स्कूल-घंटी की जगह जहां बजता है नगाड़ा
जसिंता केरकेट्टा युवा कवि, लेखक भोर का उजाला अभी बिखरा नहीं है. सुबह होने से पहले के सघन अंधेरे को कंबल की तरह अपने ऊपर खींच जंगल और गहरी नींद में डूब रहा है. तभी नगाड़ा बज उठता है. नगाड़े की आवाज सुन सूरज उठ जाता है और जंगल के चेहरे से अंधेरे का कंबल […]
जसिंता केरकेट्टा
युवा कवि, लेखक
भोर का उजाला अभी बिखरा नहीं है. सुबह होने से पहले के सघन अंधेरे को कंबल की तरह अपने ऊपर खींच जंगल और गहरी नींद में डूब रहा है. तभी नगाड़ा बज उठता है. नगाड़े की आवाज सुन सूरज उठ जाता है और जंगल के चेहरे से अंधेरे का कंबल खींच लेता है. फिर पेड़, पहाड़ सबकुछ धीरे-धीरे आंख मलते हुए उठते हैं. चिड़ियां अपने बच्चों के साथ पेड़ से मैदान के धूप में उतर आती हैं और उनके शोर से स्कूल के बच्चों की नींद खुल जाती है. फिर बच्चों के दौड़ने की धम-धम आवाज सुनाई देती है.
वे समय के पीछे दौड़ते हैं. छह बजते बजते नित्यक्रिया से निबट, हाथ-मुंह धो कर पढ़ने बैठ जाते हैं. सात बजे नगाड़ा फिर बजता है और फिर हलचल-सी होती है. ग्लास, थाली के टकराने की आवाज गूंजती है. यह उनके नाश्ते का समय है. स्कूल के हॉस्टल में करीब सौ बच्चे हैं और सभी रोजाना पहले से ज्यादा अनुशासित, जिम्मेदार होते जाते हैं, अपनी दिनचर्या, अपने काम, अपनी पढ़ाई, अपने सपनों और अपने लक्ष्य के प्रति. यह झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड स्थित भागिटोली गांव के पास एक टुंगरी में खड़े इंग्लिश-कुड़ुख भाषा स्कूल का दृश्य है, जहां घंटी की जगह नगाड़ा बजता है.
बच्चों के कमरों के आखिरी छोर का कमरा मेरा है. इस कमरे में खिड़की की कांच टूटी हुई है, मगर मुझे यह अच्छा लगता है. खिड़की बंद रहती है हमेशा. जंग लगकर सख्त हो गयी है शायद, पर टूटे कांच के पार से रातभर चांदनी छनकर आती है. यहां से भोर कुछ ज्यादा स्पष्ट दिख जाता है.
सुबह-सुबह जंगल भी साफ दिखता है. कमरे के ठीक सामने पहाड़ों की लंबी शृंखला दिखायी पड़ती है. यह झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा-रेेखा है. इसके पार से छत्तीसगढ़ शुरू होता है. इन पहाड़ों के ऊपर पाट में कोरवा आदिवासी समुदाय रहता है.
कुछ कोरवा आदिवासियों ने घोड़े पाले हैं. वे घोड़े से पहाड़ से नीचे उतरते हैं. इसलिए बच्चे पहाड़ के उस रास्ते को ‘घोड़ा डहर’ कहकर हंसते हैं. पहाड़ के ठीक नीचे छोटी टुंगरी पर खड़ा यह स्कूल और इसका हॉस्टल चारों ओर पहाड़ व जंगल से घिरा है. यहीं 18 सालों से इंग्लिश-कुड़ुख स्कूल चल रहा है, जिसका नाम ‘केके के लूरएड़पा, लूरअड्डा’ है.
इसमें करीब 300 बच्चे इंग्लिश और हिंदी के साथ अपनी मातृभाषा कुड़ुख में शिक्षा पा रहे हैं. हर साल अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होकर बाहर निकल रहे हैं. वे परीक्षा में सिर्फ अच्छे नंबर ही नहीं लाते, बल्कि अपने साथ जंगल -पहाड़ की गंध, अपनी भाषा, अपने गीत, अपने नृत्य, अपना एक अलग विज्डम लेकर स्कूल से निकलते हैं. एक ऐसी शिक्षा, जो उन्हें अपनी जमीन से जोड़े रखती है. एक ऐसा स्कूल, जो उन्हें अपनी विशेषताओं के साथ, अपने जीवन मूल्यों के साथ एक बेहतर इंसान बने रहने की शिक्षा के साथ भविष्य की ओर बढ़ा देता है.
जीवन को मातृभाषा में पढ़ते बच्चे
लड़कियां शर्ट पैंट पहन कर स्कूल के लिए तैयार हो रही हैं. लड़कों और लड़कियों के ड्रेस एक जैसे हैं. बच्चे आठ बजते-बजते स्कूल प्रांगण में जमा हो रहे हैं.
कुछ बच्चे नगाड़ा, मांदर, झांझ, ड्रम बजा रहे हैं और इनकी धुन पर बाकी बच्चे कदमताल कर रहे हैं. फिर कुड़ुख भाषा से प्रार्थना के गीत गाने के बाद सभी अपनी-अपनी कक्षा में चले जाते हैं. इस टुंगरी के आस-पास के गांवों में रहने वाले पढ़े-लिखे कुड़ुखर अपने बच्चों को यहां पढ़ाते हैं. पढ़ने के दरम्यान उनके लिए सारे उदाहरण जीवन, जल, जंगल, जमीन और पहाड़ से जुड़े होते हैं. वे बच्चों को कुड़ुखर वीरांगना सिनगी दई के बारे बता रहे हैं, जिसने रोहतासगढ़ में मुगलों से लोहा लिया था.
बच्चे अपने साहस के लिए परमवीर चक्र पाने वाले योद्धा लायंस नायक परम वीर अल्बर्ट इक्का के बारे पढ़ रहे हैं. वे आदिवासी समाज से निकले और अपनी पहचान बनाने वाले कलाकारों को पढ़ रहे हैं. वे आदिवासी गीतकार, कवि, कहानीकार, नर्तक, चित्रकार, विद्वान आदि की जीवनी सुन रहे हैं. वे क्लास में अलग-अलग मौसम, पर्व-त्योहारों में गाये जाने वाले गीत गा रहे हैं.
वे कुड़ुख भाषा में ‘क’ से कबूतर की जगह ककड़ों पढ़ रहे हैं. ‘प’ से पपला पढ़ रहे हैं. वे उन्हें गाते हुए और नाचते हुए पढ़ रहे हैं. केजी क्लास से ही बच्चे कुड़ुख भाषा की लिपि तोलोंग सिकी में लिख रहे हैं. तोलोंग सिकी को झारखंड सरकार ने 2003 में मान्यता दी है. अपनी मातृभाषा के साथ उनकी इंग्लिश और हिंदी भी अच्छी है. प्रत्येक दो कक्षाओं के बाद एक छोटा ब्रेक होता है. बच्चे स्कूल प्रांगण से निकलकर खेत, तालाब, जंगल में बिखर जाते हैं. वे अपने-अपने झुंड में खेलते हैं.
लड़कियां खेलती हैं पत्थर-पानी के खेल, खो-खो, कित-कित, लोका-गोटी…. लड़कियों के साथ उनकी शिक्षिका भी पत्थर-पानी खेल रही हैं. बहुत छोटे बच्चे भाग कर जाते हैं और धूल में खेलते हैं. फिर नगाड़ा बजते ही धूल-मिट्टी झाड़ अपनी कक्षा में आकर बैठ जाते हैं और फिर जोर-जोर से पढ़ने लगते हैं.
बच्चे कभी-कभी घुलट-घुलटकर, लोट-पोट होकर भी पढ़ते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें पीटा नहीं जाता. बच्चे अपने शिक्षकों से घुले-मिले हैं. वे शिक्षकों से भय नहीं खाते. उनसे संवाद करते हैं और उनके साथ खेलते हैं. दोपहर में जब शिक्षक अखबार पढ़ते हैं, तो यहां के कुछ बच्चे उनके पीछे खड़े होकर अखबार पढ़ते हैं और उनसे अर्थ पूछते हैं.
घर तक पानी पहुंचाता है पहाड़ : 1999 में जब इस स्कूल के निर्माण की योजना बनी थी, तब पानी एक बड़ी समस्या थी. स्कूल भवन के निर्माण और दिनचर्या के कामों के लिए पानी की जरूरत थी. पहले लोग पीने के पानी के लिए पहाड़ों पर जाते थे और चार-पांच किलोमीटर दूर से पानी लाते थे.
गांव वालों ने आपस में खूब बात-विचार किया. इसी क्षेत्र के निवासी जफ्रियानुस बाखला के नेतृत्व में गांव वालों की मदद से पहाड़ पर जलस्रोत तलाशे गये. वे डीप बोरिंग करने के पक्ष में नहीं थे, यह सोचकर कि इससे जलस्रोत नीचे जायेगा और आस-पास के लोगों के लिए पानी की समस्या और बढ़ेगी. पाट पर रहने वाले आदिवासियों का जीवन जीवित जलस्रोत से पहाड़ के चलता है.
सालों साल इससे पानी पझरता रहतर है. इसलिए लोग इन्हें पाझरा पानी भी कहते हैं. ये कभी नहीं मरते और गर्मी के दिनों में भी लोगों के लिए पानी का एकमात्र स्रोत होते हैं. ऐसे जलस्रोत ही पहाड़ में झरनों, छोटी नदियों को जन्म देते हैं और जंगल इससे नमी पाता है. जिस टुंगरी पर स्कूल बनना, वहां से चार किलोमीटर दूर पहाड़ की ऊंचाई से पाइप से पानी लाया गया.
जमीन खोद कर पहाड़ पर पाइप बिछाये गये. स्कूल बनकर तैयार हुआ. पाइप से पानी एक पहाड़ से उतरकर दूसरे पहाड़ में चढ़ता है. फिर स्कूल तक पहुंचता है. इतना ही नहीं, दूसरी मंजिल पर रखी टंकियों में भी बिना बिजली के पानी चढ़ता है. यही पानी खेतों और बागानों तक पहुंचता है, जिससे सब्जियां उगायी जाती हैं. पहाड़ के जलस्रोत से निकलने वाले पानी का दबाव इतना अधिक रहता है कि कई बार पाइप फट जाता है. ऐसे में स्कूल के लड़के पाइप की मरम्मत करने जाते हैं. वे सीधे खड़े पहाड़ पर चढ़ जाते हैं और पाइप की मरम्मत करते हैं. उधर पाइप के ठीक होते ही पानी स्कूल के हॉस्टल के नल में तेजी से आने लगता है और बच्चे नाचने लगते हैं.
करम, सरहुल में खूब नाचते हैं बच्चे
इस इलाके में कुड़ुख बोलने वाले लोग खुद को उरांव आदिवासी नहीं कहते. वे खुद को कुड़ुखर कहते हैं. इतिहास भी जानता है कि कुड़ुख भाषा बोलने वाले लोगों को कुड़ुखर कहा जाता है.
कुछ लोगों का कहना है कि गैर आदिवासियों द्वारा उन्हें नीचा दिखाने और अपमानित करने के लिए उरांव कहा गया और समुदाय का नाम कागजों पर ऐसा ही दर्ज होता चला गया. बाद में पढ़े-लिखे आदिवासी खुद को उरांव कहने लगे, यहां तक कि कुछ खुद को उरांव की जगह ‘ओराम’ भी कहने लगे हैं, पर इन इलाकों में दूर-दूर तक उरांव शब्द नहीं सुनाई पड़ता.
लोग अपने समुदाय को कुड़ुखर कहते हैं और अपनी भाषा कुड़ुख बताते हैं. स्कूल के बच्चे करम, सरहुल, शादी, विवाह सब तरह के गीत पढ़ाई के दौरान ही सीखते हैं. सरहुल, करम जैसे प्रकृति पर्व के आते ही वे इन पर्वों को धूम-धाम से मनाते हैं.
करम में स्कूल के लड़के-लड़कियां जंगल जाकर करम की डालियां काटते हैं और मिलकर करम नाचते हैं. ऐसे समय में जब शहरी शिक्षा बच्चों को जीवन से काट रही है, अपनी मिट्टी से काट रही है, अपनी जमीन, हवा, पानी, यहां तक कि अपने होने के अर्थ से काट रही है, यहां अपनी भाषा के साथ दूसरी भाषा सीखते हुए बच्चे जीवन से, जमीन से जुड़ रहे हैं. मनुष्य के नैसर्गिक गुणों के साथ सहज बढ़ना सीख रहे हैं, जैसे जंगल, पहाड़, पूरी प्रकृति अपनी नैसर्गिकता के साथ बढ़ रही है.
जमीन से जोड़ती शिक्षा
दो बजे आखिरी बार नगाड़ा जोर से बजता है. बच्चे भाग कर निकलते हैं क्लास से. प्रांगण में जमा होते हैं. प्रार्थना में कुड़ुख गीत गाते हैं और दोपहर के भोजन के लिए जाते हैं. भोजन के बाद काम बांटे जाते हैं.
लड़के हंसिया लेकर खेतों की ओर जा रहे हैं. वे खेतों में उगे कुदरूम काटेंगे. लड़कियां जंगल जा रही हैं. वे सूखी लकड़ियां लायेंगी. कुछ बच्चे बागान में सब्जियां तोड़ रहे हैं. कुछ नये पौधों को पानी दे रहे हैं. कुछ गाय-बैल चरा रहे हैं. कुछ बच्चे अपने कमरों की सफाई कर रहे हैं. कुछ बड़े लड़के रसोई में शाम के खाने की तैयारी कर रहे हैं. सब्जी काट रहे हैं. भात पका रहे हैं. रविवार को सभी बच्चे जंगल जाते हैं. वे जंगल-पहाड़ से नहीं डरते. दो-दो की संख्या में भी पूरे जंगल में बिखर जाते हैं और सूखी लकड़ियां चुनते हैं. छोटे बच्चे छोटी-छोटी लकड़ियों का छोटा बोझा बनाते हैं. बच्चे बीच-बीच में आवाज लगा कर एक-दूसरे को पुकारते हैं. जंगल उनके शोर से गूंजता रहता है. लड़कियां पत्ते और लकड़ियां चुनते वक्त गीत गाती हैं.
कुछ बच्चे जंगल के फल ‘खूंटी’ खाने में व्यस्त रहते हैं. लड़के-लड़कियां दोनों काम के दौरान सुविधा के लिए हाफ पैंट पहनते हैं. लड़कियों के कपड़ों से लड़कों के चेहरे पर किसी तरह की कोई शिकन नहीं होती. बिल्कुल सामान्य. वे एक साथ काम कर रहे हैं. कुड़ुख भाषा में लड़कियां लड़कों से लड़कों की तरह बात कर रही हैं और लड़कियों से लड़कियों की तरह. दरअसल यहां लड़की, सिर्फ लड़की भर न होकर ज्यादा मनुष्य हो रही हैं. यह कुड़ुख भाषा की विशेषता है.
स्त्री-पुरुष दोनों की जुबान उनके पास है. उनके पास अधिक शब्द हैं. सब अपनी भाषा में सहज एक शिक्षा, जो उन्हें जमीन तक ले जाती है, उन कार्यों तक ले जाती है, उसमें उन्हें पारंगत करती है, जो उनके जीवन से जुड़ी हुई है, जो उनके गांव घर की दिनचर्या है. शिक्षा, जो उनके भविष्य को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी मिट्टी से जोड़ने का काम कर रही है.