उभर रहे हैं गांवों-कस्बों के कलाकार

अशोक भौमिक चित्रकार वर्तमान सदी के आरंभिक दो दशक, चित्रकला में व्यापक उथल-पुथल भरे रहे. सदी की शुरुआत के साथ-साथ चित्रकला बाजार में जो अस्वाभाविक उछाल का सिलसिला दिखने लगा था, वह 2008 की वैश्विक मंदी के साथ-साथ पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. कला बाजार, जो अपने स्वार्थ में कलाकारों को केवल शोषण और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 30, 2018 5:33 AM
अशोक भौमिक
चित्रकार
वर्तमान सदी के आरंभिक दो दशक, चित्रकला में व्यापक उथल-पुथल भरे रहे. सदी की शुरुआत के साथ-साथ चित्रकला बाजार में जो अस्वाभाविक उछाल का सिलसिला दिखने लगा था, वह 2008 की वैश्विक मंदी के साथ-साथ पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. कला बाजार, जो अपने स्वार्थ में कलाकारों को केवल शोषण और संचालन ही नहीं कर रहा था, बल्कि औसत दर्जे के कलाकारों को प्रचार और विपणन के जरिये महंगे (लिहाजा महान और महत्वपूर्ण!) और निवेश योग्य चित्रकारों के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी सफल दिख रहा था, इस मंदी ने कला बाजार के इस भ्रम को तोड़ा.
पिछले एक दशक के दौरान कलाबाजार से निवेशकों ने हालांकि अपना मुंह मोड़ लिया है, पर इसका सबसे अच्छा असर भारतीय चित्रकला पर पड़ा है.
वर्ष 2018, एक नयी पीढ़ी चित्रकारों का विजय वर्ष था, जिन्होंने बाजार की परवाह किये बगैर नये-नये प्रयोग से भारतीय चित्रकला को ऊब भरी पुनरावृत्ति से मुक्त किया. महानगर स्थित अधिकांश व्यावसायिक गैलरियों की दुकानदारी के बंद होने के साथ-साथ 2008 के तथाकथित प्रतिष्ठित मेट्रो चित्रकारों की असलियत खुलने लगी और आज जहां उनकी कला में 2008 के पूर्व की कला का दोहराव दिख रहा है, वहीं छोटे-छोटे शहरों के प्रतिभावान चित्रकारों के दल ने अपने प्रयोगशीलता की ऊष्मा से भारतीय चित्रकला में नयी जान फूंक दी.
इस वर्ष जबलपुर, रांची, धर्मशाला, बांसवाड़ा, देवास, रतलाम, उज्जैन, जयपुर, बूंदी, पूना आदि इस सूची के महज कुछ ही शहरों के नाम है, जहां के चित्रकारों ने चित्रकला जगत में मेट्रो चित्रकारों के वर्चस्व को पूरी तरह से ध्वस्त किया.
ये चित्रकार अपनी कृतियों को नये कला-दर्शक वर्ग तक पहुंचाने में सफल हुए हैं, जिसके चलते उन्हें कला प्रेमियों का एक ऐसा वर्ग मिला है, जो चित्र किसी निवेश के उद्देश्य से नहीं खरीद रहा है, बल्कि सहज कला प्रेम से अपने सामर्थ्य के अनुसार चित्र खरीद रहा है. इसने कला बाजार को एक नया संतुलन दिया, जहां लाखों-करोड़ों में बिकने-बिकाने की परी-कथाएं अब अर्थहीन हो चुकी हैं.
साल 2019 का साल निस्संदेह इन्हीं छोटे शहरों व कस्बों के कलाकारों की और भी नयी-नयी सफलताओं का वर्ष रहेगा. इस महत्वपूर्ण वक्त में यह जरूरी है कि चित्रकारों का सरकारी-गैर सरकारी निरर्थक कला शिविरों से मोहभंग हो, क्योंकि इन कला-शिविरों के जरिये वास्तव में एक डूबता हुआ कला बाजार अपने बने रहने के लिए तिनके का सहारा खोज रहा है.

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