राकेश वर्मा/मनोज वर्णवाल
झारखंड की धरती खनिज संपदा से ही समृद्ध नहीं है, बल्कि यहां की धरती पर कई प्रतिभा संपन्न कलाकार भी बसते हैं. उन्हीं में से एक हैं खोरठा जगत में चर्चित लोकगायक व साहित्यकार सुकुमार.
सुकुमार ने झारखंड की मूल भाषा खोरठा के क्षेत्र में आकाशवाणी व दूरदर्शन तक का सफर तय करते हुए आज पूरे प्रदेश में अपनी पहचान बनायी है और खोरठा रत्न से सम्मानित हुए हैं. साथ ही इनके द्वारा लिखित खोरठा नाटक ‘डाह’ रांची व हजारीबाग विश्वविद्यालय में इंटर व डिग्री स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल है.
उतरी छोटानागपुर प्रमंडल के बोकारो जिले के नावाडीह प्रखंड के भेंडरा गांव में राधा देवी व विश्वनाथ विश्वकर्मा के के घर दो नवंबर 1956 को पैदा हुए सुकुमार गुदड़ी के लाल हैं. गरीबी में पल कर उन्होंने अपनी प्रतिभा को विकसित किया. हाइस्कूल तक की शिक्षा तो उन्होंने अपने गांव के राज्य संपोषित उच्च विद्यालय में प्राप्त की और 1972 में मैट्रिक की परीक्षा पास की.
उसके बाद धनबाद से आइटीआइ व हजारीबाग से डिग्री करने के बाद इनका झुकाव संगीत व साहित्य के प्रति बढा. 1980 में गांव की सामाजिक संस्था नवीन बाल समिति के सचिव बने और आसपास के गांवों में मंचित होने वाले नाटकों में अभिनय कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना शुरू किया. इनका पहला नाटक ‘हरिशचंद्र तारामति’ उर्मिला प्रकाशन, भगलपुर से प्रकाशित हुआ. इसके बाद ‘ज्वला दहेज की’ ,‘दो भाई’ एवं ‘सिकंदर-ए-आजम’ हिंदी नाटक के आलावा झारखंड सरकार के प्रथम ऊर्जा मंत्री आैर स्थानीय विधायक लालचंद महतो पर लघु खंडकाव्य ‘लालचंद चरित मानस’, खोरठा नाटक ‘डाह’, खोरठा गीत ‘पइनसोखा’, ‘सेवाती’, ‘झीगूर’ एवं ‘मदनभेरी’ के साथ-साथ खोरठा काव्य संग्रह ‘बांवा हाथके रतन’ व ‘नावाडहर’ प्रकाशित हुए.
क्षेत्रीय भाषा की पहचान पर जोर
सन 1980 के दशक से खोरठा के प्रचार-प्रसार कर झारखंडी भाषा व संस्कृति का दीप जलाने वाले सुकुमार बताते हैं कि भले ही प्रदेश को अलग हुए 18 वर्ष हुए हों, किसी भी सरकार ने खोरठा भाषा को वास्तविक सम्मान नहीं दिया, जबकि 24 जिलों में से 21 जिलों की क्षेत्रीय व घरेलू भाषा खोरठा है. कहने को तो सूबे में इसे द्वितीय राज्य भाषा का दर्जा प्राप्त है, परंतु आज तक सरकारी व गैर सरकारी स्कूलों में इस भाषा की पढ़ाई शुरू नहीं हुई, जबकि झारखंड के साथ ही अलग राज्य बने छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय भाषा की पढ़ाई शुरू हो चुकी है.
वह कहते हैं कि कई ऐसे देश हैं, जहां के लोग अंग्रेजी की जगह मातृभाषा बोलते हैं, जबकि हम अपनी मातृभाषा को लुप्त होने से बचाने के प्रति अब भी सजग नहीं हैं. खोरठा सहित झारखंड की अन्य क्षेत्रीय भाषाएं जितनी विकसित होंगी, हमारी झारखंडी संस्कृति उतनी ही समृद्ध होगी. इसे सरकार को भी समझना होगा और समाज को भी. यह इन दोनों का दायित्व भी है.
कई बार हो चुके हैं सम्मानित
गायन व अभिनय के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के बल पर आकाशवाणी व दूरदर्शन तक का सफर कर बी हाइ ग्रेड के लोक कलाकार के रूप में स्थािपत होने के बाद इनके द्वारा रचित खोरठा ऑडियो कैसेट ‘पिरित के मरम’ ,’प्रिया रसिकवा’ ,’फुलवा रानी’ व ‘परीछडहर’ ने प्रदेश में खूब धूम मचाया. बोकारो, धनबाद ,कोडरमा ,गिरिडीह ,हजारीबाग आदि जिलों में इनकी खूब मांग हुई. 1993 में बोकारो की अग्रणी संस्था ‘खोरठा कमेटी’ द्वारा सुकुमार को झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने खोरठा रत्न उपाधि देकर सम्मानित किया.
1997 में पटना में हुए युवा सांस्कृतिक महोत्सव में भी सुकुमार सम्मानित किये गये. 2006 में रांची की संस्था ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ द्वारा अखड़ा सम्मान ,15 अगस्त 2007 को कला संस्कृति खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग, झारखंड सरकार द्वारा राज्य स्तरीय खोरठा सम्मान , बेरमो की चर्चित व सक्रिय सामाजिक संस्था ‘शोषित मुक्ति वाहिनी’ द्वारा परम वीर अब्दुल हमीद सेवा सम्मान से सम्मानित किया गया.