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ब्रेक्जिट : अनिश्चितता के मोड़ पर खड़ा है यूरोप भंवर में ब्रिटेन और यूरोपीय संघ

डॉ विजय राणा लंदन से बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक ब्रेक्जिट पर जनमत संग्रह के करीब तीन साल बाद भी ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच अलग होने को लेकर समझौता नहीं हो सका है. आंतरिक टकराव के कारण सत्तारुढ़ कंजरवेटिव पार्टी तथा विपक्षी लेबर पार्टी के बीच कोई सहमति नहीं बन सकी है, वहीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 7, 2019 8:41 AM
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डॉ विजय राणा
लंदन से बीबीसी हिंदी के
पूर्व संपादक
ब्रेक्जिट पर जनमत संग्रह के करीब तीन साल बाद भी ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच अलग होने को लेकर समझौता नहीं हो सका है. आंतरिक टकराव के कारण सत्तारुढ़ कंजरवेटिव पार्टी तथा विपक्षी लेबर पार्टी के बीच कोई सहमति नहीं बन सकी है, वहीं स्कॉटलैंड में सरकार चला रही स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी ब्रेक्जिट को नकारती रही है.
यूरोपीय संघ के कुछ देश भी ब्रिटेन को लेकर बहुत तल्ख हैं. यदि ब्रिटेन में सरकार और विपक्ष नये प्रस्ताव नहीं तैयार कर पाये या ब्रिटिश प्रस्ताव को यूरोपीय संघ ने नकार दिया, तो 12 अप्रैल से ही बिना किसी समझौते के ब्रेक्जिट की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी. हालांकि, सरकार ने 30 जून तक का समय मांगा है, पर इसे लेकर संघ में कोई उत्साह नहीं दिख रहा है. इस प्रकरण पर विश्लेषण के साथ आज के इन-दिनों की प्रस्तुति…
ब्रिटेन की हालत आज एक खोये हुए बच्चे के समान है. जून 2016 में एक जनमत संग्रह के द्वारा ब्रिटेन की जनता ने मामूली बहुमत से यूरोपीय यूनियन (ईयू) को छोड़ने का फैसला तो ले लिया था, लेकिन उसके बाद देश किधर जायेगा, यह किसी ने नहीं सोचा था.
अब जबकि यूरोप और ब्रिटेन के बीच राजनीतिक अलगाव का समय आ गया है, तो आम जनता के साथ सरकार, विपक्ष, संसद, अफसरशाही, बुद्धिजीवी और कॉरपोरेट जगत के नेता भी ब्रिटेन की भावी राह को लेकर असमंजस में हैं. ईयू के साथ प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने जो समझौता किया है, उसे ब्रिटेन की संसद में तीन बार ठुकराया जा चुका है. इस समझौते के विरोधियों ने ‘नो डील ब्रेक्जिट’ का प्रस्ताव भी रखा. उनका तर्क था कि एक अहितकर समझौते से तो बिना समझौते के ईयू को छोड़ना बेहतर होगा. संसद ने यह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया.
परदे के पीछे सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी में सत्ता की लड़ाई चल रही है. ब्रेक्जिट अभियान के मुख्य सूत्रधार और पूर्व विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन प्रधानमंत्री पद हथियाना चाहते हैं. मे को अहसास है कि उनकी सरकार ज्यादा समय तक चलनेवाली नहीं है. उन्होंने एक और मोहरा फेंका कि वह अपने प्रस्तावित समझौते पर संसद में चौथी बार मतदान करायेंगी और उसके पास हो जाने के बाद त्यागपत्र दे देंगी. उन्होंने देश में नये चुनाव का भी संकेत दिया है.
मे ने प्रतिपक्ष के नेता जेरेमी कॉर्बिन से मदद मांगी है. इससे मे की पार्टी के विद्रोही नेता नाराज हैं. वहीं लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन को लगता है कि यदि चुनाव होते हैं, तो उनका प्रधानमंत्री बनना तय है. हालांकि, ब्रेक्जिट के सवाल पर उनकी पार्टी भी विभाजित है. सारा देश भ्रमित है. व्यापारी वर्ग में निराशा है. बड़े उद्योगपति ब्रिटेन से अपने कारखाने हटाकर यूरोप के देशों में ले जाने की धमकी दे रहे हैं. पाउंड का दाम गिर रहा है. मकानों की कीमतें गिर रही हैं और अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया है.
कंजरवेटिव पार्टी के कुछ सांसदों के अलावा ब्रेक्जिट के लिए कोई भी आतुर नहीं था. साल 2015 के चुनाव घोषणापत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री कैमरून ने अपने दक्षिणपंथी समर्थकों को खुश करने के लिए वादा किया था कि ईयू को छोड़ने का फैसला जनता की राय से होगा. फिर एक दिन अचानक उन्होंने जनमत संग्रह की घोषणा कर दी. कैमरून स्वयं ब्रेक्जिट के विरोधी थे और उन्हें विश्वास था कि देश की जनता भी ब्रेक्जिट का विरोध करेगी.
लेकिन यह उनकी भूल थी. ईयू को छोड़ने के पक्षधर नेताओं ने विवादस्पद वादे किये. कहा गया कि पोलैंड और रोमानिया से भारी संख्या में आये लोगों की वजह से स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों का अकाल पड़ गया है. सबसे लोकप्रिय, विवादस्पद और भ्रमित करनेवाला वादा यह था कि ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन को प्रति सप्ताह ईयू को 35 करोड़ पाउंड नहीं देने पड़ेंगे. ब्रेक्जिट के बाद यह विशाल धनराशि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के काम आ सकेगी. अंततः 52 प्रतिशत लोगों ने ब्रेक्जिट के समर्थन में वोट दिया और कैमरून को इस्तीफा देना पड़ा.
कैमरून के इस्तीफे के बाद महत्वाकांक्षी बोरिस जॉनसन को लांघकर थेरेसा मे प्रधानमंत्री बन गयीं. लेकिन मे का जनाधार कमजोर था और पार्टी पर पकड़ नाजुक थी. उन्हें जनता की राय को लागू करना था, हालांकि वे स्वयं यूरोप की पक्षधर थीं. मे ने आत्मविश्वास और दृढ़ता के साथ कदम उठाने का निश्चय किया. वह ब्रिटेन को यूरोपीय साझा बाजार में तो शामिल रखना चाहती थीं, लेकिन ब्रिटेन में नौकरी के लिए आनेवाले यूरोपवासियों पर प्रतिबंध भी लगाना चाहती थीं.
यह बात यूरोप के नेताओं को मंजूर नहीं थी. जर्मन चांसलर एंजेला मैर्केल ने साफ कह दिया कि यदि ब्रिटेन साझा बाजार में रहना चाहता है, तो उसे श्रम, उत्पादन, सेवाओं और पूंजी की स्वतंत्र आवाजाही पर कोई अंकुश लगाने का अधिकार नहीं होगा. प्रधानमंत्री मे ने एक और गलती की. उन्होंने चेतावनी दी कि ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय देशों के साथ होनेवाला व्यापार डब्ल्यूटीओ की शर्तों के तहत किया जायेगा. यूरोप के नेताओं ने इसे धमकी के रूप में लिया.
एक समय ब्रिटेन का साम्राज्य दुनियाभर में फैला हुआ था. दोनों महायुद्धों में विजय और यूरोप को तानाशाही के चंगुल से मुक्त कराने में ब्रिटेन ने निर्णायक भूमिका निभायी थी. उसने अपने आपको यूरोप के तंग दायरों में कभी बंद नहीं रखा. ब्रिटेन आज भी खुद को विश्वशक्ति मानता है.
यूरोप के अलावा उसके पास राष्ट्रमंडल देशों का समूह भी है, जिसमें वह भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे प्रभावशाली देशों के साथ रिश्ता बनाये हुए है.
ब्रिटेन में कई नेता मानते हैं कि आज उन्हें नहीं, बल्कि ईयू को ब्रिटेन के सहयोग की ज्यादा जरूरत है. साल 2017 में ब्रिटेन ने ईयू के बजट में 13 अरब पाउंड का योगदान दिया था. इनमें से सिर्फ चार अरब पाउंड ब्रिटेन में खर्च किये गये. यदि ब्रिटेन अपना योगदान बंद कर लेता है, तो ईयू के लिए भारी आर्थिक संकट खड़ा हो जायेगा.
दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता नहीं होता है, तो नुकसान दोनों को होगा. ब्रिटेन के 44 प्रतिशत निर्यात और 53 प्रतिशत आयात ईयू के साथ होते हैं. साझा बाजार खत्म होने के बाद दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आयात और निर्यात शुल्क लगायेंगे, जिससे दोनों के उत्पाद महंगे हो जायेंगे. सीमाओं पर कस्टम और अप्रवास के नये अवरोध खड़े किये जायेंगे.
स्वतंत्र आवाजाही बंद होने से व्यापारियों और सैलानियों के लिए नयी मुश्किलें खड़ी हो जायेंगी. ब्रिटेन के कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं की यूरोप विरोधी मानसिकता ने देश को राजनीतिक बिखराव और भ्रम के दलदल में धकेल दिया है. भारी छटपटाहट और मानसिक यातना के अलावा इस समय ब्रिटेन को कोई और रास्ता नहीं दिख रहा है.
क्या है यूरोपीय संघ
यूरोपीय संघ को ईयू (यूरोपीय यूनियन) के नाम से जाना जाता है. यह 28 यूरोपीय देशों की आर्थिक और राजनीतिक साझेदारी है. इसकी शुरुआत द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए हुई थी. आज यूरोपीय संघ एक एकल बाजार के रूप में विकसित हो चुका है, जहां वस्तु और सदस्य देश के नागरिकों को एक देश के तौर पर सभी जगह आने-जाने की अनुमति है. ईयू की मुद्रा ‘यूरो’ है, जिसका इस्तेमाल इसके 19 सदस्य देश करते हैं. इसकी अपनी संसद है, जो पर्यावरण, परिवहन, उपभोक्ता अधिकारों समेत अनेक क्षेत्रों के लिए नियम निर्धारित करती है.
लिस्बन संधि के तहत लिया गया ईयू छोड़ने का फैसला
ब्रिटेन को ईयू से अलग होने के लिए लिस्बन संधि के अनुच्छेद 50 को लागू करना पड़ा. यह दोनों पक्षों को विभाजन की शर्तों पर सहमत होने के लिए दो साल का समय देती है. थेरेसा मे ने 29 मार्च, 2017 को यह प्रक्रिया शुरू की थी. इस हिसाब से ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की तय तिथि 29 मार्च, 2019 थी.
क्या रद्द हाे सकता है ब्रेक्जिट?
ब्रेक्जिट की प्रक्रिया रद्द करने के लिए ब्रिटेन को अपने कानून में बदलाव करना होगा. इस संबंध में 10 दिसंबर, 2018 को यूरोपीय न्यायालय ने फैसला दिया था कि ईयू के अन्य 27 सदस्यों की अनुमति के बिना भी यूके ब्रेक्जिट प्रक्रिया के अनुच्छेद 50 को रद्द कर सकता है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया यानी ब्रिटिश संसद द्वारा मतदान के माध्यम से अपनी मौजूदा शर्तों पर ईयू का सदस्यबना रह सकता है.
थेरेसा मे का प्रस्ताव
ईयू से बाहर आने को लेकर थेरेसा मे का प्रस्ताव दो हिस्सों में है. पहला हिस्सा कानूनी रूप से बाध्यकारी है, जो ईयू से ब्रिटेन के अलग होने की शर्तों को निर्धारित करता है. इसमें ईयू के पास ब्रिटेन का कितना पैसा है (अनुमानत: 39 बिलियन पाउंड) और ब्रिटेन के नागरिक, जो ईयू में कहीं भी रह रहे हैं और ब्रिटेन में जो ईयू नागरिक रह रहे हैं, उनका क्या होगा, ये बातें शामिल हैं. वहीं दूसरा हिस्सा कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है. इसमें ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच व्यापार, रक्षा और सुरक्षा सहित अनेक बातों की रूपरेखा पेश की गयी है.
टाइमलाइन
23 जनवरी, 2013: प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने यूरोपीय संघ के भविष्य की बातें की और कहा कि वे यूरोपीय संघ में ब्रिटेन की भूमिका के बारे में चर्चा करनेवाले जनमत संग्रह का
समर्थन करेंगे.
7 मई, 2015 : ब्रेक्जिट जनमत संग्रह के वादे के साथ आम चुनाव में उतरे कैमरून की कंजरवेटिव पार्टी ने जीत दर्ज की.
22 फरवरी, 2016 : यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए जनमत संग्रह कराने की तिथि 23 जून, 2016 घोषित.
23 जून, 2016 : ब्रेक्जिट के लिए हुए मतदान के पक्ष में 51.9 प्रतिशत और विपक्ष में 48.1 प्रतिशत मत पड़े.
24 जून, 2016 : जनमत संग्रह के एक दिन बाद कैमरून ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र की घोषणा की.
13 जुलाई, 2016 : कैमरून के इस्तीफे के बाद थेरेसा मे ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं.
17 जनवरी, 2017 : मे ने ब्रेक्जिट को लेकर सरकार की विस्तृत योजना के बारे में बताया.
2 फरवरी, 2017 : ब्रिटिश सरकार ने ब्रेक्जिट को लेकर श्वेत पत्र जारी किया, जिसमें आधिकारिक तौर पर बातचीत की दिशा तय की गयी थी.
29 मार्च, 2017 : यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर आने की आधिकारिक प्रक्रिया शुरू हुई.
18 अप्रैल, 2017 : मे ने 8 जून को समय पूर्व आम चुनाव कराने की घोषणा की.
8 जून, 2017 : आम चुनाव में मे की कंजरवेटिव पार्टी बहुमत से चूकी, लेकिन सबसे बड़ी पार्टी
बनकर उभरी.
19 जून, 2017: ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच ब्रेक्जिट के पहले चरण की बातचीत शुरू.
22 सितंबर, 2017 : मे ने ब्रेक्जिट के मुख्य बिंदुओं के बारे में विस्तार से बताया.
19 मार्च, 2018 : ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी.
14 नवंबर, 2018 : यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर जाने का समझौता (विड्रॉल एग्रीमेंट) जारी हुआ. इस समझौते का विपक्ष और मे की अपनी ही पार्टी के लोगों ने कड़ी आलोचना की.
15 नवंबर, 2018 : निकासी समझौता (विड्रॉल एग्रीमेंट) जारी होने के बाद ब्रेक्जिट सेक्रेटरी डोमिनिक राब और वर्क एवं पेंशंस सेक्रेटरी एस्थर मैकवे ने इस्तीफा दिया.
25 नवंबर, 2018 : यूरोपीय संघ के नेताओं ने आधिकारिक तौर पर निकासी समझौते का
समर्थन किया.
11 दिसंबर, 2018 : अपनी पार्टी के भीतर आलोचना झेल रहीं थेरेसा मे बहुत कम अंतर से अविश्वास मत जीतने में सफल रहीं.
17 दिसंबर, 2018: संसद में ब्रेक्जिट समझौते पर मतदान के लिए मे ने 14 जनवरी की तिथि तय की.
15 जनवरी, 2019 : संसद ने ब्रेक्जिट समझौते को खारिज किया, जिससे 29 मार्च, 2019 को यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने का रास्ता कठिन हो गया.
13 मार्च, 2019 : ब्रिटिश सांसदों ने ब्रेक्जिट समझौते के संशोधित मसौदे को बड़े अंतर सेखारिज किया.
14 मार्च, 2019 : यूरोपीय संघ से बिना किसी समझौते के बाहर आने के थेरेसा मे के प्रस्ताव को ब्रिटेन की संसद ने खारिज किया.
29 मार्च, 2019: ब्रेक्जिट को लेकर हुए मतदान में संसद ने यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के समझौते को नकार दिया.
1 अप्रैल, 2019 : ब्रिटेन की संसद में ब्रेक्जिट से जुड़े चार प्रस्तावों पर मतदान हुआ,लेकिन सांसदों के बीच एक बार फिर सहमति नहीं बन सकी.
4 अप्रैल, 2019 : हाउस ऑफ कॉमन्स में ब्रेक्जिट की समयसीमा बढ़ाने के पक्ष में हुए मतदान में सिर्फ एक मत से बहुमत हासिल हुआ. ब्रेक्जिट को लेकर गतिरोध खत्म करने के लिए इसी दिन थेरेसा मे ने विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन से मुलाकात की.
विपक्ष से बात नहीं बनी
ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे यूरोपीय संघ से संतुलित ब्रेक्जिट के लिए कुछ और समय लेना चाहती हैं. इसके लिए उनकी कोशिश है कि विपक्ष को भी साथ लें. पर, बातचीत और पत्रों के आदान-प्रदान के बाद लेबर पार्टी ने कहा है कि प्रधानमंत्री कोई ठोस और नया प्रस्ताव नहीं दे सकी हैं जिसके आधार पर समझौता हो सके. मुख्य विपक्षी पार्टी ने सरकार से फिर से प्रस्ताव देने को कहा है. इस गतिरोध के बाद सर्वसम्म्मति से कोई निर्णय लेने की उम्मीदें धूमिल हो गयी हैं.
ब्रिटिश पासपोर्ट से यूरोपीय संघ हटा
ब्रेक्जिट की तनातनी के बीच ब्रिटेन ने अपने नागरिकों को नये डिजाइन का पासपोर्ट निर्गत करना शुरू कर दिया, जिसके आवरण से ‘यूरोपीय संघ’ हटा दिया गया है. जिन लोगों को ये नये पासपोर्ट मिले हैं, उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि यूरोपीय संघ से अभी ब्रिटेन अलग नहीं हुआ, फिर ऐसा पासपोर्ट क्यों दिया जा रहा है. ब्रिटिश गृह विभाग की ओर से कहा गया है कि ‘यूरोपीय संघ’ का उल्लेख संघ की नीति थी, किंतु यह कोई वैधानिक बाध्यता नहीं थी.
फ्रांस, स्पेन और बेल्जियम ब्रेक्जिट के लिए तैयार
ब्रेक्जिट की नयी अस्थायी तारीख 12 अप्रैल तय की गयी है. प्रधानमंत्री मे 30 जून तक मोहलत पाने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन फ्रांस, स्पेन और बेल्जियम ने अपने तेवर कड़े कर लिए हैं. इनका कहना है कि यदि ब्रिटेन की ओर से कोई नया स्पष्ट प्रस्ताव नहीं आता है, तो ब्रेक्जिट में देरी करने का कोई मतलब नहीं है.
मुख्य रूप से फ्रांस का यह रुख है और वह लगातार अन्य सदस्य देशों का समर्थन पाने के प्रयास में लगा हुआ है. दोनों पक्षों के बीच चल रही बातचीत में ब्रिटेन के नजदीकी सहयोगी देश नीदरलैंड ने भी थेरेसा मे के प्रस्ताव में स्पष्टता की जरूरत बतायी है. शुक्रवार को प्रधानमंत्री मे ने यूरोपीय काउंसिल के प्रमुख डोनाल्ड टस्क को पत्र लिखकर ब्रेक्जिट की समय-सीमा 30 जून तक बढ़ाने की मांग की है. इस पर टस्क ने एक साल की मोहलत देने की बात कही है, बशर्ते अलग होने के समझौते की रूप-रेखा पहले तय हो जाये.
यूरोपीय संघ के विघटन का लक्षण है ब्रेक्जिट
एक घटना और तबाही के रूप में ब्रेक्जिट भले ही प्रभावकारी है, पर यूरोपीय संघ की विघटन प्रक्रिया का यह एक हिस्सा है. अभी त्रासदी यह है कि ब्रसेल्स और लंदन के बीच एक वार्ता, एक कथित वार्ता, चल रही है तथा इन दोनों की ही शीर्ष प्राथमिकताओं में यूरोपीय लोगों के हित नहीं है. ब्रेक्जिट यूरोप के लिए हानिकारक है, क्योंकि सदस्य देशों का ब्रिटेन के साथ नजदीकी आर्थिक संबंध हैं और संघ के वार्ताकारों को थेरेसा मे के साथ खेल नहीं खेलना चाहिए.
– यानिस वारोफाकिस, अर्थशास्त्री एवं यूनान के पूर्व वित्त मंत्री
ब्रेक्जिट से भारत को नुकसान
ईयू से ब्रिटेन के अलग होने का नुकसान भारत को भी उठाना होगा, क्योंकि इसके बाद ईयू के बाजार में भारत की सीधी पहुंच बंद हो जायेगी. अपने देश की कई कंपनियां की यूरो जोन में काफी ऊंची पैठ है. ब्रिटेन के 12 ब्रिटिश इस्पात संयंत्रों से इस्पात उद्यम (टाटा स्टील) का बिक्री टर्नओवर दो बिलियन पाउंड है. टाटा मोटर्स ब्रिटेन की सबसे बड़ी ऑटोमोटिव कंपनी है. भारत फोर्ज का जर्मनी में तीन और यूके में एक संयंत्र है, जो यूरोप की महत्वपूर्ण ऑटोमोटिव कंपनियों की जरूरतों को पूरा करती है.
वहीं टीसीएस के लिए उसके राजस्व का प्रमुख स्रोत लंदन फाइनेंशियल हब, ईयू और ब्रिटेन को सेवा प्रदान करना है. विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रेक्जिट के बाद ईयू की अर्थव्यवस्था के धीमे होने का अनुमान है, जिससे ऑटो बिक्री में कमी आयेगी. नतीजा मदरसन सुमी, महिंद्रा सीआईई व भारत फोर्ज जैसी ऑटो कंपोनेंट निर्माता कंपनियां बुरी तरह प्रभावित होंगी. वहीं ब्रिटेन-ईयू के बीच उत्पन्न हुई अनिश्चितता के कारण आईटी/ फार्मा निर्यातकों को भी नुकसान उठाना होगा. टीसीएस, टेक महिंद्रा व विप्रो समेत दूसरी वैसी भारतीय आईटी कंपनियां, जिनके यूरोपीय मुख्यालय ब्रिटेन में हैं, उन्हें नये सिरे से ईयू में कर्मचारी रखने और कार्यालय बनाने पर खर्च करना होगा. बहुत संभव है कि ब्रेक्जिट के बाद भारत लंदन की बजाय दूसरे देश से यूरोपीय देशों में प्रवेश का रास्ता तलाशे, क्योंकि तब मुक्त व्यापार के लिए ईयू बाजार तक सीधी पहुंच भारतीय कंपनियों के लिए ज्यादा कठिन हो सकती है.
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