व्यापार युद्ध, अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट और जलवायु परिवर्तन से वैश्विक खाद्य कीमतों में अस्थिरता

वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिहाज से दुनिया एक नाजुक दौर से गुजर रही है. अमेरिका और चीन के बीच शुरू हुए ट्रेड वार के लगातार विस्तार हासिल करने, जलवायु परिवर्तन के परिणामों के आपदाओं, वर्षा चक्र में बदलाव, बीमारियों के रूप में फलित होने से दुनिया भर में खाद्य कीमतों में अस्थिरता बनी हुई है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 9, 2018 7:20 AM
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वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिहाज से दुनिया एक नाजुक दौर से गुजर रही है. अमेरिका और चीन के बीच शुरू हुए ट्रेड वार के लगातार विस्तार हासिल करने, जलवायु परिवर्तन के परिणामों के आपदाओं, वर्षा चक्र में बदलाव, बीमारियों के रूप में फलित होने से दुनिया भर में खाद्य कीमतों में अस्थिरता बनी हुई है. यह अस्थिरता खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा है ही, असमानता की खाई को और गहरा करने में भी सक्षम है. अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट, वैश्विक ताप में बढ़ोतरी के मद्देनजर खाद्य कीमतों की अस्थिरता और खाद्य सुरक्षा के प्रश्न आज के इन दिनों में…

विकास की नीतियों में बदलाव की जरूरत

सचिन कुमार जैन

(सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषकऔर अशोका फैलो)

द स्टेट आफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड (एफएओ, 2018) की रिपोर्ट ने एक बार फिर से यह स्थापित किया है कि दुनिया भर में तूफानी गति से हो रहे तथाकथित आर्थिक-तकनीकी-सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से खाद्य असुरक्षा-कुपोषण का संकट हल नहीं हो रहा है. भारत में स्मार्ट फोन के लिए 4.5 रुपये में 2 जीबी डाटा तो मिल रहा है, किन्तु खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में यह राशि केवल और केवल दो अकेली रोटियां उपलब्ध करवा सकती है. यह रिपोर्ट बताती है कि आज दुनिया भर में 68.47 करोड़ लोग भुखमरी की स्थिति में रहते हैं, यानी इन्हें नियमित रूप से भोजन नहीं मिलता है. इनमें से 19.59 करोड़ लोग भारत में रहते हैं.

जब समाज में लगातार खाद्य असुरक्षा की स्थिति बनी रहती है, तब समाज में ठिगनापन बढ़ता है. इसे बच्चों में विशेष रूप से मापा जाता है. रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में 15.08 करोड़ बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं, इनमें से 4.66 करोड़ बच्चे भारत में रहते हैं. इसी तरह कुपोषण (वास्टिंग) एक गंभीर संकट है. दुनिया भर के 5.05 करोड़ कुपोषित बच्चों में से 2.55 करोड़ बच्चे भारत में रहते हैं. इसका मतलब है कि यदि भारत में भुखमरी और कुपोषण की चुनौती से पार पाया जा सके, तो दुनिया भर से एक तिहाई से अधिक भुखमरी खत्म हो जायेगी.

यूनिसेफ की रिपोर्ट (2016-17) ‘न्यूट्रीशन एंड ट्राइबल पीपुल -अ रिपोर्ट आन न्यूट्रीशन – सिचुएशन आफ इंडियाज ट्राइबल चिल्ड्रेन’ के मुताबिक विश्व में पांच साल से कम उम्र की एक तिहाई मौतें ठिगनेपन के कारण होती हैं, इससे बच्चे बीमार रहते हैं, स्कूल में अच्छे से पढ़ नहीं पाते हैं और वयस्क होकर उत्पादक भूमिका नहीं निभा पाते हैं. यह स्थिति घरेलू गरीबी, खाद्य असुरक्षा, महिलाओं को पर्याप्त पोषण न मिलने, बच्चों को सही तरीके से मां का दूध न मिलने और बदहाल जीवन शैली के कारण निर्मित होती है. आज भी भारत में बाल विवाह एक बड़ी चुनौती है. जो बच्चों में कुपोषण का बड़ा कारण है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के नतीजों के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के 38.4 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं, जबकि आदिवासी समुदाय में 43.8 प्रतिशत और अनुसूचित जाति में 42.08 प्रतिशत बच्चे इससे जूझ रहे हैं. झारखंड (45.3 प्रतिशत), बिहार (48.3 प्रतिशत), मध्यप्रदेश (42 प्रतिशत), उत्तरप्रदेश (46.2 प्रतिशत) की स्थिति सबसे गंभीर है.

कुपोषण को खत्म करने के लिए तीन स्तरों पर प्रयास करने की जरूरत रही है. पहला हिस्सा है, खाद्य और पोषण की सुरक्षा के मकसद से उत्पादन का विकेन्द्रीकरण करने के साथ प्रबंधन करना.

हमने देखा है कि आजादी के समय प्रति व्यक्ति/दिन दाल का उत्पादन 68 ग्राम था, जो 2007-13 के बीच 30 ग्राम से 40 ग्राम तक गिर गया. तब दाल पर बाजार का नियंत्रण हुआ और कीमतें बढ़ीं. इससे प्रोटीन की कमी हुई और कुपोषण बढ़ा. इसी तरह भारत खाद्य तेलों को भी खुले बाजार के हवाले करता गया. इससे मूंगफली और नारियल के तेल को पाम/ताड़ के तेल ने चुनौती दी, जिससे स्थानीय उत्पादक का जीवन संकट में आया. वास्तव में जरूरत है कि सरकार अनाज के साथ दालों और खाद्य तेल को भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लाये और किसानों की आय और उपज का लाभदायक मूल्य सुनिश्चित करे.

दूसरे स्तर पर भारत को आज भूमि सुधार और जमीन पर समाज के हक को सुनिश्चित करने की जरूरत है. एक बड़ी पहल वन अधिकार कानून के रूप में हुई थी. जिसमें आदिवासियों और अन्य वन निवासियों को वन भूमि पर अधिकार दिया जाना तय किया गया था. किन्तु आदिम जाति विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक फरवरी 2017 तक भारत में व्यक्तिगत और सामुदायिक हकों के लिए कुल मिलाकर 41.65 लाख दावे किये गये थे, इनमें से 18.47 लाख दावे खारिज कर दिये गये. अधिसंख्य मामलों में कानूनी प्रावधान के मुताबिक दावेदारों को आवेदन खारिज होने का कारण भी नहीं बताया गया. क्या रोजगार की सुरक्षा के बिना खाद्य सुरक्षा संभव है?अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट वर्ल्ड एम्प्लायमेंट एंड सोशल आउटलुक (2017) के मुताबिक, वर्ष 2016 में भारत में 1.77 करोड़ लोग बेरोजगार थे, 2017 में यह संख्या बढ़कर 1.78 करोड़ हो गयी. वर्ष 2018 में यह संख्या 1.8 करोड़ होगी. रिपोर्ट बताती है कि रोजगार के अवसर कम होने से श्रम क्षेत्र की स्थिति खराब होगी.

तीसरा स्तर है, हमारे उपभोग व्यवहार में बदलाव. आज भी हम यह मानने को तैयार नहीं हैं िक विकास की नीतियों (जिसमें बदहवास उपभोग को धर्म माना जाता है) में बदलाव की जरूरत है. जब तक एेसा नहीं होगा, तब तक मौसमों में हो रहे घातक बदलाव को हम नियंत्रित नहीं कर पायेंगे. वास्तव में हमें निजी आटोमोबाइल, पेट्रोलियम उत्पाद, ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करने वाले उपकरणों के उपभोग में 60 से 70 प्रतिशत की कमी लाना होगी. भारत में सूखे और बाढ़ के साथ-साथ तटीय इलाकों में समुद्री तूफानों की संख्या में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इससे न केवल रोजगार के अवसर कम हुए हैं, बल्कि खाद्यान्न उत्पादन भी प्रभावित हुआ है और बीमारियां भी बढ़ी हैं.

खाद्य सुरक्षा व पोषण की वैश्विक स्थिति से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े

82.1 करोड़ (821 मिलियन) लोग पिछले वर्ष अल्पपोषित रहे थे, जिसका अर्थ है प्रति नौ में से एक व्यक्ति को पिछले वर्ष पर्याप्त पोषण नहीं मिला.

15.1 करोड़ (151 मिलियन) के करीब बच्चे (पांच वर्ष से कम उम्र के) यानी 22 प्रतिशत से अधिक बच्चे बौनेपन से पिछले वर्ष प्रभावित रहे थे.

5 करोड़ (50 मिलियन) से अधिक बच्चे (पांच वर्ष से कम उम्र के) कुपोषण से प्रभावित हैं, जबकि पांच वर्ष से कम उम्र के 30.8 करोड़ (38 मिलियन) बच्चे सामान्य से ज्यादा वजन के हैं.

67.2 करोड़ (672 मिलियन) वयस्क यानी प्रति आठ में से एक व्यक्ति विश्वभर में अत्यधिक वजनी (ओबेस) व दो अरब लोग सामान्य से ज्यादा वजन (ओवरवेट) की श्रेणी में रखे गये थे पिछले वर्ष.

1 अरब टन से अधिक खाद्यान्न, कुल उत्पादन का एक तिहाई, प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाता है.

अफ्रीका के लगभग सभी क्षेत्र के साथ दक्षिण अमेरिका में भी अल्पपोषण व गंभीर खाद्य असुरक्षा बढ़ रही है, जबकि एशिया के ज्यादातर क्षेत्रों में अल्पपोषण की स्थिति स्थिर है.

खाद्य असुरक्षा की व्यापकता

(कुल जनसंख्या का प्रतिशत)

देश 2014 2015 2016 2017

विश्व भर में 8.9 8.4 8.9 10.2

अफ्रीका 22.3 22.4 22.4 29.8

एशिया 7.3 6.6 6.5 6.9

लैटिन

अमेरिका 7.6 6.3 7.6 9.8

उत्तरी अमेरिका

व यूरोप 1.5 1.5 1.2 1.4

स्रोत : संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन

भारत के लिए होगी खाद्य सुरक्षा की मुश्किल

भारत के अन्न भंडारों में लगातार बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने का सामर्थ्य है और किसी आकस्मिकता की स्थिति से निपटने के लिये भी यथेष्ट अनाज सुरक्षित भंडारों में मौजूद है. इसलिए, तमाम चुनौतियों के बावजूद भारत में फिलहाल खाद्य सुरक्षा नियंत्रण में है.

लेकिन भविष्य के नजरिये से देश में खाद्य सुरक्षा बनाये रखने में मुश्किल होगी. देश की जनसंख्या में लगातार विस्तार हो रहा है, शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से भोजन की मांग और विविधता में भी बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. अनुमान है कि वर्ष 2050 के नजरिये से भारत की जनसंख्या लगभग 1.65 अरब और प्रति व्यक्ति आय 4,01,839 रुपये हो जायेगी. देश की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या शहरों में रहने वालों की होगी, जिससे कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचेगा. यदि देश सात प्रतिशत की विकास दर से वृद्धि करता रहा, तो वर्ष 2050 तक अनाज की मांग में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जायेगी, वहीं फलों, सब्जियों और पशु उत्पादों में 100 से 300 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होगी. इसके अनुसार, हर व्यक्ति की एक दिन की कैलोरी मांग 3,000 कैलोरी से बढ़ जायेगी. इसके फलस्वरूप, खाद्यान्नों की उत्पादकता वर्तमान के 25,000 किलो कैलोरी प्रति हेक्टेयर प्रतिदिन से बढ़ाकर 46,000 किलो कैलोरी प्रति हेक्टेयर प्रतिदिन के स्तर पर ले जाना पड़ेगा, तभी सबकी जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा. इस लक्ष्य को पूरा करना आसान नहीं होगा. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग आने वाले समय में खाद्य सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बन सकते हैं.

जानकार बताते हैं कि यदि औसत तापमान की बढ़ोतरी पर रोक नहीं लगा, तो वर्ष 2050 तक औसत तापमान में 2.2 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जायेगी. इससे रबी और खरीफ फसलों के साथ फलों, सब्जियों, दूध उत्पादन तथा मछली उत्पादन को भारी नुकसान पहुंचेगा. ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में अनियमितता ने पहले ही समय-समय पर खाद्य कीमतों में अस्थिरता पैदा की है. अनुमान है कि तापमान बढ़ोतरी के कारण वर्ष 2050 तक गेहूं के उत्पादन में एक करोड़ 17 लाख टन की कमी आ जायेगी. पंजाब और हरियाणा में चावल के उत्पादन में 15 से 17 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है.

देश के अन्य क्षेत्रों में भी चावल का उत्पादन 6 से 18 प्रतिशत तक गिर सकता है. वर्ष 2050 तक दुग्ध उत्पादन में लगभग डेढ़ करोड़ लीटर के गिरावट की आशंका है. तापमान बढ़ने से शीतोष्ण क्षेत्रों में उगने वाले फलों के क्षेत्र और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. सागरों और नदियों का औसत तापमान बढ़ने से मछली उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा. इसके अतिरिक्त, खाद्य सुरक्षा को भूमि की उपलब्धता भी कम होने से नुकसान पहुंचेगा. वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता वर्ष 2010-11 के 0.13 हेक्टेयर से घटकर मात्र 0.09 हेक्टेयर रह जायेगी. चिंता का विषय यह भी है कि सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता में लगातार कमी हो रही है. कुल मिलाकर, आने वाला समय चुनौतीपूर्ण है.

वैश्विक खाद्य कीमतों पर असर डालने वाले कारक

पंद्रह से अधिक कृषि जिंसों (उत्पादों), मांस व समुद्री खाद्य पदार्थों की कीमतों की स्थिरता को लेकर राबोबैंक ने एक शोध किया है. इस शोध के अनुसार, जारी भू-राजनैतिक तनाव, अल-नीनो व पशुओं के बीमार होने से 2019 में विश्व को काफी अनिश्चितता का सामना करना पड़ेगा. राबोबैंक के कृषि जिंस बाजार के प्रमुख व शोध रिपोर्ट के सह-लेखक स्टीफन वॉगेल का इस संबंध में कहना है कि वर्तमान में भले ही कृषि जिंसों की कीमत स्थिर है, लेकिन ऐसा शायद ही कभी हुआ हो, जब खाद्य वस्तु की कीमतों को व्यापार युद्ध, मुद्रा उतार-चढ़ाव, मौसम की मार से लेकर पशुओं की बीमारियों समेत अनेक चुनौतियों से जुझना पड़ा हो. यह रिपोर्ट कहती है कि अगर अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध 2019 में भी जारी रहा तो यह तनाव आनेवाले समय में वैश्विक व्यापार प्रवाह को बदलकर रख देगा.

अमेरिका-चीन व्यापार युद्धके असर की आशंका

अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध का सबसे अधिक असर सोयाबिन पर हुआ है. राबोबैंक का अनुमान है कि वर्तमान में विश्व के कुल सोयाबिन का 60 प्रतिशत आयात चीन में होता है, लेकिन आयात प्रतिबंधों के कारण 2018/19 में इसके सेवन में 90 मिलियन टन की गिरावट आयेगी.

इस कमी को पूरा करने के लिए जहां चीन किसी दूसरे देश से सोयाबिन खरीदेगा, वहीं अमेरिकी किसानों को इसकी अधिकता का सामना करना पडे़गा और 2018/19 के अंत तक अमेरिका में इसका भंडार दाेगुने से ज्यादा हो जायेगा. इससे अमेरिकी किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा. रिपोर्ट की मानें, तो विश्व में सोयाबिन के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक देश ब्राजील के सोयाबिन किसानों को इस युद्ध से लाभ होगा, लेकिन खाद्य लागत के बढ़ने से पशुधन क्षेत्र पर बोझ बढ़ जायेगा.

पशु प्रोटीन क्षेत्र की बात करें तो एक ओर जहां अमेरिकी मांस व समुद्री भोज्य पदार्थ निर्यातक अपने लिए चीन से बाहर नये व्यापार साझीदार की तलाश करेंगे, वहीं ब्राजील, कनाडा व यूरोपीय यूनियन को चीन के बाजार में पाेर्क (सूअर का मांस) की मांग को पूरा करने का अवसर मिलेगा. अमेरिकी निर्यात को बाद में विदेशों में प्रतिस्पर्धा की कमी से जूझना पड़ेगा, जो आगे चलकर किसानों के लाभ पर असर डालेगा.

अल नीनो से कृषि उत्पाद बाजार में बढ़ेगी अनिश्चितता

सर्दी के अंत तक उत्तरी गोलार्ध में अल नीनो की मौजूदगी की 80 प्रतिशत संभावना है, जिससे मौसम अनिश्चित करवट ले सकता है, फलत: कृषि उत्पाद बाजार में अनिश्चितता बढ़नेे की आशंका जतायी गयी है. रोबोबैंक की रिपोर्ट में संभावना जतायी गयी है कि अमेरिका के दक्षिणी मैदान में सर्द मौसम (वेटर वेदर) की वजह से गेहूं का उत्पादन ज्यादा होगा, वहीं कई जगह फल, ताड़ का तेल (पाम ऑयल), चीनी और रोबस्टा कॉफी के उत्पाद में कमी आने की आशंका है. हालांकि वैश्विक बाजार में कॉफी व चीनी की मांग तब भी बनी रहेगी. यदि जलवायु में अस्थिरता बनी रहती है तो मछली से बने उत्पादों में कमी आयेगी और 2019 में इसके दाम में अनिश्चितता बनी रहेगी.

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