पुस्तक ब्रह्मभोज
लेखक सच्चिदानंद सिंह
प्रकाशक अनुज्ञा बु्क्स
मूल्य 200.00
इस संग्रह में कुल सत्रह कहानियां हैं. ये कहानियां भिन्न-भिन्न काल की हैं, जो इकट्ठा होकर समकालीन विसंगतियों का शाब्दिक कोलाज रचती हैं. ‘मेट’,‘चाइभी’, ‘पुरुष’ कहानी को छोड़ अन्य कहानियों के सूत्र और भाषिक संरचना पर बिहार क्षेत्र का प्रभाव है, पर ‘पकड़वा’ पूरी तरह बिहार की कथा है.
बाकी सभी कहानियां हिंदुस्तान में कहीं भी घटित हो सकती हैं, घट भी रही हैं और लगता है घटती रहेंगी भी. ये कहानियां स्मृतियां हैं, अनुभव हैं, सामाजिक यथार्थ हैं पर बगैर-शोर मचाये समाज के प्रति प्रतिबद्ध हैं.
यह सही है कि रचना बेहतर तब होती है जब रचनाकार अपने भाव-अनुभवों से तटस्थ हो जाता है. पर इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है, रचनाकार निर्ममता से तटस्थ होकर रच रहा है. संवेदना का तारल्य, कथ्य के साथ बह नहीं रहा, गंभीर ठहराव के साथ मानो सावधानीपूर्वक कहानी कही जा रही हो. इस कारण सहज प्रभाव कमज़ोर हुआ है.
लेखक का गंभीर रुचिपूर्ण निरीक्षण समाज की हर हलचल में है. ये कहानियां उन निरीक्षणों, अनुभवों, जानकारियों की हैं. इन्हें इस तरह कहा गया है मानो कोई बड़ा बैठकर बीती और देखी सच्चाइयों को कहानी की तरह सुना रहा है. इनका जन्म लेखक की अपने घर-गांव-अंचल से मुहब्बत से हुआ है. इस मुहब्बत को अभिव्यक्त करने के लिए लिखा गया है.
लेखक ने अपनी रचनात्मक क्षमता के साथ, रचने के आनंद के लिए इन्हें लिखा है और समाज से सरोकार इस आनंद के साथ सहज ही गुंथ गये हैं. बसाहट का इतिहास इनमें है. इनमें तुर्शी नहीं है, व्यंग्य भी बड़े सौम्य से हैं. दुखी, वंचित चरित्र भी उबल नहीं पड़ते हैं.
एक रामनौमी का दूला साव और दंगा के अप्रत्यक्ष फसादी को छोड़ दें तो कहानियों में कहीं क्रोध, आवेष, उन्माद, हिंसा, प्रतिशोध, घृणा, सेक्स, अति उत्साह, आवेग का कोई दृश्य, घटना चरित्र नहीं है.
जाति-व्यवस्था का क्रूर, अमानवीय चेहरा है. पर उस चेहरे की विकृत रेखाओं का अंकन नहीं है. अवसर होने पर भी कहीं अपभाषा, हत्या, सेक्स के बारीक चित्र नहीं है. रचनाकार ‘मर्यादावादी’ है. पूरे संग्रह में बस एक वाक्य है ‘‘हिंदू हो या मुसलमान सब साले एक समान हैं’’ यह ‘साले’ शब्द इस संग्रह का इकलौता अपशब्द है.
कहानियों को पढ़ते हुए यह तो नहीं लगता है कि यह अनुशासन सायास है पर रचनाकार की मर्यादित मानस संरचना का ही परिणाम इन कहानियों का रूप विन्यास और चरित्र है. हालांकि कहानीकार की दृष्टि में विस्तार है. अपने परिवेश से उसका सघन परिचय है पर कल्पना का अभाव है.
वहीं शायद मार्केट में बिकने का भाव भी न रहा हो. कहानीकार प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से हर कहानी में उपस्थित है. स्वतंत्र रूप विन्यास नहीं है. लेखक की स्थानीय लोक और इतिहास में गहरी रुचि है जो लगभग सभी कहानियों में दिखाई पड़ती है. इन्हें पढ़कर लगा कि ये जिस अंचल की है वहां का सामाजिक दस्तावेजीकरण कर रही है.