स्मृतिशेष : साहित्य नामवर का प्राथमिक स्वभाव था

उमड़ पड़ते नयन निर्धन 28 जुलाई, 1926-19 फरवरी, 2019 आधुनिक हिंदी आलोचना के पितामह नामवर सिंह नहीं रहे. अतुलनीय मेधा और विद्वता का स्तंभ माने जाने वाले नामवर सिंह की पकड़ संपूर्ण भारतीय साहित्य पर थी. वे प्रखर वक्ता थे और उनके चाहने वाले देश-दुिनया के व्यापक समाज से आते थे. नामवर जी का जीवन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 21, 2019 6:04 AM
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उमड़ पड़ते नयन निर्धन
28 जुलाई, 1926-19 फरवरी, 2019
आधुनिक हिंदी आलोचना के पितामह नामवर सिंह नहीं रहे. अतुलनीय मेधा और विद्वता का स्तंभ माने जाने वाले नामवर सिंह की पकड़ संपूर्ण भारतीय साहित्य पर थी. वे प्रखर वक्ता थे और उनके चाहने वाले देश-दुिनया के व्यापक समाज से आते थे. नामवर जी का जीवन आलोचना व वैचारिक संघर्षों की उर्वर भूमि था. अब उनके निधन से हिंदी के ‘ठेठपन का ठाठ’ नहीं रहा और समय-समाज-साहित्य में एक बड़ा शून्य पैदा हो गया है. नामवर सिंह को हमारी श्रद्धांजलि..
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
डॉ नामवर सिंह जी साहित्य में, समाज में, संस्कृति में और राजनीति में एक समृद्ध विचार के लिए जाने जाते रहे हैं. देश का कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है और देश का कोई हिस्सा नहीं है, जहां डॉ नामवर सिंह को जाननेवाले, माननेवाले और आदर करनेवाले मौजूद न हों.
साहित्य के साथ ही साहित्येतर समाज में भी ऐसे लोग हैं, जो उन्हें अपना मानते थे और उनसे बहुत प्रेम करते थे. नामवर जी की यह विशेषता कहिए कि मित्र बनाने में उनकी रुचि हमेशा रही. और जिनको भी वे मित्र मानते थे, पूरे मन से मानते थे. ऐसे में, मैं तो यही कहूंगा कि हमने अपना परम मित्र खो दिया है.
डॉ नामवर सिंह को मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुराने छात्र के रूप में जानता था. बनारस का रहनेवाले के रूप में जानता था. और हां, उन्हें एक बड़े साहित्यकार के रूप में तो जानता ही था, इस रूप में ज्यादा जानता था कि वे हम सबके प्रिय थे. वरिष्ठ पत्रकार रहे प्रभाष जोशी के भी वे मित्र थे और हमारे आग्रह पर ही प्रभाष परंपरा न्यास के वे अध्यक्ष बने थे. यह हमारे लिए गौरव की बात थी. उनका हमारे बीच न होना, सचमुच हम सबको भीतर तक दुखी कर गया है.
आज नामवर जी हमारे बीच नहीं हैं. हमने यह तय किया है कि उनकी स्मृति में उनके जन्मदिन पर हर साल हम एक स्मारक व्याख्यान करेंगे.
एक जरूरी बात यह भी है कि नामवर जी की इच्छा थी कि उनके गुरु डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य-रचना का संग्रह जिस तरह से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) में रखा गया है, ठीक उसी तरह से उनका भी संग्रह रखा जाये. हमने उनकी इच्छा का आदर किया और फौरन उनकी बात मान ली.
दरअसल, हम सब भी चाहते थे कि ऐसा हो. इसलिए हमने यह सुनिश्चित कर दिया है कि आईजीएनसीए के कला निधि प्रभाग में एक खंड में उनका संग्रह रखा जायेगा. साथ ही, उनकी स्मृति को बनाये रखने के लिए हर साल उनके जन्मदिन पर हम यहां कार्यक्रम भी करेंगे.
जिस फ्लैट में वे रहते थे, वहां हजारों किताबें थीं और यह समझकर कि उन किताबों से ही उनको प्राणवायु मिलती है, ऊर्जा मिलती है, हम-सबने उन किताबों को यथावत रहने दिया था. जैसा वे चाहते थे, उनकी इच्छानुरूप अब उन सभी किताबों को आईजीएनसीए में लाकर रखा जायेगा. उनकी अनेक स्मृतियों से भरी किताबें भी उनमें मौजूद हैं.
नामवर जी से करीब साढ़े तीन दशक से मेरा मिलना-जुलना रहा था. उनका स्नेह मेरे ऊपर हमेशा बना रहा. हम जब कभी भी उनके घर जाते थे, तो देखते थे कि जहां वे बैठते थे, ठीक उनके सिर के ऊपर दीवार पर डॉ हजारी प्रसाद की एक तस्वीर लगी रहती थी. यह गुरु-शिष्य परंपरा का बेहतरीन उदाहरण है. हिंदी साहित्य जगत उनका हमेशा ऋणी रहेगा.
क्योंकि साहित्य उनका प्राथमिक स्वभाव था, लेकिन वे समाज की चिंता में भी रत रहते थे. राजनीति की प्रवृत्तियों से और देश की दशा-दुर्दशा से हमेशा परेशान रहते थे. इसके साथ ही, इन सब चीजों के बीच कुछ बेहतर करने की न सिर्फ अपनी भूमिका खोजते थे, बल्कि हर भूमिका को निभाते भी थे. ऐसा व्यक्ति, जो गुरु-शिष्य परंपरा में विश्वास रखता है, उस व्यक्ति यानी डॉ नामवर सिंह के शिष्यों की अब जिम्मेदारी है कि उनकी परंपरा को आगे बढ़ायें.
नामवर सिंह
जन्म : 28 जुलाई, 1926, जीयनपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश).
शिक्षा : एमए एवं पीएचडी (हिंदी में), काशी हिंदू विश्वविद्यालय.
शिक्षण कार्य : काशी हिंदू विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय.
संपादन : जनयुग (साप्ताहिक, 1965-67), आलोचना (त्रैमासिक, 1967-1990).
पुस्तकें : बकलम खुद (1951), हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान (1952), आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां (1954), छायावाद (1955), पृथ्वीराज रासो की भाषा (1956), इतिहास और आलोचना (1957), कहानी : नयी कहानी (1964), कविता के नये प्रतिमान (1968), दूसरी परंपरा की खोज (1982), वाद विवाद संवाद (1989), आलोचना के मुख से (2005), काशी के नाम (2006), कविता की जमीन और जमीन की कविता (2010), हिंदी का गद्यपर्व (2010), सम्मुख (2012), साथ-साथ (2012), पूर्वरंग (2018), द्वाभा (2018).
सम्मान और पुरस्कार : साहित्य अकादमी पुरस्कार (1971, कविता के नये प्रतिमान के लिए), हिंदी अकादमी, दिल्ली का ‘शलाका सम्मान’ (1991), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’ (1993), दिल्ली कर्नाटक संघ का कुवेंपु राष्ट्रीय पुरस्कार (2015).
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