ने क्या क्या नहीं झेला होगा?
जहां तक वरिष्ठ साहित्यकारों का सवाल है, ऐसा नहीं है कि वे अप्रासंगिक हो गये हैं. कई सीनियर लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं भी, जैसे रमेश उपाध्याय, गिरिराज किशोर, मनमोहन शरण, सौमित्र मोहन, गंगेश गुंजन और मैथिल के काफी बुजुर्ग कथाकार गोविंद झा जैसे लोग फेसबुक पर हैं.
Qक्या ‘नयी वाली हिंदी’ साहित्य का परिदृश्य बदल रही है? अगर हां, तो किस तरह, हिंदी साहित्य का आने वाला वक्त कैसा होगा?
नयी वाली हिंदी और पुरानी हिंदी इस विभाजन से मैं सहमत नहीं हो पाता. हिंदी या तो अच्छी हिंदी हो सकती है या बुरी हिंदी. हां, नये लेखक अपनी हिंदी को नयी हिंदी कह रहे हों, तो अलग बात है. वैसे, भाषा जड़ नहीं होती, वह लगातार खुद का परिमार्जन करती रहती है. जैसे-जैसे समाज बदलता है, भाषा आकर लेती रहती है.