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ग्रामीण भारत में शिक्षा की स्थिति बदहाल, बुनियादी संसाधनों का हैं अभाव

रुक्मिणी बनर्जी निदेशक, प्रथम स्वयंसेवी संस्था प्रथम की सालाना रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की चिंताजनक स्थिति की तस्वीर उभर कर सामने आयी है. अधिकांश छात्र निचली कक्षा की किताबों का पाठ नहीं कर सकते, गणित के सवाल हल नहीं कर सकते.सरकारी विद्यालयों में पीने के पानी की समस्या बड़े पैमाने पर है. छात्राओं […]

रुक्मिणी बनर्जी
निदेशक, प्रथम
स्वयंसेवी संस्था प्रथम की सालाना रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की चिंताजनक स्थिति की तस्वीर उभर कर सामने आयी है. अधिकांश छात्र निचली कक्षा की किताबों का पाठ नहीं कर सकते, गणित के सवाल हल नहीं कर सकते.सरकारी विद्यालयों में पीने के पानी की समस्या बड़े पैमाने पर है. छात्राओं के लिए अलग टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है. सारे तथ्य ग्रामीण इलाकों में सुधार की नयी कोशिश की जरूरत की ओर भी इशारा कर रहे हैं. इन्हीं बातों के मद्देनजर आज का इन दिनों…
आज से दस साल पहले हमारा समाज, सरकारें और हम सभी लोग बच्चों को स्कूल लाने में व्यस्त थे. चूंकि बच्चे स्कूल आते ही नहीं थे, इसलिए कोशिश यह हो रही थी कि किसी तरह बच्चे स्कूल आयें.
इसके लिए कुछ योजनाएं भी चलायी गयीं. लेकिन, दस साल बाद अब समाज को, सरकारों को और हम सब को यह समझ में आ रहा है कि सिर्फ बच्चों को स्कूल तक ले आना ही काफी नहीं है, बल्कि खुद स्कूल में भी साल-दर-साल तरक्की होनी चाहिए, स्कूल में सुविधाओं का निरंतर विस्तार होते रहना चाहिए, आदि. यानी अब हम लोग जागरूक हो रहे हैं, देर से ही सही. जागरूक होने का मतलब है कि सबसे पहले किसी समस्या को हम समझें-पहचानें कि आखिर वह है क्या. फिर उसके उचित समाधान के बारे में सोचें और नीति बनायें.
मुझे अब ऐसा लगता है कि समाज और सरकारों ने शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त इस समस्या को स्वीकार लिया है और इसे दूर करने के लिए कदम बढ़ा रहे हैं. इसलिए, आप देखेंगे कि बीते कुछ सालों में कई सरकारों ने अपने-अपने तरीके से अलग-अलग प्रयास किये हैं. बिहार और झारखंड राज्यों में शिक्षा के क्षेत्र में कई तरह के प्रयोग किये गये हैं. लेकिन, जो प्रयास या प्रयोग रह गया है, जिसे करने की सख्त जरूरत है, असर की रिपोर्ट उसी को रेखांकित करती है.
असर की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंचती दिखती है कि हमारी शिक्षा की बुनियाद में ही कुछ कमी है. यानी पहली से लेकर दूसरी-तीसरी कक्षा तक बच्चों के आधार को मजबूत करने की जरूरत है, ताकि इन तीन कक्षाओं के बच्चे अपने पाठ्यक्रम को पूरी तरह से न सिर्फ पढ़-समझ सकें, बल्कि उसके बारे में किसी भी सवाल का जवाब दे सकें.
यही वह नींव है, जिस पर देश में शिक्षा की बुनियाद टिकी हुई है. दरअसल, हमारी गलती यही रही है कि हमने बुनियादी शिक्षा (पहली से पांचवीं कक्षा) पर उतना ध्यान नहीं दिया, जिसका खामियाजा यह हुआ कि आगे चल कर इन बच्चों की पढ़ाई कुछ कमजोर हो गयी.
जाहिर है, बिना बुनियादी शिक्षा को मजबूत किये अगर हम आठवीं-दसवीं का रिजल्ट मजबूत करने की कोशिश करेंगे, तो यह वैसा ही है कि बिना पहली मंजिल को मजबूत बनाये हम उसके ऊपरी मंजिलों का भव्य निर्माण कर रहे हैं. अरसा पहले तक तो हमारी नीतियां ऐसी थी ही नहीं कि शिक्षा की बुनियाद को सबसे ज्यादा मजबूत किया जाये.
यह हमारी गलती रही है. लेकिन अब तो हमारे पास शिक्षा का अधिकार कानून तक है, फिर क्यों नहीं हम कुछ कर पा रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है. स्कूलिंग में हम अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देते हैं, लेकिन अब हमें ऐसी नीति बनानी चाहिए कि तीसरी कक्षा तक बच्चों को ऐसी शिक्षा मिले, जिससे कि वे एकदम सही-सही पढ़ना-लिखना और बोलना सीख जायें. इसके बाद तो आगे की कक्षाएं बच्चों के लिए आसान हो जायेंगी.
दूसरी बात यह है कि सिर्फ बच्चों को फ्री में किताब दे देना या ट्रेंड टीचर की व्यवस्था कर देना ही काफी नहीं है, बल्कि टीचर को सपोर्ट करने की व्यवस्था भी हाेनी चाहिए. टीचर के ऊपर जो भी आधिकारिक लोग हैं, उनका सहयोग बहुत जरूरी है एक टीचर के लिए. आखिरी बात, मां-बाप को भी अपने बच्चों के लिए थोड़ा जागरूक होने की जरूरत है.
ग्रामीण स्कूलों के छात्रों का बौद्धिक स्तर: पढ़ने की क्षमता और अंकगणित कौशल
असर रीडिंग टेस्ट में यह आकलन किया गया कि बच्चा कक्षा एक के स्तर के अक्षरों, शब्दों एवं सरल पैराग्राफ और कक्षा दो के स्तर की कहानी पढ़ सकता है या नहीं. यह परीक्षण 5-16 आयुवर्ग के सभी बच्चों के बीच एक-एक करके लिया गया.
कक्षा तृतीय: कक्षा तीन के बच्चों का प्रतिशत, जो पढ़ाई के मामले में कक्षा दो के स्तर पर हैं, पिछले कुछ वर्षों से बढ़ रहा है. यह आंकड़ा साल 2013 में 21.6 प्रतिशत, साल 2014 मेें 23.6 प्रतिशत और 2016 में 25.1 प्रतिशत था.
साल 2018 में यह 27.2 प्रतिशत हो गया है. छह राज्यों (पंजाब, हरियाणा, मिजोरम, उत्तर प्रदेश, गुजरात और केरल) के सरकारी स्कूलों में कक्षा तीन में नामांकित बच्चों के साल 2016 के स्तर में 5 प्रतिशत से अधिक अंकों का सुधार दिखायी दिया है.
कक्षा पांच: कक्षा पांच में नामांकित सभी बच्चों में से लगभग आधे से कुछ अधिक कक्षा दो के स्तर के पाठ पढ़ पाने में सक्षम हैं. साल 2016 के 47.9 प्रतिशत से बढ़ कर यह साल 2018 में 50.3 प्रतिशत पहुंच गया है.
साल 2016 से 2018 की अवधि में हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल, अरुणाचल प्रदेश, और मिजोरम में कक्षा पांच में नामांकित सरकारी स्कूल के बच्चों में इस मामले में पांच प्रतिशत अंक या उससे अधिक की वृद्धि देखी जा रही है. पंजाब व आंध्र प्रदेश इनसे थोड़ा ही पीछे हैं.
कक्षा आठ: भारत में अनिवार्य स्कूली शिक्षा के अंतिम वर्ष, यानी कक्षा आठ के बच्चों से न केवल मूलभूत कौशल में दक्ष होने की उम्मीद की जाती है, बल्कि बुनियादी स्तर से आगे बढ़ जाने की अपेक्षा रहती है.
असर रिपोर्ट 2018 के अनुसार, कक्षा आठ में नामांकित भारत के सभी बच्चों में से, लगभग 73 प्रतिशत बच्चे ही कम से कम कक्षा दो के स्तर के पाठ पढ़ सकते हैं. साल 2016 से इस आंकड़े में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है.
कैसा है विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात
देश के विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात की अगर बात करें, तो उसके अनुपालन में पहले के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन अब भी देश के तकरीबन 43 प्रतिशत स्कूल इसके अनुपालन में पीछे हैं.
आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 में जहां महज 49.3 प्रतिशत स्कूल इस अनुपात का पालन कर रहे थे, वह 2016 में बढ़ कर 53.1 और 2018 में 57.8 पर पहुंच गया. जहां तक राज्यों की बात है, तो इसके अनुपालन में सिक्किम (99 प्रतिशत), नागालैंड (97.6) और केरल (94.6) के स्कूल शीर्ष पर हैं, जबकि बिहार (19.7), झारखंड (28.3) आैर उत्तराखंड (31.3) जैसे राज्यों के ग्रामीण स्कूल निचले पायदान पर हैं.
गांवों में स्कूली स्तर पर नामांकन एवं उपस्थिति
कुल नामांकन (6-14 आयु वर्ग): पिछले दस वर्षों में 6-14 आयु वर्ग के छात्रों का नामांकन 95 फीसदी से अधिक का रहा है. साल 2018 में मात्र 2.8 प्रतिशत बच्चे ही स्कूलों में नामांकित नहीं पाये गये हैं.
स्कूलों में गैर नामांकित लड़कियों की संख्या: साल 2006 में, स्कूलों में गैर पंजीकृत 11 से 14 वर्ष की आयु की लड़कियों का अखिल भारतीय अनुपात 10.3 प्रतिशत था. उस वर्ष, नौ प्रमुख राज्यों में 10 प्रतिशत से अधिक लड़कियां (उम्र 11-14 वर्ष) स्कूलों में नामांकित नहीं थीं.
साल 2018 में, 11 से 14 आयु वर्ग की गैर नामांकित लड़कियों का प्रतिशत 4.1 पर आ गया है. यह आंकड़ा 5 फीसदी से अधिक केवल पांच राज्यों में पाया गया है. साल 2008 में, 15-16 आयु वर्ग की 20 प्रतिशत से अधिक लड़कियां स्कूलों में नामांकित नहीं थी. यह आंकड़ा, साल 2018 में 13.5 प्रतिशत पर आ गया है.
निजी स्कूलों में नामांकन: साल 2006 से 2014 की अवधि में, निजी स्कूलों में नामांकित बच्चों (6-14 आयुवर्ग) के अनुपात में साल-दर-साल वृद्धि देखी गयी है. साल 2014 में, यह आंकड़ा 30.8 प्रतिशत था. इसके बाद से नामांकन में स्थिरता रही है. निजी स्कूलों में नामांकित बच्चों (6-14 आयुवर्ग) का प्रतिशत साल 2016 में 30.6 प्रतिशत था और वर्ष 2018 में मात्र 0.3 फीसदी अधिक 30.9 प्रतिशत रहा. राष्ट्रीय औसत राज्यों में निजी स्कूल के आंकड़ों के परिवर्तन को छिपाती दिखती है.
राजस्थान, उत्तर प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में निजी स्कूलों में नामांकन में साल 2016 से दो प्रतिशत से अधिक अंकों की गिरावट दर्ज की गयी है. वहीं इसी दौरान, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, बिहार और गुजरात में दो प्रतिशत से अधिक अंकों की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. उत्तर-पूर्व के अधिकांश राज्यों के निजी स्कूलों में नामांकन में साल 2016-2018 के बीच वृद्धि देखी गयी है.
कैसा है स्कूलों में खेल का हाल
बीते कुछ वर्षों से हमारे देश में खेल को लोकप्रिय बनाने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन अभी भी इसमें काफी कुछ किया जाना बाकी है.
यही वजह है कि समय-समय पर हमारे देश के नामचीन खिलाड़ियों ने सरकार से स्कूली पाठ्यक्रम में खेलों को शामिल करने और खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए निधि बढ़ाने का आग्रह किया है. इन बातों को ध्यान में रखकर ही भारत सरकार ने स्कूली स्तर पर खेलों को बढ़ावा देने के लिए कई पहल किये हैं. एक नजर, प्रथम एनजीओ द्वारा देश के ग्रामीण स्कूलों में खेल-कूद व्यवस्था की स्थिति के ऊपर:
सिक्किम के 88 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान
खेल के मैदान की अगर बात की जाये, तो भारत के लगभग दो तिहाई से अधिक स्कूल परिसर में ये मौजूद हैं. यहां 88 प्रतिशत के साथ सिक्किम, 87 प्रतिशत के साथ महाराष्ट्र, 86 प्रतिशत के साथ त्रिपुरा, 84 प्रतिशत के साथ हरियाणा, 83 प्रतिशत के साथ हिमाचल प्रदेश, 82 प्रतिशत के साथ गुजरात और 81 प्रतिशत के साथ कर्नाटक शीर्ष राज्यों की श्रेणी में शामिल हैं.
वहीं देश के कई हिस्सों में ऐसे स्कूल भी हैं, जहां परिसर के बाहर खेल के मैदान हैं. ओडिशा व झारखंड के लगभग एक तिहाई स्कूलों में खेल के मैदान स्कूल परिसर से बाहर हैं, जबकि ओडिशा के एक तिहाई और झारखंड के एक चौथाई स्कूलों के पास खेल के मैदान नहीं हैं. वहीं, जम्मू-कश्मीर व बिहार के एक चौथाई से अधिक स्कूलों में यह सुविधा मौजूद नहीं है.
देश के दो तिहाई स्कूलों में खेल के उपकरण
खेल उपकरणों की अगर बात करें, तो देश के लगभग दो तिहाई स्कूलों में इनकी उपलब्धता है. गुजरात, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मिजोरम, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के लगभग तीन चौथाई स्कूलों के पास ये उपकरण हैं, जबकि मेघालय (20 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश (29 प्रतिशत), नागालैंड (43 प्रतिशत) और मणिपुर (49 प्रतिशत) जैसे पूर्वोत्तर के राज्य इस मामले में निचले पायदान पर हैं.
दो तिहाई स्कूलों में शारीरिक शिक्षा के घंटे निर्धारित
देश के कुल ग्रामीण स्कूलों में दो तिहाई के पास शारीरिक शिक्षा के घंटे के साथ ही उसके लिए समय सारणी भी निर्धारित है. इन राज्यों में 93 प्रतिशत ग्रामीण स्कूलों के साथ महाराष्ट्र शीर्ष पर है, जबकि 82 प्रतिशत के साथ तमिलनाडु, 72 के साथ गुजरात, 83 के साथ केरल और 78 के साथ आंध्र प्रदेश शीर्ष राज्यों में शामिल हैं. यहां आश्चर्यजनक बात यह है कि खेलों को लेकर जागरूक राज्यों में शामिल मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश व मेघालय समेत पूर्वोत्तर के राज्य इस मामले में निचले पायदान पर हैं. ठीक इसी तरह, हरियाणा व पंजाब जैसे खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करनेवाले राज्यों के केवल आधे ग्रामीण स्कूलों में ही शारीरिक शिक्षा के लिए समय सारणी निर्धारित है.
10 में से दो स्कूलों में शारीरिक शिक्षक
जहां तक शारीरिक शिक्षकों की बात है तो इस मामले में स्कूलों की स्थिति बेहद खराब है. महज 5.8 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल व 30.8 प्रतिशत उच्च प्राथमिक स्कूलों में यह सुविधा उपलब्ध है.
राज्यों की यदि बात की जाये, तो यहां के प्रति 10 प्राथमिक स्कूलों में दो से भी कम में शारीरिक शिक्षा के लिए अलग से कोई शिक्षक नियुक्त है. इनमें से ज्यादातर स्कूलों में प्राय: किसी दूसरे विषय के शिक्षक ही शारीरिक शिक्षा का संचालन करते हैं. इस लिहाज से शीर्ष राज्यों में शामिल राजस्थान के 50 प्रतिशत स्कूलों में शारीरिक शिक्षा के लिए अलग से शिक्षक हैं. इसके बाद केरल, बिहार व कर्नाटक का स्थान है, जहां एक तिहाई से अधिक स्कूलों में इस विषय के अलग से शिक्षकनियुक्त हैं.
हरियाणा के 20 प्रतिशत व पंजाब के एक तिहाई स्कूलों में न ही अलग से कोई शारीरिक शिक्षक हैं, न ही कोई अन्य शिक्षक ही इन गतिविधियों को अंजाम देते हैं.
स्कूलों में अन्य जरूरी संसाधनों की उपलब्धता
संसाधन 2014 2016 2018
मिड डे मिल 85.1 87.1 87.1
पीने योग्य पानी 75.6 74.0 74.8
उपयोग लायक शौचालय 65.2 68.6 74.2
लड़कियों के लिए अलग व
उपयोग लायक शौचालय 55.7 61.9 66.4
पुस्तक की उपलब्धता 78.1 75.5 74.2
बिजली – 75.0 78.5
कंप्यूटर 19.6 20.0 21.3
रिपोर्ट के अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
झारखंड के ग्रामीण स्कूलों के पांचवीं कक्षा के मात्र 29.4 फीसदी छात्र व बिहार के ग्रामीण स्कूलों के पांचवीं कक्षा के मात्र 35.1 प्रतिशत छात्र कक्षा दो की किताबें पढ़ सकते हैं. पश्चिम ब‍ंगाल‍ में यह प्रतिशत 50.5 है. 74.5 फीसदी के साथ हिमाचल प्रदेश पहले स्थान पर है.
74.2 प्रतिशत स्कूलों के पुस्तकालय में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी मौजूद थीं पिछले वर्ष, जबकि वर्ष 2008 में 62.6 प्रतिशत स्कूलों में ही यह सुविधा मौजूद थी.
जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर के कई राज्यों में पीने योग्य पानी व लड़कियों के उपयोग लायक अलग शौचालय की उपलब्धता 50 प्रतिशत से भी कम स्कूलों में है.
असम की बात छोड़ दें, तो पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में ग्रामीण स्कूलों के पुस्तकालयों में पाठ्यक्रम के अलावा अन्य पुस्तकें भी मौजूद नहीं थीं. मिड-डे मील के मामले में भी ये राज्य पीछे हैं. इन राज्यों के ग्रामीण क्षेत्र के 50 प्रतिशत से भी कम स्कूल यह सुविधा प्रदान करते हैं.

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