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जीवन बीमा की पहुंच से 99 करोड़ भारतीय वंचित

सुनील कु. सिन्हा अर्थशास्त्री एवं निदेशक, पब्लिक फाइनेंस हालिया अध्ययन में सामने आया है कि भारत की लगभग 75 फीसदी आबादी किसी भी तरह की जीवन बीमा पॉलिसी के अंतर्गत नहीं आती. आज भी भारत के बहुसंख्यक परिवार एक व्यक्ति के आय पर आश्रित हैं. एेसे में, जीवन बीमा की जरूरत को खारिज नहीं किया […]

सुनील कु. सिन्हा
अर्थशास्त्री एवं निदेशक, पब्लिक फाइनेंस
हालिया अध्ययन में सामने आया है कि भारत की लगभग 75 फीसदी आबादी किसी भी तरह की जीवन बीमा पॉलिसी के अंतर्गत नहीं आती. आज भी भारत के बहुसंख्यक परिवार एक व्यक्ति के आय पर आश्रित हैं. एेसे में, जीवन बीमा की जरूरत को खारिज नहीं किया जा सकता.
बीमा क्षेत्र में सुधार की जरूरत
भा रत में बहुत कम लोगों के बीमा पॉलिसी आदि लेने के पीछे कोई एक कारण नहीं है. और सबसे पहला कारण तो यही है कि बीमा को लेकर देशभर में अब भी जागरूकता की कमी है. शहरों में रहनेवाले या फिर आर्थिक रूप से मजबूत लोग ही स्वास्थ्य बीमा लेने की सोचते हैं.
गांवों में तो आज भी अगर किसी से बीमा लेने के लिए कहा जाये, तो ज्यादातर लोग यह समझ ही नहीं पाते कि आखिर यह क्या बला है. दूसरी बात यह है कि भारतीय बाजार में भी बीमा को लेकर कोई ठाेस आर्थिक नीति नहीं है, जिससे कि लोग इसकी तरफ आकर्षित हों.
तीसरी बात यह है कि बीमा पॉलिसी लेने को लेकर जटिलताएं बहुत थीं. इसका नतीजा यह हुआ है कि जो लोग बीमा पॉलिसी के बारे में जानते भी थे, वे भी इससे दूर भागने लगे थे कि एक बार बीमा ले लेने के बाद ढेर सारे लफड़े पीछे पड़ जाते हैं.
आम तौर पर यहां बीमा पाॉलिसी खरीदने को लेकर दो पहलू नजर आते हैं. एक तो यह कि जो व्यक्ति बीमा लेनेवाला है, उसे इस बात की समझ होनी चाहिए कि आखिर बीमा क्यों कराना चाहिए और इसके क्या फायदे हैं.
बीमा कराने के बाद अगर उससे फायदा लेने की जरूरत पड़े, तो उसे कैसे लिया जा सकता है. दूसरा पहलू यह है कि कुछ साल पहले तक सिर्फ सरकारी बीमा कंपनी हुआ करती थी और निजी क्षेत्र की कंपनियों को बीमा क्षेत्र में नहीं आने दिया गया था, उस दौर में बीमा लेन-देन का लोगों का अनुभव बहुत खराब है.
उस जमाने में बीमा क्लेम के बाद राशि मिलने में काफी वक्त लग जाता था, जिससे लोग परेशान हो जाते थे. जो मिलता भी था, वह भी संतुष्ट करनेवाला नहीं होता था. पिछले कुछ सालों में जब इस क्षेत्र में निजी कंपनियों को इजाजत मिली, तब से एक प्रकार की प्रतियोगिता बढ़ गयी है.
अब बीमा लेन-देन में थोड़ी सुविधा जरूर हुई है, लेकिन अब भी कई मुश्किलें हैं. बीमा कंपनियों में प्रतिस्पर्धा के चलते एक होड़ सामने आयी है, जिसमें यह देखा गया है कि बीमा कंपनियां ‘मिस-सेलिंग’ करती हैं.
यानी कुछ भी सच-झूठ बोलकर ये कंपनियां बीमा पॉलिसी बेच देती हैं. इसका नतीजा यह होता है कि जिस चीज के लिए बीमा पॉलिसी ली गयी थी, जब उसकी जरूरत पड़ी, तब पता चला कि वह पॉलिसी तो उस चीज के लिए है ही नहीं.
इस तरह की मिस-सेलिंग से बीमाधारक बहुत परेशान होते हैं और यही वजह है कि वे अन्य किसी सगे-संबंधी को बीमा लेने से मना करते हैं. लोग ठगे से महसूस करते हैं, कंपनियों पर लोगों को भरोसा ही नहीं होता. इसलिए, आज भारत में बहुत कम लोग बीमाधारक हैं और ये बीमाधारक वे हैं, जो या तो मध्यवर्गीय हैं या फिर उच्च आय वाले हैं.
ऐसे में जाहिर है, इस क्षेत्र में काफी सुधार की जरूरत है और लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने की भी जरूरत है. इसके बाद ही बीमा मार्केट संपूर्ण भारतीय बाजार में एक महत्वपूर्ण हिस्सेदारी निभा पायेगा और लोग पर्याप्त मात्रा में बीमा पॉलिसी के अंतर्गत आ पायेंगे.
सभी भारतीय बीमा के अंतर्गत क्यों नहीं?
इसके सबसे बड़े कारणों में से एक भारत में बीमा उत्पादों का सुरक्षा उत्पाद न होना है. भारत में अधिकांश बीमा उत्पाद विशुद्ध रूप से सुरक्षा उत्पाद नहीं हैं, बल्कि अक्षय निधि (एंडॉमेंट) जैसे उत्पाद हैं, जो सुरक्षा और निवेश की सुविधाएं प्रदान करते हैं.
उदाहरण के लिए, भारत के जीवन बीमा बाजार में 70 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़े समूह भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) द्वारा प्रस्तावित 21 जीवन बीमा योजनाओं में, केवल तीन ही विशुद्ध सुरक्षा पॉलिसी प्रदाता उत्पाद हैं. एंडॉमेंट बीमा उत्पादों द्वारा दिया जाने वाला बीमा कवर, विशुद्ध सुरक्षा उत्पादों द्वारा दिये जाने वाले बीमा कवर के मुकाबले बहुत कम होता है.
अधिकांश भारतीय बीमा कराने के लिए बीमा एजेंट की सलाह पर निर्भर रहते हैं और बीमा एजेंट ही उनके लिए उत्पाद तय करते हैं. साल 2011 के एक अध्ययन में पाया गया था कि बीमा एजेंट बाजार के ऐसे उत्पादों को ग्राहक के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिनसे उनके खुद के करियर को फायदा पहुंचता हो. ऐसे में उपभोक्ताओं के हित पीछे छूट जाते हैं.
जागरूकता की कमी और न्यूनतम मूल्य बीमा के मुद्दों से निपटने के लिए, केंद्र और राज्य सरकारें जोखिम संरक्षण के लिए कई योजनाएं लेकर आयी हैं, विशेष रूप से जनसंख्या के सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए. लेकिन कम आय वाले घरों के लिए पर्याप्त जोखिम सुरक्षा प्रदान करने के अपने उद्देश्य से ये योजनाएं अभी बहुत पीछे चल रही हैं.
हमें पारंपरिक उपायों से परे जाने की जरूरत है और सुरक्षा मार्जिन जैसे अन्य सांख्यिकीय संकेतकों का पता लगाना चाहिए. इसके अतिरिक्त, बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण को आंकड़ों की सही प्रस्तुति पर भी ध्यान देना चाहिए.
आम उपभोक्ता क्यों डरते हैं स्वास्थ्य बीमा खरीदने से?
विशेषज्ञों का मानना है कि स्वास्थ्य बीमा उत्पादों की पॉलिसी की जटिलता उपभोक्ता के सामने कई तरह की बाधा पैदा करती है. इसके अलावा, बीमा उत्पाद के दावों के पूरा होने पर शंका की स्थिति पैदा होना भी एक समस्या है. हालांकि लगभग 95% स्वास्थ्य बीमा दावों का भुगतान किया जाता है.
आम लोगों के बीच स्वास्थ्य बीमा की साख बहुत अच्छी नहीं है. ऐसा भी देखा गया है कि जिन बीमा दावों का भुगतान नहीं किया जाता है, उनकी खबर बहुत जल्दी प्रसारित हो जाती है और लोगों का भरोसा बीमा उत्पादों पर से खत्म होता है.
सर्वेक्षण के अनुसार, बीमा कंपनियों द्वारा दावों के निपटान का अनुपात ऐसा पहलू है, जो पॉलिसी खरीदने के लिए किसी व्यक्ति के फैसले में निर्णायक भूमिका निभाता है. इसके अलावा, उपभोक्ताओं के बीच स्वास्थ्य बीमा नहीं खरीदने का सबसे बड़ा कारण उत्पाद की जानकरियों का भ्रामक होना और समझ में न आना है.
उपभोक्ता स्वास्थ्य बीमा को भ्रामक पाते हैं एवं सरल नियमों और शर्तों के साथ बीमा कराने की अपेक्षा रखते हैं. इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के पास कई योजनाएं होती हैं, जिससे किसी भी सामान्य उपभोक्ता के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा बीमा उत्पाद खरीदना उसके लिए ठीक है.
मात्र आठ फीसदी को जीवन सुरक्षा कवरेज हासिल
98.8 करोड़ के करीब भारतीयाें के पास किसी प्रकार की कोई जीवन बीमा पॉलिसी नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो तकरीबन 75 प्रतिशत भारतीयों के पास किसी प्रकार का कोई जीवन बीमा कवर नहीं है.
82 प्रतिशत भारतीय असंगठित क्षेत्रों में कार्य करते हैं, जबकि 39 करोड़ (392.31 मिलियन) से अधिक कामगार अपर्याप्त कवरेज की वजह से हमेशा इस डर में जीते हैं कि कहीं बीमारी की वजह से वे आर्थिक संकट में न आ जायें.
32.8 करोड़ के करीब भारतीयों के पास जीवन बीमा पॉलिसी थी वर्ष 2017 में, हैंडबुक ऑन इंडियन इंश्योरेंस स्टेटिस्टिक्स, 2016-17 के आंकड़ों के अनुसार.
8 प्रतिशत भारतीय के पास केवल ऐसी बीमा कवरेज है, जो उनके नहीं रहने पर उनके परिवार को सुरक्षा प्रदान करेगी,. इस प्रकार यह बीमा कवरेज जापान के 44, ताईवान के 84 और ऑस्ट्रेलिया के 67 प्रतिशत से काफी कम है.
8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जीवन बीमा के लिए दिये जाने वाले वार्षिक प्रीमियम दर में, भारतीय बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) के 2017 के वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार. प्रीमियम दर में यह वृद्धि ब्राजील के 1.2 से बेहतर, लेकिन रूस के 48.2 और चीन के 21.1 प्रतिशत से कमतर है.
811.3 डॉलर था भारत का बीमा घनत्व (कुल जनसंख्या का बीमा प्रीमियम अनुपात) वर्ष 2016 में, जो ब्राजील (390 डॉलर) और चीन (659.7 डॉलर) से अधिक, लेकिन ब्रिटेन (2,129.3 डॉलर), अमेरिका (1,724.9 डॉलर) और दक्षिण अफ्रीका (2,611.7 डॉलर) से काफी कम था, आईआरडीएआई की वार्षिक रिपोर्ट 2017 के अनुसार.
2.72 प्रतिशत था सकल घरेलू उत्पाद के लिए देश के बीमा प्रीमियम का अनुपात (इंश्योरेंस पेनेट्रेशन) ब्राजील के 2.28 प्रतिशत, चीन के 2.34 प्रतिशत, अमेरिका के 3.02 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका के 11.52 प्रतिशत और विश्व औसत 3.47 प्रतिशत के मुकाबले, वर्ष 2016 में.
65 प्रतिशत के पास निजी दुर्घटना बीमा
65 प्रतिशत भारतीयों के पास निजी दुर्घटना बीमा है (इसमें आईआरसीटीसी, पीएमजेडीवाय और पीएमएसबीवाय द्वारा जारी पॉलिसी भी शामिल है), आईआरडीएआई की वार्षिक रिपोर्ट, 2017 के मुताबिक.
35 प्रतिशत भारतीयों के पास किसी प्रकार का निजी दुर्घटना बीमा कवर नहीं है, जबकि पीएमजेडीवाय-रुपे बीमा के तहत 31 प्रतिशत लोग और आईआरसीटीसी के तहत 9 प्रतिशत लोग बीमित हैं. 25 प्रतिशत लोगों को अन्य संस्थाओं ने निजी दुर्घटना बीमा के तहत कवर किया है, आईआरडीएआई की वार्षिक रिपोर्ट, 2017 के अनुसार.
20 प्रतिशत से अधिक पीएमजेडीवाय लाभार्थियों को रुपे कार्ड जारी नहीं कया गया था, पीएमजेडीवाय के दिसंबर 2016 के आंकड़ों के अनुसार.
48 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनके बैंक, क्रेडिट यूनियन, माइक्रोफाइनेंस इंस्टीट्यूशन, को-ऑपरेटिव और पोस्ट-ऑफिस जैसे वित्तीय संस्थान में खाता है, लेकिन उन्होंने वर्ष 2016 में एक बार भी अपने वित्तीय संस्थान के साथ कोई लेन-देन नहीं किया था, विश्वबैंक द्वारा जारी 2017 ग्लोबल फिनडेक्स के मुताबिक. ऐसे मेे पीएमजेडीवाय अकाउंट होने के बावजूद वे रुपे बीमा के लाभ से वंचित रह सकते हैं.
जीडीपी अनुपात के सम एश्योर्ड में वृद्धि
जीडीपी अनुपात के सम एश्योर्ड (बीमा राशि के रूप में बीमित व्यक्ति के मरने पर उसके परिवारवालों को दी जानेवाली रकम) की अगर बात करें, तो वह भारत के जीडीपी अनुपात का कुल 58 प्रतिशत है आरबीआई 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक.
यह राशि चीन के 33 और इंडोनेशिया के 28 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन अमेरिका, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और जापान के 105-321 प्रतिशत से बेहद कम है. हालांकि आईआरडीएआई 2017 के रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जीडीपी अनुपात के सम एश्योर्ड की राशि 65 प्रतिशत पहुंच गयी है.
स्रोत : इंडियास्पेंड की रिपोर्ट
स्वास्थ्य बीमा की उम्र को लेकर लोगों की राय
लगभग 40 प्रतिशत लोग मानते हैं कि 25 वर्ष से कम उम्र इसके लिए सही.
उम्र लोगों का प्रतिशत
25 वर्ष से कम 39.8
25 वर्ष 26.3
30 वर्ष 18.8
35 वर्ष 6.3
40 वर्ष 4.7
45 वर्ष 1.3
50 वर्ष से अधिक 1.4
कभी नहीं 1.4
दिनचर्या संबंधी रोगों में हुई वृद्धि
एक अध्ययन के अनुसार लोगों के बीच जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों में वृद्धि दर्ज की गयी है. पिछले वर्ष की तुलना में उच्च कोलेस्ट्रॉल और रक्तचाप से पीड़ित लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, जबकि मधुमेह रोगियों की संख्या में मामूली गिरावट आयी है.
हालांकि, दिनचर्या से जुड़ी बीमारियों से पीड़ित 45 साल से कम उम्र के लोग तेजी से बढ़ गये हैं. साल 2017 में 45 वर्ष से कम उम्र के 5.2 प्रतिशत लोगों की तुलना में साल 2018 में 12.1 फीसदी लोगों में उच्च कोलेस्ट्रॉल की समस्या सामने आयी है.
इसी तरह, साल 2017 की तुलना में वर्ष 2018 में 45 वर्ष से कम उम्र के लोगों में मधुमेह, रक्तचाप और थायरॉयड की समस्या भी बढ़ गयी. सर्वेक्षण में यह भी बताया गया है कि 35 प्रतिशत भारतीय एसिडिटी संबंधित चिंताओं से पीड़ित हैं और डॉक्टर उन्हें सक्रिय रूप से पोषण, व्यायाम और नींद जैसी दिनचर्या संबंधी सुधारों को लागू करने की सलाह दे रहे हैं.
स्रोत: जीओक्यूआईआई इंडिया फिट रिपोर्ट 2019

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