विश्व के तीसरे सबसे बड़े उच्च शिक्षा तंत्र भारत को रोजगारपरक संस्थानों की दरकार
देश के लिए अच्छी खबर है कि वैश्विक विश्वविद्यालय रोजगार क्षमता रैंिकंग में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली और भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर ने शीर्ष 100 संस्थानों में जगह बनायी है. यह सफलता हमारे संस्थानों का मनोबल बढ़ाने वाली है. अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा तंत्र भारत में है. देश […]
देश के लिए अच्छी खबर है कि वैश्विक विश्वविद्यालय रोजगार क्षमता रैंिकंग में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली और भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर ने शीर्ष 100 संस्थानों में जगह बनायी है. यह सफलता हमारे संस्थानों का मनोबल बढ़ाने वाली है. अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा उच्च शिक्षा तंत्र भारत में है.
देश में 800 से ज्यादा विश्वविद्यालयों और 39 हजार से अधिक कॉलेजों की मौजूदगी के बावजूद उच्च शिक्षा पर गुणवत्ता से जुड़े सवाल खड़े होते रहते हैं तथा रोजगार का प्रश्न भी हमें चिढ़ाता रहता है. जरूरत है कि हम पहल शुरू करें और शिक्षा-प्रणाली में ऐसे बदलाव लाएं, जिससे हमारी सामाजिक और औद्योगिक महत्वाकांक्षाओं के बीच संतुलन कायम किया जा सके. इन बहसों के इर्द-गिर्द प्रस्तुत है आज का इन दिनों…
हरिवंश चतुर्वेदी
निदेशक, बिरला इंस्टीट्यूट
ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी
हमारे देश में आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान हैं, जो विश्व-स्तर पर ख्याति प्राप्त हैं. इनमें से दो-चार हर साल विश्व की किसी रैंकिंग का हिस्सा बनते ही हैं. जहां तक रोजगार से जुड़ी रैंकिंग की बात है, यह खुद आज इंडस्ट्री का रूप ले चुका है.
रोजगार का मुद्दा सीधा-सीधा इस बात जुड़ता है कि उद्योगों की जरूरतों को कोई संस्थान कहां तक पूरा कर पाते हैं. आदमी जब संस्थानों से पढ़कर निकलता है, तो वह सरकारी नौकरियों में जाता है या फिर विभिन्न उद्योगों का हिस्सा बनता है. या फिर उद्यमी बन जाते हैं और परियोजनाओं में लग जाते हैं.
सिलिकॉन वैली में आपको हजारों इंजीनियर मिल जाते हैं, जो आईआईटी जैसे संस्थानों से निकले हैं. मेरा मानना है कि रोजगार क्षमता समाज और इंडस्ट्री में शिक्षा की गुणवत्तापरक स्वीकार्यता से जुड़ी हुई है. इसलिए, जिस क्वालिटी को हमारे समाज और इंडस्ट्री की जरूरतें मान्यता देती हैं, वही रोजगार दे सकता है.
यहां यह ध्यान रखें जरूरी है कि समाज और इंडस्ट्री, दोनों की जरूरतें तेजी से बदलती रहती हैं. अगर आप समाज बदलना चाहते हैं तो आईएएस जैसी नौकरियों में जाते हैं. खोजी-प्रवृत्ति के हैं, तो साइंटिस्ट बनते हैं. ऐसी हजार समस्याएं हैं जिनका हल समाज-वैज्ञानिक या वैज्ञानिक करते हैं. भारतीय शिक्षा प्रणाली की बात करें तो यहां विश्वविद्यालयों-संस्थानों और इंडस्ट्री के बीच एक दूरी व संवादहीनता दिखायी देती है.
देश में सैंकड़ों संस्थान हैं, लेकिन आईआईटी या आईआईएम जैसे कुछ ही संस्थान हैं, जिनका इंडस्ट्री से अच्छा-बुरा, कम-ज्यादा या हल्का-गहरा संबंध रहा हो. इसी वजह से हम देखते हैं कि इंडस्ट्री से मजबूत संबंध बनाये रखने वाले संस्थानों के छात्रों को ही रोजगार प्राप्त होता है और विश्वस्तरीय रैंकिंग में स्थान बनाते हैं. अर्थव्यवस्था एवं उद्योगों में हो रहे परिवर्तनों की जानकारी संस्थानों के पास होनी चाहिए. अक्सर ऐसा नहीं होता.
इसलिए, हमारे देश में मौजूद 300 से अधिक सरकारी संस्थानों में ज्यादातर की स्थिति खस्ता है, खासकर राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों-संस्थानों की हालत काफी खराब है. इंडस्ट्री से सामंजस्य बनाये रखने वाले निजी संस्थानों की संख्या भी बहुत कम हैं.
इसी कारण यह संस्थान गुणवत्ता के पैमानों पर फेल होते हैं. आज भी भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश काल के बनाये ढांचों पर चल रही है, इसलिए अप्रासंगिक हो रही है. आज भी दशकों पुराने पाठ्यक्रम पढ़ाये जाते हैं, जिनके संशोधन/नवीनीकरण की जरूरत ही नहीं समझी जाती. भारत के लिहाज से संस्थानों की गुणवत्ता मापना हाल की बात रही है.
यहां पहले संस्थानों के समक्ष अच्छे परफॉर्म देने का कोई दबाव या बाध्यता भी नहीं थी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) जैसी प्रशासनिक इकाइयों का काम केवल ग्रांट (वृत्ति) बांटने तक सीमित रह गया था. संस्थानों की गुणवत्ता मापने के लिए दो दशक पहले गठित हुई नैक (राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) और एनबीए (राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड) के अनुसार, आज तक केवल 15 फीसदी विश्वविद्यालयों और 20 प्रतिशत कॉलेजों का प्रत्यायन (एक्रीडिटेशन) हुआ है. विश्वविद्यालयों की बात करें, तो दिल्ली, कोलकाता जैसे मेट्रो नगरों के कुछ कॉलेजों के अलावा कहीं और प्लेसमेंट होता ही नहीं है. आज चौथी औद्योगिक क्रांति दरवाजा खटखटा रही है और विशेषज्ञ उसके आगमन को लेकर अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं, वहीं हमारे उच्च शिक्षा के संस्थानों में कोई सुगबुगाहट भी नहीं दिखायी दे रही है. यह अच्छा संकेत नहीं है. सरकारों को यह समझना होगा कि उसका काम केवल बजट बांटना नहीं है.
हालांकि, हमारे देश में जीडीपी का बेहद कम हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है, जो चिंताजनक है. एक तरफ विकास दर के चमकदार आंकड़े दिखाये जाते हैं, लेकिन दशमलव में बढ़ रहे रोजगार के अवसरों को छिपा लिया जाता है. ऐसे में सरकारों को पहल शुरू करके संस्थानों की गुणवत्ता सुधारने के साथ-साथ उसे इंडस्ट्री के साथ समन्वय में लाना होगा. तभी देश में उच्च शिक्षा की स्थिति सुधर सकती है. तब तक दो-एक संस्थानों की सफलता से संतोष करना होगा.
बातचीत : देवेश
जीयूईआर के शीर्ष 100 में आईआईएससी व आईआईटी दिल्ली शामिल
टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा जारी ग्लोबल यूनिवर्सिटी इंप्लॉयबिलिटी रैंकिंग (जीयूईआर) 2018 में भारत के दो प्रमुख शैक्षणिक संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, दिल्ली को शीर्ष 100 में जगह दी गयी है. इस सूची में विश्व के उन 150 संस्थानों को शामिल किया गया है जो रोजगार मिलने के लिहाज से शीर्ष पर हैं. विश्व के प्रमुख नियोक्ताओं के सर्वेक्षण के आधार पर यह सूची तैयार की गयी है.
726 अंकों के साथ 28वें स्थान पर रखा गया है आईआईएससी, बैंगलोर को ग्लोबल यूनिवर्सिटी इंप्लॉयबिलिटी रैंकिंग 2018 की सूची में, जो पिछली रैंकिंग के मुकाबले एक पायदान ऊपर है.
523 अंकों के साथ 53वें स्थान पर आईआईटी, दिल्ली है इस सूची में. जबकि पिछली बार इसे 145वां स्थान मिला था. हालांकि पिछली बार इस सूची में शामिल आईआईटी, बॉम्बे इस बार बाहर हो गया है.
154 अंकों के साथ 144वें स्थान पर विराजमान है आईआईएम, अहमदाबाद इस सूची में जबकि पिछली बार उसे कोई रैंक नहीं मिली थी.
2018-19 के लिए शिक्षा क्षेत्र में सरकार द्वारा किये गये आवंटन
शिक्षा क्षेत्र के लिए वर्ष 2018-19 के लिए सरकार ने 85,010 करोड़ रुपये का आवंटन किया है, जिसमें 50,000 करोड़ रुपया स्कूली शिक्षा व साक्षरता के लिए और 35,010 करोड़ रुपया उच्च शिक्षा के लिए रखा गया है.
इस प्रकार वर्तमान वित्त वर्ष में शिक्षा पर खर्च करने के लिए जो राशि तय की गयी है वह वित्त वर्ष 2017-18 के 81,869 करोड़ रुपये से महज 3.8 प्रतिशत ही अधिक है. इस वर्ष के बजट में अगर उच्च शिक्षा की बात करें तो पिछले वर्ष के मुकाबले इस राशि में 148 करोड़ रुपये का इजाफा किया गया है जो महज 0.4 प्रतिशत ही ज्यादा है. जबकि स्कूली शिक्षा में पिछले वर्ष की तुलना में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि की गयी है.
कुल राशि का 50 प्रतिशत से अधिक आईआईटी, यूजीसी के लिए
51 प्रतिशत राशि केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी और यूजीसी व एआईसीटीई के लिए आवंटित किये गये हैं सरकार द्वारा इस वित्त वर्ष में. हालांकि पिछले वर्ष के मुकाबले इन तीनों संस्थानों के लिए आवंटित राशि में इस वर्ष क्रमश: 11, 23 अौर 4 प्रतिशत की कटौती की गयी है.
9 प्रतिशत राशि एनआईटी व तीन प्रतिशत राशि आईआईएम के लिए आवंटित की गयी है इस बजट में.
राज्य विश्वविद्यालयों को महज 35 % राशि
हमारे देश में उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने में राज्य विश्वविद्यालय व संबद्ध कॉलेज बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. उच्च शिक्षा में इन संस्थानों में बड़ी संख्या में विद्यार्थी दाखिला लेते हैं, लेकिन जब अनुदान की बारी आती है, तो ये संस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय से पिछड़ जाते हैं. केंद्र सरकार द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी को जो राशि आवंटित की जाती है, उनमें से तकरीबन 65 प्रतिशत राशि केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिस्से आती है और राज्य विश्वविद्यालय और उनसे संबद्ध कॉलेजों के हिस्से महज 35 प्रतिशत राशि ही आ पाती है.
ऐसे तैयार की गयी है जीयूई रैंकिंग 2018
टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा जारी की जाने वाली ग्लोबल यूनिवर्सिटी इम्प्लॉयबिलिटी रैंकिग को एचआर कंसल्टेंसी इमर्जिंग ने डिजाइन किया है.
इस रैंकिंग को तैयार करने के लिए विश्व भर के प्रमुख 7,000 नियोक्ताओं से यह सवाल पूछा गया कि उनकी नजर में विश्व की कौन सी यूनिवर्सिटी रोजगार के लिए अपने विद्यार्थियों को सबसे अच्छे तरीके से तैयार करती है. इसके बाद नियोक्ताओं ने विश्वविद्यालय के पक्ष में अपना मत दिया, जिसके आधार पर यह सूची तैयार की गयी. इस बार नियोक्ताओं को 41 देशों के 250 विश्वविद्यालयों में से यह चुनाव करना था.
लगातार बढ़ी है उच्च शिक्षा की मांग
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की 2013 में आयी रिपोर्ट बताती है कि भारत सहित दुनिया के अन्य देशों में उच्च शिक्षा की मांग लगातार बढ़ रही है. इस अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1970 में उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकनों की संख्या 32.6 मिलियन थी. नामांकनों की यह संख्या बढ़कर वर्ष 2011 में 182.2 मिलियन हो गयी है.
इसमें सबसे प्रमुख हिस्सेदारी पूर्वी व दक्षिणी एशिया के देशों के छात्रों की रही है, उनकी संख्या 46 प्रतिशत है. माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक उच्च शिक्षा की मांग में बढ़ोतरी के साथ यह आंकड़ा 250 मिलियन को पार कर सकता है.
पढ़ाई के लिए विदेश का रुख करते भारतीय छात्र
भारतीय छात्रों के बीच विदेश से शिक्षा हासिल करने का क्रेज बना हुआ है और बढ़भी रहा है. भारतीय छात्र विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए हर साल लगभग 450 अरब रुपये से ज्यादा की रकम खर्च करते हैं.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) का 2015 का अध्ययन बताता है कि, देश में उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण संस्थानों की कमी, अभूतपूर्व प्रतिस्पर्धा और अवसरों की अनिश्चितता के कारण ही भारतीय छात्रों की संख्या विदेशी शिक्षण संस्थानों में बढ़ रही है. भारत से 5 लाख से स्टूडेंट्स हर साल पढ़ाई के लिए देश से बाहर जा रहे हैं. भारतीय छात्रों को अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड देश पसंद रहे हैं और जापान व चीन जैसे देशों में भी भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ रही है.