दुनिया की एक-तिहाई आबादी को मयस्सर नहीं साफ पानी
हिमांशु ठक्कर पर्यावरणविद् पीने के साफ पानी का मुख्य स्रोत भूजल है. इसलिए हमारी सारी कोशिशें इस बात की होनी चाहिए कि भूजल का अच्छी तरह से संरक्षण हो, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी िमल सके. दुख की बात यह है कि हमने भूजल स्तर को बनाये रखने की कोशिश […]
हिमांशु ठक्कर
पर्यावरणविद्
पीने के साफ पानी का मुख्य स्रोत भूजल है. इसलिए हमारी सारी कोशिशें इस बात की होनी चाहिए कि भूजल का अच्छी तरह से संरक्षण हो, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी िमल सके.
दुख की बात यह है कि हमने भूजल स्तर को बनाये रखने की कोशिश नहीं की, जिसका खामियाजा यह हुआ कि बीते तीस-चालीस साल में भूजल स्तर लगातार नीचे होता गया है. साथ ही, भूजल की गुणवत्ता भी बिगड़ती गयी है और इसकी पहुंच भी लोगों में कम होती जा रही है. भूजल का मुख्य स्रोत बारिश का पानी है. बारिश का पानी सीधे भूमि में नहीं पहुंचता है, माध्यम के जरिये पहुंचता है.
जहां-जहां भी जंगल होगा, वहां-वहां जमीन के पानी सोखने की क्षमता अधिक होगी और वहां भूजल स्तर ऊंचा होगा. यह सर्वज्ञात तथ्य है कि जंगल के पास बहती नदी सदानीरा होती है. जहां जंगल कटा, सदानीरा खत्म. जल-जंगल का यह विज्ञान है. नदी और भूजल का आपस में पारस्परिक संबंध है और किसी एक के सूखने से दूसरे का प्रभावित होना तय है. कुछ क्षेत्रों की नदी भूजल को रिचार्ज करती है और कुछ क्षेत्रों की नदी भूजल के डिस्चार्ज से बनती है.
भूजल के इस तरह बनने को ही हमारी सरकारें अनदेखी करती हैं. इस अनदेखी से ही भूजल के रिचार्ज होने की पूरी प्रणाली बिगड़ गयी है. यही वह सबसे बड़ी समस्या है, जिससे कि हमारा भूजल स्तर लगातार नीचे होता चला जा रहा है. जहां पर नमभूमि है, वहां भी बारिश का पानी भूमि में संरक्षित हो जाता है. जिन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर तालाब, पोखर, जोहड़, फॉर्म पांड्स या पारंपरिक जलस्रोत हैं, उन क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊंचा बना रहता है.
ज्यादा दोहन, ज्यादा बड़ा संकट
प्रदूषण को नियंत्रित करने का हमारा ट्रैक रिकॉर्ड बहुत ही खराब है. प्रदूषण का असर भी भूजल पर पड़ता है, इसको लोग समझते नहीं हैं. अगर नदी प्रदूषित होगी, तो उससे जो भूजल रिचार्ज होगा, वह गंदा होगा.
नदियों और तालाबों में सीवेज के पानी से पैदा हुए जल प्रदूषण से भूजल स्तर बिगड़ रहा है. सरकारें इस प्रदूषण को नियंत्रित करने में नाकाम रही हैं. किसी भी तरह के प्रदूषण को बढ़ावा देना एक प्रकार का अपराध है, क्योंकि इससे लोगों की सेहत और फिर जिंदगी का नुकसान होता है. हमारी जियोलॉजी भी भूजल को प्रभावित करती है. जियोलॉजी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे तत्व हैं. भूजल का स्तर जब नीचे जाता है और जब ऑक्सीडेशन होता है, तब ये तत्व पानी में घुल जाते हैं.
इसी कारण पूर्वी भारत और बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर आर्सेनिकयुक्त पानी मिलने लगा है. जाहिर है, भूजल के स्तर का निम्नतम होने का यह खतरा है. भूजल का दोहन और उपयोग जिस तरह बेतहाशा बढ़ रहा है, वह बड़ा जल-संकट पैदा करने के लिए काफी है. भूजल का रिचार्ज कम हो रहा है, लेकिन उसका दोहन बढ़ रहा है, जिसका खामियाजा यह होगा कि कुछ समय बाद भूजल खत्म हो जायेगा और लोग साफ पानी के लिए तरस जायेंगे.
देश का जलतंत्र बेहाल
इसी साल सीएजी की रिपोर्ट आयी है कि देशभर में जो ग्रामीण क्षेत्रों में भूजल और पीने का पानी है, उसकी हालत बहुत खराब है. रिपोर्ट कहती है कि पिछले पांच साल में 82 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद लोगों को साफ पानी मुहैया नहीं किया जा सका है. भूजल और साफ पानी के मुद्दे पर हमारी सरकार नाकामयाब रही है, लेकिन यह हमारे लिए कोई बड़ी खबर नहीं बनी. देशभर में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, लगातार बढ़ रहे शहरी क्षेत्रों के लिए, उद्योगों के लिए और कृषि के लिए, इन सबके लिए पानी की भारी मात्रा में जरूरत है, जो भूजल दोहन से पूरा किया जाता है. यह जरूरत बढ़ती ही जा रही है, लेकिन हमारी सरकारें इस मुद्दे पर सक्रिय नहीं हैं.
इसका मुख्य कारण यही है कि भूजल का संरक्षण पॉलिटिकल इकोनॉमी (राजनीतिक धन) का मामला है. देश के जलतंत्र को केंद्रीय जल आयोग और जल संसाधन मंत्रालय नियंत्रित करते हैं. इन दोनों बड़ी संस्थाओं का ध्यान बड़ी योजनाओं पर होता है. बड़े-बड़े बांध या फिर रीवर लिंकिंग जैसी बड़ी परियोजनाओं पर ही ये संस्थाएं काम करती हैं, जिसमें बड़े पैमाने पर पैसे का आवंटन होता है.
वहीं भूंजल नियंत्रण के लिए ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी क्षेत्रीय-स्तर की योजनाएं बनानी होंगी, जिसमें बड़ी धनराशि का आवंटन संभव नहीं है. यानी छोटी-छोटी योजनाओं के लिए थोड़ी-थोड़ी राशि की जरूरत पड़ेगी, जिसमें से भ्रष्ट लोगों के पास बड़ी राशि का रिसाव नहीं जायेगा. जाहिर है, जितनी बड़ी परियोजना, उतना बड़ा मुनाफा. हमारे देश के जलतंत्र पर यही माइंडसेट हावी है, जिसकी वजह से भूजल के नियंत्रण से संबंधित सभी समस्याओं की तरफ ध्यान ही नहीं जाता है.
समाज और पारंपरिक जलस्रोत
बारिश के पानी का हम सिर्फ छह प्रतिशत ही संरक्षण कर पाते हैं. जिस मिट्टी में पानी सोखने की ताकत जितनी ज्यादा होगी, वहां भूजल का स्तर उतना ही बेहतर होगा. इसलिए जरूरी है कि मिट्टी की सोखने की क्षमता बढ़ायी जाये. यह सब शोध का विषय है. दूसरी बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जो तालाब, पोखर, जोहड़ आदि जल स्रोत हैं, उनको रिचार्ज करने की जरूरत है. यह काम गांव के लोग ही कर सकते हैं.
भारत में ब्रिटिश शासन से पहले ग्रामीण समाज को लगता था कि तालाब, पोखर, जोहड़ की देखभाल और इन्हें बचाने का काम उसका है. देश में जब ब्रिटिश सत्ता कायम हुई, तो अंग्रेजों ने कहा कि तालाब, पोखर, जोहड़ की जिम्मेदारी सरकार की है, ग्रामीण समाज की नहीं. यहीं से खेल बदला. आजादी के बाद हमारी सरकारों ने भी यही किया और समाज से उनके स्थानीय जलस्रोत छीन लिये. इसका नतीजा सामने है- आज पोखर-तालाब ही नहीं, तमाम छोटी-बड़ी नदियां-नहरें भी प्रदूषित होती चली जाती हैं. ग्रामीण समाज और पारंपरिक जलस्रोतों को जोड़ने की जरूरत है.
नदियों का हो गवर्नेंस
नदियों को साफ करने के लिए बड़ी-बड़ी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हम कर रहे हैं, खूब पैसा लगा रहे हैं, लेकिन उससे नदी साफ होगी कि नहीं, इस ओर हमारा ध्यान नहीं है. दरअसल, नदी साफ करने के लिए बड़ी टेक्नोलॉजी के साथ-साथ गवर्नेंस का होना जरूरी है, जो फिलहाल नहीं है.
हमारे देश में नदियों को लेकर कोई गवर्नेंस ही नहीं है, सिर्फ योजनाओं, पानी और इन्फ्रास्ट्रक्चर का गवर्नेंस होता है. देश में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड है, स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड है, ब्यूरोक्रेसी है, इन्फ्रास्ट्रक्चर है, लेबोरेट्रीज हैं, कानूनी शक्तियां हैं, लेकिन इन सबके बावजूद हमारे पास प्रदूषण से नियंत्रण की एक भी सक्सेस स्टोरी नहीं है. क्योंकि गवर्नेंस जीरो है. गवर्नेंस का अर्थ है पूरे जलतंत्र का विकेंद्रीकरण कर उसको ग्रामीण समाज से जोड़ना. तभी संभव है कि नदियां साफ होंगी और लोगों को पीने का साफ पानी मिल सकेगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
वर्ष 2040 तक दुनिया के 33 देशों में जल संकट के बहुत अधिक गहराने की संभावना है. इनमें मध्य-पूर्व के 15 देश, ज्यादातर उत्तरी अफ्रीकी देश, पाकिस्तान, तुर्की, अफगानिस्तान और स्पेन शामिल हैं. इसके अलावा, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया को भी पानी के लिए गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है.
देश के जलाशय
हमारे देश में 91 महत्वपूर्ण जलाशय हैं, जिनकी निगरानी केंद्रीय जल आयोग करता है. ये जलाशय उत्तरी (हिमाचल प्रदेश, पंजाब और राजस्थान), पूर्वी (झारखंड, ओडिशा, त्रिपुरा व पश्चिम बंगाल), पश्चिमी (गुजरात और महाराष्ट्र), मध्य (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) और दक्षिणी क्षेत्र (कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल) क्षेत्र में विभाजित हैं. इनमें उत्तरी क्षेत्र में छह, पूर्वी क्षेत्र में 15, पश्चिमी क्षेत्र में 27, मध्य क्षेत्र में 12 और दक्षिण क्षेत्र में 31 जलाशय हैं.स्रोत : केंद्रीय जल आयोग
भारत में जल संकट गहराने के आसार
स्वच्छ जल की उपलब्धता दिनों-दिन चुनौती बनती जा रही है. एक रिपोर्ट के माध्यम से भारत को चेतावनी दी गई है कि यदि भूजल का दोहन नहीं रूका तो देश को बड़े जल संकट का सामना करना पड़ सकता है.
हमारे देश में आज 75 फीसदी घरों में पीने के साफ पानी की पहुंच ही नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि 1951 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता जहां 5177 घन मीटर थी, वह वर्ष 2025 तक घटकर 1341 घन मीटर हो जायेगी. कुओं में पहले 15 से 20 फीट पर पानी उपलब्ध था, वह भी अब घटकर 200 फीट से नीचे चला गया है. इतना ही नहीं, देश की 275 नदियों में पानी तेजी से खत्म हो रहा है.
मानक से अधिक भारी धातु हैं 42 नदियों में
बीत वर्ष केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने ग्रीष्म, शरद व मॉनसून के दौरान देश की 16 नदियों के नमूनों का अध्ययन किया था. इस अध्ययन में देश की 42 नदियां में विषैले भारी धातुओं (शीशा, निकेल, लौह, तांबा, क्रोमियम, कैडमियम) की संख्या मानक से अधिक पायी गयी. जबकि गंगा में पांच भारी धातु क्रोमियम, तांबा, निकेल, शीशा व लौह और अर्कावती, ऑरसैंग, राप्ती, साबरमती, सरयू व वैतरणा में चार भारी धातु मानक से कहीं अधिक मात्रा में पाये गये.
भारत में बढ़ रहा है नदियों में प्रदूषण
पिछले वर्ष सितंबर में नदियों के मूल्यांकन के आधार पर आयी सीपीसीबी की रिपोर्ट कहती है कि बीते दो वर्षों में प्रदूषित नदियों की संख्या घटने की बजाय बढ़ गयी है.
302 से बढ़कर 351 हो गयी है प्रदूषित नदियों की संख्या.
34 से बढ़कर 45 हो गयी है गंभीर रूप से प्रदूषित नदियाें की संख्या.
351 प्रदूषित नदियों में 117 महाराष्ट्र (53), असम (44) तथा गुजरात (20) में हैं. यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि महाराष्ट्र, असम तथा गुजरात की नदियों की तुलना में बिहार और उत्तर प्रदेश के कई नदी खंड कम प्रदूषित हैं.
गंगा का हाल
बीते दिसंबर गंगा के हाल पर बायलॉजिकल वाटर क्वाॅलिटी एसेसमेंट (2017-18) की आयी रिपोर्ट (जिसे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने सार्वजनिक किया था) की मानें, तो पिछले वर्ष मॉनसून पूर्व की अवधि (प्री-मॉनसून सीजन) में गंगा के बहने के 41 स्थानों में से 37 स्थानों पर इस नदी का जल मध्यम से गंभीर रूप से प्रदूषित पाया गया.
प्री-मॉनसून के दौरान इन 41 में से महज चार स्थानों पर ही नदी जल या तो स्वच्छ था या हल्का प्रदूषित था. वहीं मॉनसून बाद की अवधि में 39 में से केवल एक स्थान पर (केवल हरिद्वार में) गंगा का पानी स्वच्छ था. गंगा नदी की मुख्यधारा में, हालांकि एक भी स्थान गंभीर रूप से प्रदूषित नहीं था, लेकिन अधिकांश स्थानों पर प्रदूषण का स्तर मध्यम था. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश की दो मुख्य सहायक नदियां पांडु और वरुणा नदी गंगा में प्रदूष्रण के स्तर को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं.
कचरा व सीवेज से होता है नदियों में प्रदूषण
बीते वर्ष दिसंबर में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री महेश शर्मा ने सीपीसीबी की सितंबर 2018 में आयी रिपोर्ट के हवाले से लोकसभा में बताया था कि 351 नदी क्षेत्रों में से 323 क्षेत्रों के प्रदूषण का मुख्य कारण अशोधित और आंशिक रूप से शोधित कचरा व सीवेज (मल, गंदा पानी, नाले का पानी आदि) हैं.
गंगा में गिरते हैं 97 में से 66 शहरों के नाले
गंगा किनारे बसे 97 में से 66 शहर ऐसे हैं, जिनका कम-से-कम एक नाला गंगा में गिरता है. इनमें से 31 शहर पश्चिम बंगाल के हैं.
गंगा किनारे बसे महज 19 शहरों में ही शहर के भीतर म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट प्लांट बने हुए हैं, जबकि 33 शहरों में कम से कम एक घाट पर सॉलिड वेस्ट यानी ठोस कचरा तैरता हुआ पाया गया.
प्रयागराज, रामनगर, वाराणसी व कानपुर सहित उत्तर प्रदेश के 13 और हरिद्वार व ऋषिकेश सहित उत्तराखंड के 10 शहरों के नाले सीधे गंगा में गिरते हैं.
बिहार के 17 और पश्चिम बंगाल के 34 शहरों में डंपिंग साइट घाट के करीब बने हैं.
स्रोत : क्वाॅलिटी काउंसिल ऑफ इंडिया, शहरी विकास मंत्रालय
विश्व जल दिवस रिपोर्ट की मुख्य बातें
विश्वभर में 2.1 अरब लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है.
चार में से एक प्राइमरी स्कूल में पीने का साफ पानी नहीं है, जिस कारण बच्चे गंदा पानी पीने को मजबूर हैं या फिर उन्हें प्यासा रहना पड़ता है.
गंदे पानी और स्वच्छता की कमी की वजह से प्रति दिन पांच वर्ष से कम उम्र के 700 से अधिक बच्चों की मृत्यु डायरिया से हो जाती है.
वैश्विक स्तर पर गंदा पानी इस्तेमाल करनेवाले लाेगों में 80 प्रतिशत गांव में निवास करते हैं.
10 में आठ वैसे घरों में जहां घर के भीतर पानी की सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहां पानी संग्रह करने की जिम्मेदारी महिलाओं और लड़कियों पर है.
दुनियाभर में जबरन विस्थापित कर दिये गये 68.5 मिलियन (6.85 करोड़) लोगों के लिए साफ पानी तक पहुंचना बेहद मुश्किल भरा है.
विश्व के 15.9 करोड़ लोगों के पीने के पानी का मुख्य स्रोत तालाब व धारा (नदी) हैं.
वैश्विक स्तर पर, समाज द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट जल का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा उपचार या पुन: उपयोग के बिना ही पर्यावरण में वापस आ जाता है.
वर्तमान में, वैश्विक जल निकासी के 70 प्रतिशत हिस्से के लिए कृषि उत्तरदायी है, जिसमें ज्यादातर निकासी सिंचाई के लिए की जाती है. वहीं कुल जल का 20 प्रतिशत उद्योग के लिए और 10 प्रतिशत घरेलू उपयोग में लाया जाता है, इनमें पीने के पानी के इस्तेमाल का औसत एक प्रतिशत से भी कम है.
चार अरब के करीब जनसंख्या यानी विश्व के दो तिहाई आबादी को प्रति वर्ष कम-से-कम एक महीने के लिए गंभीर पानी की कमी का सामना करना पड़ता है. वर्ष 2050 तक यह संख्या बढ़कर पांच अरब तक पहुंच जाने की संभावना है.
साल 2030 तक 70 करोड़ लोगों को पानी की गंभीर कमी के कारण विस्थापित होना पड़ सकता है.
वर्ष 2050 तक, विश्व की आबादी में दो अरब लोग और जुड़ेंगे और उस समय आज की तुलना में पानी की मांग 30 प्रतिशत अधिक होगी.
धनी लोगों को प्राय: जल, स्वच्छता और सफाई सेवा के लिए कम कीमत चुकानी पड़ती है, जबकि गरीब लोगों को उसी स्तर या उससे कम गुणवत्ता वाली सेवा के लिए अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं.
ये फसलें करती हैं ज्यादा पानी की खपत
गेहूं 22 प्रतिशत भूजल के नीचे जाने के लिए जिम्मेदार है.
कुल वैश्विक सिंचाई के 40 प्रतिशत के लिए और 17 प्रतिशत वैश्विक भूजल के
नीचे जाने के लिए चावल उत्तरदायी है.
कपास के लिए काफी पानी की जरूरत होती है. एक पाउंड कपास की उपज व उत्पादन के लिए भारत में 12,000 गैलन पानी खर्च (वाटर फूटप्रिंट) होता है. जबकि पाकिस्तान में औसतन 5,000 गैलन व अमेरिका में 4,200 गैलन पानी खर्च होता है.
एवोकाडो के प्रति पाउंड के लिए अनुमानत: 238 गैलन पानी का उपभोग होता है.
एस्परेगस यानी शतावरी के लिए भी काफी पानी की जरूरत होती है. एक किलोग्राम शतावरी के लिए वैश्विक स्तर पर 2,150 लीटर पानी खर्च होता है.
निर्यात के लिए फूलों का उत्पादन व इसकी सिंचाई के लिए बहुत अधिक पानी का इस्तेमाल होता है. जलवायु परिवर्तन और बागवानी के लिए बड़े पैमाने पर सिंचाई करने से इथियोपिया का अबिजाता झील सिकुड़ रही है.
भूजल दोहन के अन्य कारण
वाटरएड की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भूजल के नीचे जाने का कारण विश्व के कुछ सर्वाधिक गरीब देशों द्वारा निर्यात के लिए वस्तुओं का उत्पादन है.
इतना ही नहीं, कई क्षेत्रों में सिंचाई के लिए भूमिगत एक्वीफायर का इस्तेमाल किया जाता है, और इस एक्वीफायर से निकलनेवाले भूजल की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. इससे कुओं और पंप के सूखने की संभावना बनी रहती है. बीते दशक में भूजल दोहन में 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, क्योंकि भारत (23 प्रतिशत), चीन (102 प्रतिशत) और अमेरिका (31 प्रतिशत) में इसकी मांग बड़े पैमाने पर बढ़ी है.
बड़ी आबादी वाले देश में पानी की कमी
देश वर्ष में कम से कम एक महीने पानी
की कमी से जूझती आबादी
भारत 1 बिलियन
चीन 900 मिलियन
बांग्लादेश 130 मिलियन
अमेरिका 130 मिलियन
पाकिस्तान 120 मिलियन
नाइजीरिया 110 मिलियन
मेक्सिको 90 मिलियन
भारत में 23 प्रतिशत बढ़ा भूजल दोहन
वर्ष 2000 से 2010 के बीच भारत में भूजल दोहन 23 प्रतिशत बढ़ा है.
भारत भूजल का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है, कुल वैश्विक निर्यात का 12 प्रतिशत भारत से होता है.
कुल भूजल का 24 प्रतिशत अकेले भारत इस्तेमाल करता है. इस प्रकार, भूजल इस्तेमाल में भारत विश्व में पहले स्थान पर है.
हमारे देश में तकरीबन एक अरब लोग पानी की कमी वाले इलाके में रहते हैं, जिनमें 60 करोड़ लोग पानी की गंभीर किल्लत वाले क्षेत्रों में रहते हैं.
88 प्रतिशत घरों के नजदीक साफ पानी की व्यवस्था उपलब्ध है, जबकि 75 प्रतिशत घरों के परिसर में पीने का पानी ही नहीं है.
70 प्रतिशत पीने का पानी दूषित है.
70 प्रतिशत ज्यादा पानी की खपत कर रहे हैं हम तय मात्रा से.
1170 मिमी औसत बारिश होती है देश में, पर 6 प्रतिशत ही हम सहेज पाते हैं.
91 प्रमुख जलाशयों में क्षमता का 25 प्रतिशत ही जल है.
साल 2030 तक 21 शहर ‘डे जीरो’ पर होंगे, यानी इनके पास पानी के स्रोत नहीं बचेंगे.
भारत में महिलाओं को पानी लाने के लिए औसतन प्रतिदिन लगभग 6 किमी का सफर करना पड़ता है.