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नामवर के न होने का मतलब

मंगलेश डबराल वरिष्ठ कवि-पत्रकार डॉ नामवर सिंह हिंदी के उन कुछ व्यक्तित्वों में थे, जिनके पास हिंदी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय भाषाओं के साहित्य की एक विहंगम और समग्र दृष्टि थी. इसीलिए, दूसरी भाषाओं में हिंदी के जिस व्यक्ति को सबसे पहले याद किया जाता रहा, वे नामवर सिंह ही हैं. उन्हें हिंदी का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 21, 2019 6:00 AM
मंगलेश डबराल
वरिष्ठ कवि-पत्रकार
डॉ नामवर सिंह हिंदी के उन कुछ व्यक्तित्वों में थे, जिनके पास हिंदी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय भाषाओं के साहित्य की एक विहंगम और समग्र दृष्टि थी. इसीलिए, दूसरी भाषाओं में हिंदी के जिस व्यक्ति को सबसे पहले याद किया जाता रहा, वे नामवर सिंह ही हैं.
उन्हें हिंदी का ब्रांड एम्बेसेडर कहा जा सकता है. प्रगतिशील-प्रतिबद्ध साहित्य का एजेंडा तय करने से लेकर ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक के तौर पर साहित्यिक वैचारिकता का पक्ष मजबूत करने तक और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ाने का काम, कहीं भी उनका कोई सानी नहीं था. कक्षा में उनका पढ़ाने का तरीका इतना संप्रेषणीय और प्रभावशाली होता था कि दूसरी कक्षाओं के छात्र व प्राध्यापक भी उनकी कक्षा में आकर बैठते थे.
जेएनयू से पहले वे दिल्ली के तिमारपुर इलाके के एक कमरे के घर में पाये जाते थे, जहां दीवार पर लैटिन अमेरिकी छापामार क्रांतिकारी चे ग्वारा की काली-सफेद तस्वीर लटकती दिखायी देती थी और वे एक तख्त पर किताबों से घिरे हुए किसी एकांत साधक की तरह रहा करते थे.
उस दौर का गहन अध्ययन जीवन भर उनके काम आता रहा. उनके संपादन में ‘आलोचना’ का बहुत सम्मान था और उसमें किसी की रचना का प्रकाशित होने का अर्थ होता था, ‘साहित्य में स्वीकृति की मुहर’.
जोधपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग का प्रमुख बनना नामवर सिंह के जीवन का एक अहम मोड़ था. पाठ्यक्रम में प्रगतिशील साहित्य को शामिल करने आदि कुछ मुद्दों के कारण उन्हें वहां से भी निकाल दिया गया. फिर जेएनयू में हिंदी विभाग की बुनियाद रखने का जिम्मा मिला और वे वर्षों तक उसके अध्यक्ष रहे.
उनकी किताब ‘कविता के नये प्रतिमान’ का प्रकाशन (साल 1968) किसी परिघटना से कम नहीं था, जिसने समकालीन हिंदी कविता की आलोचना में एक प्रस्थापना-परिवर्तन किया. उससे पहले तक हिंदी साहित्य में आधुनिक, छायावादोत्तर कविता को प्रगतिशील नजरिये से पढ़ने-परखने की व्यवस्थित दृष्टि का अभाव था. ये वह दौर था जब अकादमिक क्षेत्र में डॉ नगेंद्र की रस-सिद्धांतवादी मान्यताओं का बोलबाला था.
जब विश्व राजनीति में पूंजीवादी और समाजवादी ब्लॉक के बीच शीतयुद्ध का दौर चल रहा था, तो उसकी छाया से साहित्य भी अछूता नहीं रहा. हिंदी के शीतयुद्ध में एक तरफ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे, तो दूसरी तरफ प्रगतिशील साहित्य के मोर्चे की बागडोर तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद डॉ रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह के हाथों में रही. ‘कविता के नये प्रतिमान’ इसी दौर की कृति है, जिसने डॉ नगेंद्र के साथ-साथ अज्ञेय के साहित्यिक आभामंडल को ढहाने का काम किया.
हालांकि, नामवर सिंह मानते थे कि मेरा वास्तविक काम ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में है, जिसका प्रकाशन 1982 में हुआ. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘लोकमंगलवादी’ सैद्धांतिकी से अलग आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘लोकोन्मुखी क्रांतिकारी’ संस्कृति-समीक्षा की राह पर चलती इस किताब से जैसे उन्होंने अपने गुरु को श्रद्धांजलि दी थी.
नामवर सिंह व्यवहारिक आलोचना ही नहीं, कुछ व्यावहारिक विवादों के लिए भी जाने गये. कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक मंचों प्रगतिशील लेखक संघ, इंडियन पीपुल्स थिएट्रिकल एसोसिएशन (इप्टा) आदि की सांस्कृतिक गतिविधियों में हिंदी-उर्दू लेखकों-रंगकर्मियों का ऐतिहासिक योगदान था, जिसकी धमक हिंदी सिनेमा तक में सुनायी दी थी.
बाद में जब प्रगतिशील लेखक संघ में हिंदी-उर्दू के मसले पर मतभेद शुरू हुए और उर्दू लेखकों ने उपेक्षित किये जाने और उर्दू को उसका ‘वाजिब हक’ न मिलने की बहस शुरू की, तो नामवर जी ने एक लेख ‘बासी भात में खुदा का साझा’ के जरिये हिंदी का पक्ष लिया था.
नामवर सिंह आलोचना में एक और ‘परंपरा’ के लिए भी याद किये जाते हैं और वह है- ‘वाचिक’ परम्परा. द्विवेदी जी बहुत कुछ लिखने के अलावा उस ‘वाचिक’ धारा के भी समर्थक थे, जिसकी लीक कबीर, नानक, दादू आदि की यायावरी और प्रवचनों से बनी थी.
कहानी उनकी निगाह में ‘गल्प’ थी, गप्प का तत्सम रूप. नामवर जी ने भी जीवन के उत्तरार्ध में ‘वाचिक’ शैली में ही काम किया, जिसका कुछ उपहास भी हुआ. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के बाद उनकी करीब एक दर्जन किताबें आयीं जिनमें ‘आलोचक के मुख से’, ‘कहना न होगा’, ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’, ‘बात बात में बात’ आदि प्रमुख हैं, लेकिन वे ज्यादातर ‘लिखी हुई’ नहीं, ‘बोली हुई’ हैं.
पांच दशक से भी ज्यादा समय तक नामवर सिंह हिंदी साहित्य की प्रस्थापनाओं, बहसों और विवादों के केंद्र में रहे. चर्चा ‘दूसरा नामवर कौन?’ के मुद्दे पर भी हुई और कई आलोचकों-प्राध्यापकों ने नामवर जैसा बनने की कोशिश की, लेकिन उनकी तरह का दर्जा किसी को हासिल नहीं हुआ. खुद नामवर कहते थे कि ‘हर साहित्यिक दौर को अपना आलोचक पैदा करना होता है. मैं जिस पीढी का आलोचक हूं, उसके बाद की पीढी का आलोचक नहीं हो सकता.’
यह भी उन्हीं की खूबी थी कि वे अपने समझौतों को एक वैचारिक औचित्य दे सकते थे.उनसे प्रभावित कई लोगों को मलाल रहा कि वे एक खुद एक सत्ताधारी, ताकतवर प्रतिष्ठान बन गये और आजीवन हिंदुत्ववादी संघ परिवार का तीखा विरोध करने के बावजूद उसके द्वारा संचालित संस्थाओं से दूरी नहीं रख पाये. जिन आलोचकों ने उनसे अलग राह पर चलने, उनकी परंपरा से हटकर चलने की कोशिश की और आलोचना को व्यावहारिकता से कुछ हटकर गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की कोशिश की, वे कुछ हद तक कामयाब रहे.
हां, ‘नामवर के होने का अर्थ’ पर काफी विचार किया गया है और अब उनके विदा लेने के बाद शायद ‘नामवर के न होने का अर्थ’ पर उतने ही गंभीर विचार की दरकार होगी.

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