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क्षीण स्मृतियों के सहारे नकली गांव रचते हैं शहरी कथाकार

Q आपके जीवन में साहित्य की शुरुआत कैसे हुई? मेरी नजर में जो सामान्य घटित नहीं होता, जो लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण, मानवीय नहीं है, उसे देखकर महसूस कर मेरे अंदर बेचैनी होती है. उस छटपटाहट की स्थिति में कुछ कहने, करने का दबाव जैसा महसूस करता हूं. यह बात बचपन से ही है. यहीं मन:स्थिति मुझे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 7, 2018 4:10 AM
Q आपके जीवन में साहित्य की शुरुआत कैसे हुई?
मेरी नजर में जो सामान्य घटित नहीं होता, जो लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण, मानवीय नहीं है, उसे देखकर महसूस कर मेरे अंदर बेचैनी होती है. उस छटपटाहट की स्थिति में कुछ कहने, करने का दबाव जैसा महसूस करता हूं. यह बात बचपन से ही है. यहीं मन:स्थिति मुझे लिखने को बाध्य करती है. लिख लेने के बाद मैं कुछ सुकून का अनुभव करता हूं.
Q लेखन के विषय के रूप में कहानियों को ही क्यों चुना?
बचपन से ही मुझे कहानी सुनना और पढ़ना अच्छा लगता था. कविता, गीत, गजल, दोहा से मुझे परहेज नहीं. पढ़ता हूं. निश्चित रूप से कविता महत्वपूर्ण विधा है.
कम शब्दों में उसकी पूर्णता का भी कायल हूं, लेकिन मैंने महसूस किया कि कविता की तुलना में कहानी की प्रत्यक्ष भंगिमा आकर्षित करती है. जब कहानियां पढ़ता था तो उसमें कथानक, दृश्य, वेदना से जो प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता था वह विधा सरल सहज महसूस होती थी और फिर यह बात भी कि जो मैं कहना चाहता हूं, उसके लिए कहानी ही उपयुक्त है. शायद ये भी कारण है जिसके चलते मैंने कहानी विधा का चुनाव किया. यह सच है कि कभी-कभी कविता लिख लेता हूं. ऐसा महसूस करते हुए कि रागात्मक अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम कविता ही है.
Q आप जनपथ पत्रिका का लगातार संपादन कर रहे हैं. हाल के दिनों में नयी पीढ़ी का ऐसी पत्रिकाओं को लेकर कैसा जुड़ाव नजर आता है?
भारतीय साहित्य और पत्रकारिता की ऐतिहासिक परंपरा का सूत्रपात 1868 में भारतेंदु द्वारा संपादित पत्रिका कविवचन सुधा और बाद में हरिश्चंद्र मैगजीन द्वारा हुआ. उसी स्वस्थ परंपरा का परिणाम है कि सन् 60 के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़ी क्रांति दिखाई पड़ती है. आठवें दशक में यह पूरी तरह उभार पर था. पुराने, नये लेखक भी इसमें सक्रिय योगदान कर रहे थे. उनमें कुछ ऐसे भी थे, जो व्यवसायिक पत्रिकाओं से निराश थे. व्यवसायिक पत्रिकाओं की अपनी सीमा है. वे मालिक के विचारों के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते.
सांप्रदायिकता, राजनीतिक दुष्प्रभाव, ऊंच-नीच, बाजार, अपसंस्कृति, किसानों मजदूरों की समस्या, स्त्री और दलित का सवाल आज भी साहित्यिक पत्रिकाओं के जिम्मे है. आज आधुनिक संचार माध्यमों द्वारा युवा पीढ़ी को गुमराह किया जा रहा है. उन्हें जीवन के वास्तविक संघर्षों से अलग कर सपनों की दुनिया में पहुंचाया जा रहा है.
जीवन की वास्तविकता से हटकर भूत-प्रेत, अंधविश्वास को प्रश्रय दिया जा रहा है. जनता की जरूरतों उनकी वास्तविक स्थितियों के साथ ही भूख, गरीबी, बेरोजगारी का मजाक उड़ाया जा रहा है और यहीं पर अपराधियों, जनविरोधियों को महिमा मंडित किया जा रहा है. जो युवा इस सच को समझ रहे हैं वे साहित्यिक पत्रिकाओं के करीब आ रहे हैं- रचनाकार के रूप में या फिर पाठक के रूप में. आठवें दशक की ऊंचाई की तरह तो नहीं लेकिन युवा पीढ़ी का झुकाव साहित्यिक पत्रिकाओं पर भी है.
Q आपकी रचनाओं में ग्रामीण जीवन और उसके बदलाव को काफी जगह मिलती है. अगर आजकल जिस तरह शहरीकरण का दौर चल रहा है, उसमें आप गांव, किसान और हाशिए के लोगों के जीवन को किस रूप में देखते है?
बचपन से गांव को बहुत नजदीक से देखता आया हूं. भाईचारा, भोलापन, निश्चछलता सहृदयता भी देखी है और धूर्तता, चालाकी, क्रूरता भी झेल रहा हूं. तेजी से बदला है, बदल रहा है गांव. बचपन में जो खुद देखा बाबूजी, बाबा की आंखों और जुबान से देखा, सुना, समझा वह गांव नहीं रहा. अब उसमें शहर, शहरी मानसिकता, पूंजी, बाजार, उपभोक्तावाद हावी है. ग्लोबल विलेज की विसंगतियां सामने आ रही हैं. चेतना संपन्न, दृष्टिसंपन्न रचनाकारों को गांव पर केंद्रित होना या गांव आधारित रचनाएं करना अकारण या शौकिया नहीं. यह सच है कि गांव अन्न-जल, श्रम का स्रोत होते हुए भी उपेक्षित रहा है.
यह भी सही है कि इलेक्ट्रोनिक माध्यम के विकसित हो जाने के कारण गांव और शहर की बहुत सारी सीमाएं टूटी हैं, परंतु गांव की संस्कृति एकबारगी विनष्ट नहीं हो गयी है. किसी न किसी रूप में वह आज भी मौजूद है. गांव में सामंतो का एक नया वर्ग उभर कर आया है. उसका चेहरा और नस्ल बदला है. क्रूरता, अमानवीयता में बढ़ोतरी हुई है.
प्रेमचंद वाली महाजनी व्यवस्था का रूप बदलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरे तामझाम के साथ मौजूद हो रही हैं. जाति, धर्म संबंधी विद्वेष कठोर रूप में सामने है. कृषि और किसान पहले की अपेक्षा ज्यादा उपेक्षित और दीनहीन स्थिति में हैं. स्वाभाविक रूप से कृषि मजदूर की स्थिति बदतर होती जा रही है. गांव के बहुसंख्यक कृषि मजदूर रोजी रोटी का दूसरा विकल्प खोज चुके हैं, खोज रहे हैं.
रोजी के नाम पर या बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपना मनचाहा बाजार बनाने के लिए भी किसानेां की जमीन हड़पी जा रही है. पूंजी वाले अधिक समृद्ध हो रहे हैं, किसान मजदूर बन रहे हैं. मजदूरों की स्थिति बदतर होती जा रही है. युवा पीढ़ी सपनों में जी रही है.
Q भारत गांवों का देश है. आज कथा साहित्य से गांव गायब है. परंपरागत गांव भी और बदला हुआ गांव भी. क्यों? क्या इस तरह एक बड़ा शून्य कथा साहित्य में नहीं उभर रहा?
यह आरोप आज के कथाकारों पर सटीक बैठता है. क्योंकि यर्थाथ का अंकन श्रम साध्य है. अनुभूति के अभाव में काल्पनिक रचना संसार मनोरंजक हो सकता है, कालजयी नहीं. नयी पीढ़ी के और पुरानी पीढ़ी के भी बहुत सारे रचनाकार यर्थाथ अंकन का जो नकली दावा करते हैं उसकी सबसे बड़ी कथा कमजोरी यही है कि वे यथार्थवादी सरोकारों से कम ही टकराते हैं. गांव के संदर्भ में सच यह है कि गांव में पैदा लेनेवाले रचनाकार रोजी-रोटी के लिए पलायन कर जाते हैं.
उनके पास केवल क्षीण स्मृतियों का गांव बसा होता है. गांव का पल-पल बदलता यथार्थ उनसे कोसो दूर है. यही कारण है कि उनकी कहानियों का गांव नकली गांव जैसा लगता है. यह भी सही है कि इलेक्ट्रॉनिक गांव का कृषि मजदूर रोजी रोटी का दूसरा विकल्प खोज चुके हैं या फिर खोज रहे हैं. ऐसे में गांव का पुराना रूप अब नहीं दिखता. रोज के काम पर या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपना मनचाहा बाजार बनाने के लिए भी किसानों की जमीन हड़पी जा रही है.
Q सोशल मीडिया के जरिये हाल के दिनों में साहित्य को लेकर उभर रही प्रवृतियों को आप किस रूप में देखते हैं? हाल के दिनों में तेजी से बढ़े लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य का कितना भला कर रहे हैं?
इन दिनों तथाकथित बड़े लेखक और नयी पीढ़ी के कुछ लेखक जो तकनीकी ज्ञान से लैस हैं, सभी ने अभिव्यक्ति का माध्यम सोशल मीडिया को बनाया है. त्वरित गति से पनप रही इस रचनात्मकता को स्थायित्व भले ही प्राप्त नहीं हुआ हो, पर वे हस्तक्षेप कर रहे हैं. लोगों का ध्यान खींचने में उन्हें बहुत हद तक सफलता मिली है पर वे लोग संपूर्ण जन समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते और न ही साहित्य के विरासत में उनका हस्तक्षेप है. यह एक प्रकार का क्षणवाद का साहित्य है. लिटरेचर फेस्टिवल इन दिनों एक फैशन के रूप में उभर कर सामने आया है. इस साहित्य उत्सव में उत्साह अधिक है. जीवन की यथार्थता कम है.
Q आप लगभग 30 वर्षों से लेखक/संपादन कार्य कर रहे हैं. उस समय के साहित्यिक माहौल और आज के माहौल में क्या फर्क महसूस करते हैं?
फर्क तो है, कल और आज में बहुत ज्यादा. मैं अपनी कहानियों में, संपादकीय में बदले हुए समय को चिह्नित करने की कोशिश करता हूं. आज संपादकों और लेखकों के बीच के संबंध में न तो वैसी श्रद्धा है, न प्रेम औऱ समर्पण. यही बात लेखक का अन्य लेखकों के साथ भी.

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