अधूरे रह गये शानदार घर वापसी के सपने
नेह अर्जुन इंदवार वन-पहाड़ों से अच्छादित गांव-खोईर से दूर असम-बंगाल के चाय बागानों में झुंड के झुंड आदिवासी लाखों की संख्या में ‘शानदार वापसी’ करने के सपनों के साथ गये, लेकिन अनगिनत प्रतिकूल थपेड़ों की मजबूरी ने उनकी ‘शानदार वापसी’ के सपनों को चकनाचूर कर दिया और वे वहीं रच-बस गये. हजारों कारण और प्रतिकूल […]
नेह अर्जुन इंदवार
वन-पहाड़ों से अच्छादित गांव-खोईर से दूर असम-बंगाल के चाय बागानों में झुंड के झुंड आदिवासी लाखों की संख्या में ‘शानदार वापसी’ करने के सपनों के साथ गये, लेकिन अनगिनत प्रतिकूल थपेड़ों की मजबूरी ने उनकी ‘शानदार वापसी’ के सपनों को चकनाचूर कर दिया और वे वहीं रच-बस गये. हजारों कारण और प्रतिकूल परिस्थितियों के पहाड़ रहे, जिनसे गरीब-अनपढ़ आदिवासी पार नहीं पा सके और वे आज चाय आदिवासी के संज्ञा के साथ असमिया बनने के लिए अभिशप्त हैं.
लाखों की संख्या में झारखंड के आदिवासी ईंट भट्ठे या ऐसे दूसरे कार्यों के लिए भारत के अन्य राज्यों, शहरों और महानगरों में भी गये और वहीं खो गये, वहीं बस गये. कुछ परिवारों का आज भी थोड़ा-बहुत संबंध अपने गांव से बने हुअा है, लेकिन अधिकतर के संबंध नयी पीढ़ियों के अजनबी भावों और भावनाओं में खो गये.
मुंबई के एक उपनगर में रहने वाले एक्का और किंडो परिवार की कहानी डिग्बोई के पास माकुम चाय बागान में रहने वाले टोप्पनो परिवार से अलग नहीं है.
किंडो परिवार के मुखिया जलपाईगुड़ी के किसी चाय बागान से जुड़े थे. तीन बेटियों और एक बेटा के परिवार में वह सबसे छोटे थे. बागान के हिंदी प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने पास के एक बंगला माध्यम स्कूल में दसवीं क्लास तक की शिक्षा प्राप्त की.
दसवीं की बोर्ड परीक्षा में तीन बार फेल होने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. चाय बागान में मिलने वाली मजदूरी में भी उनका मन नहीं लगा और एक दिन वह ट्रेन पकड़ कर मुंबई शहर के लिए निकल गये. मुंबई में रात को स्टेशन पर सोने और दिन में काम की खोज करते-करते एक होटल में काम मिल गया. होटल में ही जिंदगी गुजर रही थी. फिर एक गोवा मूल की लड़की से मुलाकात हुई. दोस्ती हुई और फिर शादी भी हुई.
झोपड़पट्टी में रहते-रहते दो बच्चे भी हुए. गोवा आना-जाना हुआ, लेकिन कभी जलपाईगुड़ी जाना नहीं हुआ. हमेशा सोचते कि पर्याप्त पैसे हो लाएं, तो हमेशा के लिए मुंबई छोड़ कर जलपाईगुड़ी के बागान या बस्ती में बस जायेंगे, मगर इतने पैसे कभी नहीं हुए कि वह अपने मां-पिता के पास शानदार घर-वापसी कर सकते. पैसे बचा कर शानदार वापसी के ख्वाबों में दस-बारह वर्ष निकल गये और एक दिन गोवा में आखिरी सांस ली.
पहाड़-सा दुख लिये गोवानीज बीवी गोवा में बच्चों को पाला-पोसा. बच्चे गोवानीज भाषा और संस्कृति में ढल-बस गये. जिंदगी ने कभी भी उन्हें जलपाईगुड़ी चाय जिंदगी से रूबरू नहीं कराया. वजह थी कि परिवार के मुखिया ने कभी अपने मां-बाप से नहीं मिलाया और न ही मां-बाप को अपने बीवी-बच्चों के बारे में बताया. बच्चे बड़े होकर मां के साथ मुंबई आ गये. वे चाह कर भी अपने दादा-दादी और पिता के बाकी के रिश्तेदारों को ढूंढ नहीं पाये. उनके पास पिता का सिर्फ गोत्र बचा हुआ था.
एक दिन मेरे छोटे भाई ने अपनी कंपनी में किंडो गोत्र सुन कर उनसे परिचय पूछा, तो सिर्फ इतना ही बता पाये कि उनके पिता जलपाईगुड़ी के किसी गांव से मुंबई आये थे. बातचीत में अपने परिवार से बिछुड़ जाने का गम था. अपने रिश्तेदारों से मिलने की चाहत भी थी. अब वे गोवानिज होकर मुंबईकर भी बन गये हैं.
एक वाकया और. आजादी की लड़ाई चल रही थी. टाना भगत आंदोलन की कुछ याद लिये एक किशोर 1930-35 के आसपास रांची जिले के नवाटोली गांव से डिब्रुगढ़ जिले के डिग्बोई के पास माकुम चाय बागान में मजदूर बन कर काम करने लगा.
कई वर्षों से ठीक से बारिश नहीं हुई थी और गांव में भुखमरी की स्थिति आ गयी थी. गांव में उसके खेत ऊंची जगह पर थे. वह खेत के पास कूप बना कर एक बड़ा घर बनाना चाहता था. वह चाय बागान में मजदूरी करने के साथ-साथ बकरी और गाय-बैल पालने लगा. सात-आठ साल बाद सारे गाय-बैल-बकरियों के बेच कर अपने गांव लौट आया.
गांव में पिताजी ने उसके छोटे भाई की शादी कर दी थी. उसने बचत के अपने सारे पैसे लगा कर गांव में कुआं बनाया, नया मकान बनाया और गांव के पास ही कुछ खेत खरीद लिये.
उसने वहीं शादी करके गांव में बसने के सपने भी देख लिया था, लेकिन सालभर में ही छोटे भाई के साथ संपत्ति के स्वामित्व पर विवाद हो गया. छोटे भाई ने उस पर हाथ भी उठाया. वह बहुत दुखी हो गया और घर वालों से उसका मोह टूट गया. अजनबी बन कर एक ही घर में रहना असंभव हो गया.
दुख और नाराजगी में वह एक बार फिर असम लौट गया. उसने वहीं घर-बार बसा लिया. अभी बच्चे छोटे ही थे. चाहत थी कि उन्हें अपने देस-गांव ले जाए औनर उन्हें उनके दादा-दादी और गांव वालों से मिला दे, लेकिन जिंदगी को यह कबूल नहीं था.
वह असम में ही मलेरिया का शिकार हो गया और एक दिन चल बसा. दो अबोध बच्चे थे. पत्नी को भी पति के देश, वहां की दुनिया और उनके परिवार के बारे कुछ मालूम नहीं था. पति के चले जाने पर पत्नी ने किसी और के साथ घर बसा ली. बच्चे सौतेले बाप के घर में शिक्षित हुए. बड़ा भाई कंपनी के एक बागान में क्लर्क बन गया और दूसरा किसी स्कूल में शिक्षक.
एक दिन दोनों सप्ताह भर की छुट्टी में अपने पैतृक गांव जाने के लिए रांची आए. पता चला नवाटोली नाम के तो कई गांव हैं. वे नवाटोली नाम के एक-दो गांवों भी गये, मगर अपने पिता के परिवार को तलाश नहीं से.
नौ-दस दशकों में तीन पीढियां गुजर गयीं. बीस-पच्चीस वर्ष पहले के लोगों के बारे तो किसी को कुछ पता नहीं रहता है, यहां तो अस्सी-नब्बे वर्ष पहले की बात थी. किसी को उनके बारे कुछ भी मालूम नहीं था.
झारखंड के कितने नवाटोली में वे गये. कब तक अंतहीन तलाश हो जारी रचा पाते. अंत: दोनों बहुत मायूस हो कर असम लौट गये. अब असम ही उनका देश है. झारखंड से उनका कोई रिश्ता बचा नहीं. यह उन दो भाइयों की दास्तां नहीं, बल्कि असम और बंगाल के चाय बागानों और अंडमान निकोबार में रहने वाले करीब एक करोड़ आदिवासियों की कहानी है. वे सिर्फ इतना जानते हैं कि कभी उनके पुरखे रांची, लोहरदगा, दुमका, जमशेपुर से काम की खोज में आये थे, लेकिन उनकी ‘शानदार गांव वापसी की इच्छा’ वहीं दफन हो गयी.
वे कभी जिंदगी के शानदार दौर का हिस्सा नहीं बन सके और न ही कभी अपने गांव लौट पाये. अलबत्ता, उनकी संतानें भी उनकी इस ख्वाहिश को पूरी नहीं सकीं, बल्कि पिता के देश, पिता के रिश्तेदार, पिता के गांव की तलाश की असफल कोशिशों तक सिमट कर रही गयीं. शानदार गांव वापसी के सपना उन्हें अपने ही घर-गांव से इतने दूर ले गये कि वे कभी लौट कर नहीं आ सके. इस पीड़ा का कोई हल नहीं, कोई पूर्ण विराम भी तो नहीं.