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यक्षी के बहाने स्त्री : पिता ने घोषा को कुलपति घोषित कर दिया
उषाकिरण खान कई बार घोषा अपने उन छात्रों से समत्कृत होती, जो यज्ञ के हवन के लिए श्रुव सुचिक्कण बनाते. जाह्नवी के मोटे रेत को केले के थंब की कोमल छाल में सहेज श्रुव की डंडी रगड़ते. यदि वह चिकनी न हो, तो हवन करते, अर्घ देते घृत समर्पित करते हाथ में तिनके चुभ जाते […]
उषाकिरण खान
कई बार घोषा अपने उन छात्रों से समत्कृत होती, जो यज्ञ के हवन के लिए श्रुव सुचिक्कण बनाते. जाह्नवी के मोटे रेत को केले के थंब की कोमल छाल में सहेज श्रुव की डंडी रगड़ते. यदि वह चिकनी न हो, तो हवन करते, अर्घ देते घृत समर्पित करते हाथ में तिनके चुभ जाते हैं. उन काष्ठ समर्पित बच्चों को यह पढ़ाते अच्छा लगता है कि जब आवश्यकता हो तभी और उतनी ही मात्रा में वृक्ष की डाल काटो. ऐसे में कक्षा में डुकृकरणें का हठी रट्टू रटवाने से अच्छा लगता नयी ऋचाओं के नये श्लोक रचना-’पृथ्वी शांति वनस्पत्यै शांति:’.
घोषा सतत् नवीन रचना कर अपने छात्रों को पढ़ाती. पिता यह सब देखते सुनते गुनते. गुरु ऐसे ही हों, यह विचारते. गुरु प्रवर तो हों ही. वह समय गुरु निर्मित करने का था. तब प्रकृति तथा मानव जाति का तादात्म्य प्रबल था. ढेरो विचार नहीं पनपे थे. परंतु क्षिति जल पावक गगन समीर तथा सर्वोपरि दिनमान से संपर्क था.
घोषा के भाई बहुत साधारण प्रतिभा के थे. रटे-रटाये को समझाते अपनी ओर से कुछ जोड़ते नहीं, व्याख्या तक नहीं कर पाते. घोषा तथा भाइयों के बीच बड़ा फासला था. घोषा प्रात: काल ब्रह्मवेला में उठ कर जाह्नवी जल में स्नान करती और सूर्य को उषस् मंत्र पाठ कर अर्घ देती. उसी बेला में उसके समक्ष ऋचाओं के सुवर्ण कपाट खुलते, वह उसका अवगाहन करती. सूर्य की आलतई किरणें, जब स्वर्णिम होतीं तब जल से निकलती जलांजलि देकर घोषा.
उधर उसके भाई घोर आलसी थे. भंग की पत्तियां चबा कर सोते सूर्य की स्वर्णिम किरण उन्हें जगाती. तेजी से स्नान ध्यान कर कक्षा की ओर भागते. ऊंघते से छात्रों को पढ़ाने का स्वांग भर करते, खजूर की छड़ी फटकारते रहते.
‘क्या रे कर्मकार, तू क्या यहां बैठा है? कल ही न तुझे बारह श्रुव बनाने का आदेश प्राप्त हुआ है, बनाया?’
‘जी गुरुवर, तैयार है, यह देखिये.’ वह सामग्री बेमन से देखते.
द्रह्वयु जो घोषा से छोटा था, उस पर यज्ञ की सामग्री यथा अरणि समिधा इत्यादि लाने का भार था, वह दिन भर वन में अपनी तरह के विद्याद्रोही लोगों के साथ भटकता रहता. पिता के पूछने पर कहा कि सुगंधित धूप के लिए सरर गाछ ढूंढ़ रहा था.
कभी कहता कि गुग्गुल के लिए पात्र लगा रहा था. गुग्गुल के वृक्ष को कुल्हाड़े से क्षत कर गुग्गुल गोंद की तरह निकालने का प्रावधान था. ये सारे बहाने थे, उसके क्योंकि वह पढ़ता नहीं. घोषा का छोटा भाई असंग भी पढ़ना नहीं चाहता, वह कुंभकार के घर भोजन पात्र तथा दीप बनाना सीखता. बलपूर्वक घोषा को अपने भाइयों को अनुशासित करना पड़ता. पिता बेहद चिंतित थे कि दोनों भाई कुलपति तो क्या गुरु बनने लायक भी नहीं हुए. स्नातक तक न किया.
एक बार उन्होंने अपनी विदुषी ब्रह्मवादिनी पुत्री से विवाह की चर्चा थी. घोषा ने कहा कि- ‘नहीं पिता, मुझे विद्या ज्ञान और प्रकृति के सान्निध्य में रहना अच्छा लगता है.’- पिता उसकी उदासी को समझते थे. धीरे-धीरे अपने अंतकाल को निकट जान उन्होंने घोषा को संपूर्ण विद्वत मंडली के सामने कुलपति घोषित कर दिया. सभी साधु-साधु कर उठे. घोषा उच्च आसन पर बैठी. दोनों मूर्ख भाई भी प्रसन्न थे प्रथमत:. परंतु कुछ वरिष्ठ विद्वानों ने मन से इसे स्वीकार न किया.
स्त्री घोषा संभवत: प्रथम कुलपति थी, किसी गुरु-आश्रम की. जब तक अस्वस्थ वृद्ध पूर्व कुलपति जीवित रहे तब तक शांति रही. परंतु, असंतुष्ट मन ही मन सुलगते रहे. वे स्त्री कुलपति के साथ सहायक बन कर काम नहीं करना चाहते थे.
मैं एक बलुआ प्रस्तर खंड अपने ऊपर शिल्पी के ठंढे हाथों के स्पर्श का अनुभव कर रही हूं. शिल्पी के मन में क्या है? क्या वह ब्राह्मणों द्वारा अपदस्थ कर दी गयी प्रथम स्त्री कुलपति को आकार देंगे? पर अभी तो घोषा के संपूर्ण व्यक्तित्व की महिमा का विचार मंथन ही हो रहा है. गुरुओं तथा असंग और द्रह्ययु के क्रियाकलाप में उलझे हैं शिल्पी.मैं प्रतीक्षा करूंगी ओ मेरे निर्माणकर्ता कि कब उठाओगे छेनी.
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