पिछले वर्ष वस्तु व सेवा कर (जीएसटी), दिवालिया कानून (आईबीसी) के कार्यान्वयन, ऊर्जा क्षेत्रों में सुधार, आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में सुधार सहित कई ऐसी बातें हुईं, जो सकारात्मक परिणाम के संकेत देती हैं. लेकिन आर्थिक मामलों में भारत को पिछले वर्ष अनेक गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा और संभावना है कि इस वर्ष भी हमारे देश को इन चुनौतियां से जूझना पड़ेगा.
व्यापार युद्ध का असर : पिछला साल अमेरिका व चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध का गवाह रहा. दोनों देशों के बीच व्यापार संतुलन को संतुलित करने के लिए वस्तुओं पर लगाये गये कर ने कुछ हद तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डाला. अगर दोनों देशों के बीच इसी तरह तनातनी बनी रही, तो आनेवाले समय में वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ना तय है.
रुपये की कमजोरी : अमेरिका में मजबूत विकास और बॉन्ड के मूल्य (हार्डनिंग ऑफ यील्ड्स) के 3 प्रतिशत के करीब रहने से देश से महत्वपूर्ण विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) ने अपनी पूंजी निकाल ली. इतना ही नहीं, तेल की बढ़ती कीमतों के कारण भारतीय मुद्रा पर बढ़ता दबाव भी बीते वर्ष चिंता का कारण रहा. उपरोक्त दोनों कारकों ने रुपये को कमजोर व अस्थिर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. चूंकि इस वर्ष चुनाव भी होना है ऐसे में केंद्र में जो भी सरकार आयेगी, उसे ऐसे कदम उठाने होंगे जो रुपये को मजबूती दे, तभी भारतीय अर्थव्यवस्था आगे बढ़ पायेगी.
पेट्रोलियम पदार्थों व अल्कोहल जीएसटी में : पेट्रोलियम पदार्थों व अल्कोहल को जीएसटी के दायरे में लाना इस वर्ष की प्रमुख चुनौतियों में से एक रहेगी. इस पर सर्वसम्मति बनाना आसान नहीं होगा, क्योंकि ये दोनों ही उत्पाद राज्य सरकार के राजस्व के प्रमुख स्रोत होते हैं. लेकिन अगर सर्वसम्मति बन जाती है तो जीएसटी का प्रभाव अधिक स्पष्ट तौर पर देखा जा सकेगा.
संशोधित प्रत्यक्ष कर संहिता का कार्यान्वयन : जीएसटी के साथ अप्रत्यक्ष कर जुटाने में पिछले वर्ष अच्छा काम हुआ है, लेकिन ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सहायक होने के लिए प्रत्यक्ष कर संहिता संशाेधन को लेकर स्पष्ट व गंभीर दृष्टिकाेण की जरूरत है.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को लेकर कड़े कदम : ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में बीते दो सालों में हमने अच्छा प्रदर्शन किया है व वैश्विक स्तर पर बड़ी छलांग लगायी है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इसे लेकर सरकार ने अपेक्षाकृत साधारण बदलाव किये हैं. लेकिन अगर भविष्य में इसकी यही गति बरकरार रखनी है तो इसके लिए कुछ सख्त कदम उठाने होंगे, जिसके लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी.
गैर निष्पादित परिसंपत्तियों का निबटान : बैंको की डूबी हुई रकम (एनपीए) को निकालने के लिए नये दिवालिया कानून (आईबीसी) को जारी रखने की आवश्यकता है. हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा, लेकिन ऐसा करना बेहद जरूरी है, तभी कर्जदारों के व्यवहार में बदलाव आयेगा और वह अपने कर्ज के निपटान को अंतिम रूप देने का प्रयास करेगा.
राजकोषीय घाटा कम करना : वर्ष की पहली तिमाही में राजकोषीय घाटा कम करना एक बड़ी चुनौती होगी. इसके लिए पर्याप्त उपाय करने होंगे. अगर ऐसा नहीं किया गया तो 2019 की बाकी बची तीनों तिमाहियों में अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव बना रह सकता है.
आयुष्मान भारत योजना का कार्यान्वयन : पिछले वर्ष शुरु की गयी स्वास्थ्य बीमा योजना ‘आयुष्मान भारत’ बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में फैली विषमताओं को कम कर सकता है. इसके कार्यान्वयन से उत्पादकता बढ़ेगी व भारतीय नागरिकों को इसका दीर्घकालिक लाभ मिलेगा. लेकिन यह सुनिश्वित करना अनिवार्य है कि इसका कार्यन्वयन सही तरीके से हो एवं इसकी विश्वसनीयता बनी रहे.
रोजगार सृजन का भारी दबाव : भारत युवाओं का देश है व बीते दो वर्ष रोजगार सृजन के लिहाज से अच्छे नहीं कहे जा सकते. ऐसे में इस वर्ष सभी हितधारकों पर श्रमबल का हिस्सा बनने वाले युवाओं के लिए रोजगार सृजन का दबाव रहेगा. यह आज के समय की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं होता है तो हमारी सामाजिक व आर्थिक स्थिरता के लिए गंभीर संकट पैदा हो जायेगा.
बुनियादी ढांचे के लिए पूंजी की जरूरत : हमारी विनिमय दर अनुकूल होने के बावजूद गैर-तेल निर्यात विकास दर पिछड़ रही है. इसमें सुधार के लिए जरूरी है कि बुनियादी ढांचे, विशेषकर परिवहन व बंदरगाह पर होनेवाले पूंजी परिव्यय को बढ़ाया जाये और सीमा शुल्क में आ रही बाधाओं को दूर किया जाये.
गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की तरलता सुनिश्चित करना : इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग व फाइनेशियल सर्विसेज (आईएल एंड एफएस) संकट के कारण गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों पर बीते वर्ष दबाव आ गया था. इस दबाव को कम करने के लिए सहायता की जरूरत है. इसलिए मांग में कमी आने पर भी इन संस्थानों के क्रेडिट में कटौती नहीं करने का दबाव रहेगा.
शीघ्र नीतियां बनानी होंगी : आज वैश्विक आर्थिक कारकों का प्रभाव (ग्लोबल मैक्रो-इकोनॉमिक शिफ्ट) इतना तीव्र है जितना पहले कभी नहीं रहा. इन विपरित परिस्थितयों से निपटने के लिए हमें सही योजनाओं के साथ शीघ्रता से नीतियां बनाने की जरूरत है.
जिस तेजी से तेल की कीमतें कम होकर लगभग 50 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंची हैं, यूएस फेडरल रिजर्व दरों की वृद्धि को स्थिर करने और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा दरों में कटौती करने की सोच रहे हैं, उसके बारे में कुछ समय पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था. इन आर्थिक गतिविधियों से निपटने और वृहद आर्थिक स्थिरता के लिए राजकोषीय और वृहद आर्थिक नीति-निर्धारण के बीच एक मजबूत समन्वय की आवश्यकता है.