संतोष से बड़ा सुख कुछ नहीं
गीता दुबे कुछ स्मृतियां मिटाये नहीं मिटतीं, वह आदिवासी युवती इस तरह मेरी स्मृतियों में रच बस गयी है कि आज तकरीबन दस वर्षों से भी ज्यादा हो गये मैं उसे भूल नहीं पायी हूं. उसकी ईमानदारी के किस्से सुनाती फिरती हूं. हमारी कॉलोनी से थोड़ी दूर चलने पर एक छोटा सा सब्जी बाजार पड़ता […]
गीता दुबे
कुछ स्मृतियां मिटाये नहीं मिटतीं, वह आदिवासी युवती इस तरह मेरी स्मृतियों में रच बस गयी है कि आज तकरीबन दस वर्षों से भी ज्यादा हो गये मैं उसे भूल नहीं पायी हूं. उसकी ईमानदारी के किस्से सुनाती फिरती हूं. हमारी कॉलोनी से थोड़ी दूर चलने पर एक छोटा सा सब्जी बाजार पड़ता है या यूं कहा जा सकता है कि सड़क के किनारे खाली मैदान में कुछ सब्जी वाले सुबह-सुबह हरी सब्जियां लेकर बैठ जाया करते हैं और दिन ढलने तक सब्जियां बेचते हैं.
मैं अक्सर सब्जी लेने वहीं जाया करती थी वहां मेरी एक खास सब्जी वाली थी जिसके यहां से ही मैं सब्जी लिया करती. सब्जी लेते समय मैं उससे बातें भी किया करती, मेरी बातों का वह बड़ा ही संक्षिप्त जवाब देती. गोल चेहरा, सांवला रंग, बड़ी-बड़ी खूबसूरत काली आंखें, हल्के से उपर उठे हुए मोतियों की तरह सफेद दांत, मध्यम कद-काठी, ज्यादातर सफेद ब्लाउज पर नीली साड़ी लपेटी हुई, उम्र पचीस- छबीस के आस-पास, गंभीर इतनी कि उससे कोई दिल्लगी करने की कोशिश भी न करता- ऐसी थी मेरी सब्जी वाली सुनयना.
मैंने कभी उससे उसका नाम नहीं पूछा और न ही उसने बताया, उसकी खूबसूरत बोलती आंखों को देख मैंने उसका नाम सुनयना रख दिया था. मैं जब उसे सुनयना कहकर पुकारती तो वह मुस्कुराती और उसके गालों पर गढ्डे पड़ जाते. एक दिन उसने कुछ झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा
“ नाई गो आमार नाम सुनयना नाई, आमार नाम जशोदा बोठे”
( नहीं जी मेरा नाम सुनयना नहीं, मेरा नाम यशोदा है)
– क्या यशोदा ! नाम तो तुम्हारा बहुत अच्छा है लेकिन मैं तुम्हें सुनयना ही पुकारा करूंगी
वह हिंदी समझ तो पाती थी लेकिन ठीक तरह बोल नहीं पाती थी, टूटी-फूटी हिंदी से ही काम चलाया करती, जब ज्यादा कुछ कहना होता तो वह अपनी भाषा में ही बोलती.
हर रोज सुनयना बस से उस मैदान के समीप गोद में अपनी डेढ़ वर्षीय बेटी को दबाये उतरती, सुनयना के बस से उतर जाने के बाद बस का खलासी सुनयना के अंधे पति को बड़ी ही सावधानी से उतारता फिर बस के ऊपर रखी सब्जी की टोकरी को उतारता.
सुनयना बच्ची को गोद में टाँगे सब्जी की टोकरी माथे पर रखती और पति को अपने कंधे का सहारा दे मैदान तक आती फिर सब्जी सजाकर रखती और अपने पास ही एक बोरा बिछा देती जिसपर उसका पति बैठ जाता, उसकी बेटी कभी बाप की गोद में तो कभी वहीं मिटटी में खेलती रहती.
पतला-दुबला नौजवान उसका पति सारा दिन बस यूं ही बैठा रहता, मुझे उसे देख बहुत तरस आती कि भगवान किसी के साथ ऐसा अन्याय न करें. वहीं कुछ दूरी पर एक ठेले वाला चाय, गुलगुले के ठेले लगाया करता था. मैंने कई बार सुनयना को ठेले वाले से गुलगुला(मीठा पकौड़ा) और चाय खरीदते हुए देखा, चाय का छोटा सा ग्लास पहले वह अपने पति को थमाती फिर खुद पीती, गुलगुला वह पति के हाथों में पकड़ा देती तो वह खुद खा लेता.
हर दिन वह अलमुनियम के एक टिफिन में भात लाती , दोपहर को भात में पानी और नमक मिलाकर पति को अपने हाथों से कौर बना खिलाती, पति के हाथ में एक हरी मिर्च थमा देती जिसे वह हरेक कौर के बाद काट लेता. पति के खाने के बाद बेटी को खिलाती, अंत में टिफिन का बचा हुआ भात खुद खाती इस दौरान यदि कोई ग्राहक आ जाता तो हाथ धो सब्जी भी तौल देती और तो और यदि कभी कभी इसी बीच बच्ची को शौच आ जाता तो वह उसे नाले की तरफ ले जाती, ऐसा सब करते मैंने उसके चेहरे पर कभी झुंझलाहट नहीं देखी. उसकी कर्तव्यनिष्ठा हमेशा मुझे प्रेरित करती. मुझसे रहा नहीं गया और एक दिन मैं उससे पूछ बैठी
– सुनयना तुमने अंधे व्यक्ति से क्यूं शादी की?
– नहीं वह अंधा नहीं था, सुनयना ने अपनी भाषा में कहा फिर उसने बताया किउसका पति कुली का काम करता था, बस के ऊपर बैठकर वह शहर काम करने जाया करता एक दिन बस के ऊपर काफी लोग हो गये थे वह किनारे बैठा था,बस चलने ही वाली थी कि वह गिर पड़ा , उसे काफी चोटें आई, बहुत दिनों तक न चल पाता था और न ही बैठ पाता था, उसी दौरान इसने अपनी आंखों की रोशनी खो दी.
डॉक्टर ने कहा कि ऑपरेशन से आंखे ठीक हो जाएंगी लेकिन बहुत पैसे लगेंगे. मैं घर पर ही रहती थी , जब से ये अंधा हो गया मैंने सब्जी बेचने का काम शुरू किया और ऑपरेशन के लिए पैसे जमा कर रही हूं.
– कहां से आती हो तुम ?
– ओई डिमना धारे आमार गांव बोठे( डिमना के पास हमारा गांव है, वही रहती हूं)
(जमशेदपुर से सटा डिमना एक पर्यटक स्थल है और उसके आस-पास छोटे छोटे गांव भी हैं)
– सब्जी क्या तुम्हारे खेत की है?
– नाइ गो खोरीद कोरी (नहीं जी खरीदती हूं)
– एक दिन में कितने पैसे का मुनाफा होता है तुम्हें
– ओई 30-40 टाका( 30-40 रुपये)
– तो इस पैसे को ऑपरेशन के लिए रख देती हो
– नहीं नहीं यह सब पैसा तो चावल, तेल, साबुन में खर्च हो जाता है , उसने अपनी भाषा में कहा
– फिर ऑपरेशन कैसे करवाओगी?
– भगवान है न वो सब करेंगे, उसने उपर देखते हुए कहा,उसने फिर अपनी भाषा में जवाब दिया
एक दिन मैंने उससे 110 रुपये की सब्जी ली और उसे पैसे देकर जाने लगी, मैंने देखा वह ऐइ गो.. ऐइ गो.. बोलती हुई तेजी से चलती हुई मेरे पीछे-पीछे चली आ रही है
– क्या हुआ सुनयना?
उसने मुझे 100 रुपये देते हुए हिंदी में कहा- तुम बेसी पैसा दिया (आपने मुझे ज्यादा पैसे दे दिए थे ) फिर उसने अपनी भाषा में मुझे समझाते हुए कहा सब्जी आपकी 110 रुपये की हुई थी और आपने मुझे 210 रुपये दिए.
दरअसल 100 रुपये के दो नोट सटे हुए थे और गलती से मैंने उसे 110 रुपये के बदले 210 रुपये दे दिए थे. सुनयना की ईमानदारी ने मेरे हृदय को छू लिया.
उसे पैसे की सख्त जरूरत थी, 100 रुपयेये उसके लिए बहुत मायने रखते थे, वह जान गयी थी कि भूलवश मैंने उसे 100 रुपये ज्यादा दे दिया था, वो चाहती तो मुझे 100 रुपये वापस नहीं भी कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. अब वह मेरी और भी प्रिय हो चुकी थी. कुछ दिनों बाद मैं फिर सब्जी लेने गयी तो सुनयना को वहां न पाकर मुझे अच्छा नहीं लगा मैंने जरुरत भर की सब्जी दूसरे सब्जी वाले से ली और वापस चली आयी. दूसरे दिन भी मैंने सुनयना को वहांं नहीं देखा, लगातार पांच-छह दिन सुनयना को वहांं न पाकर अब मैं कुछ चिंतित हो चली थी.. क्या हुआ..
सुनयना क्यों नहीं आ रही है, उसके संगी-साथी से पूछने पर भी उसके नहीं आने का कारण पता नहीं चल पाया. धीरे-धीरे मैंने उस ओर जाना छोड़ दिया. फिर एक दिन मैं किसी काम से बाहर निकल रही थी, मैंने देखा सुनयना मेरे घर की ओर चली आ रही है. वह अकेली थी उसके साथ न उसका पति था और न ही उसकी बेटी. उसे देखते ही मैंने पूछा
– क्या हुआ सुनयना..तुम कहाँ चली गई थी? क्यों नहीं आ रही थी? और तुम्हारा चेहरा इतना मुरझाया हुआ क्यूं है?
वह मेरे समक्ष आकर चुपचाप खड़ी हो गई. मैंने फिर उससे पूछा- क्या हुआ सुनयना, कुछ बोलती क्यूं नहीं? अरे कुछ तो बोलो..
उसने बड़े ही धीमे से टूटी फूटी हिंदी में कहा – मेरा आदमी डेड (मर) कर गया
– क्या!!
– हां, मेरा आदमी हमको छोड़ के चला गया
– कैसे? क्या हुआ था उसे?
-उस दिन यहाँ से जाने के बाद उसे तेज बुखार आया.. डॉक्टर के पास लेकर गई .. डॉक्टर की दवा से भी उसका बुखार कम नहीं हो रहा था .. फिर फिर दो दिन बाद सोया तो सोया ही रहा उठा नहीं..उसने अपनी भाषा में बताया
फिर उसने सहमे हुए धीरे से कहा- उसकी क्रिया- कर्म के लिए मुझे 50 रुपये दीजिए. मैंने उसे 500 रुपये थमाते हुए कहा – ये लो इसे रख लो. 500 रुपये देखते ही उसने रुपये लौटाते हुए कहा – इतना नहीं चाहिए. मुझे सिर्फ 50 रुपये ही दीजिए . मैंने उसे समझाते हुए कहा कि रख लो तुम्हारे काम आएगा .उसने फिर अपनी बात दोहराते हुए कहा – मुझे सिर्फ 50 रुपये ही चाहिए मैं यहां सभी घरों से पचास रुपयेे मांग रही हूं . मैंने उसे फिर समझाया.
– सुनयना ये 500 रुपये रख लो ये कोई बहुत ज्यादा पैसे नहीं हैं, तुम्हारे काम ही आयेंगे. लेकिन उसने लेने से इन्कार कर दिया और सिर्फ 50 रुपये लेकर चली गयी.
फिर मेरी सुनयना से मुलाकात नहीं हुई. मैं अब भी सोचती हूं कि किस मिट्टी की बनी थी वह, उस छोटी-सी मुलाकात में कितना कुछ सिखा गयी वह मुझे, वह सिखा गयी कि संतोष से बड़ा सुख कुछ नहीं. आज भी झारखंड के गांव में ऐसे सीधे-साधे आदिवासी हैं जो हमें जीने का तरीका सिखाते हैं.