1929 में पांच लोगों ने निकाली थी रांची की पहली रामनवमी शोभायात्रा, हजारीबाग के महावीर मंदिर से मिली प्रेरणा
अभिषेक रॉयरांची: झारखंड में रामनवमी शोभायात्रा की परंपरा काफी गौरवपूर्ण रही है. रांची में इसकी शुरुआत महावीर चौक से हुई. पहली शोभायात्रा पांच लोगों ने मिलकर निकाली थी. सबसे पहले वर्ष 1929 में डॉ रामकृष्ण लाल और उनके भाई कृष्ण लाल ने पहल की. दोनों भाइयों को साथ देने इनके तीन दोस्त जगन्नाथ साहू, गुलाब […]
अभिषेक रॉय
रांची: झारखंड में रामनवमी शोभायात्रा की परंपरा काफी गौरवपूर्ण रही है. रांची में इसकी शुरुआत महावीर चौक से हुई. पहली शोभायात्रा पांच लोगों ने मिलकर निकाली थी. सबसे पहले वर्ष 1929 में डॉ रामकृष्ण लाल और उनके भाई कृष्ण लाल ने पहल की. दोनों भाइयों को साथ देने इनके तीन दोस्त जगन्नाथ साहू, गुलाब नारायण तिवारी और लक्ष्मण राम मोची भी आगे आये. उस समय शोभायात्रा आज की जैसी नहीं थी, फिर भी लोगों का सहयोग मिला और आस पास के 40-50 लोग एकजुट होकर डोरंडा के तपोवन मंदिर तक गये थे.
महावीर चौक निवासी कृष्ण लाल का ससुराल हजारीबाग था. वर्ष 1929 में वह चैत माह के पहले मंगलवार को हजारीबाग में थे. शाम को टहलने निकले, तो उन्होंने पास के ही महावीर मंदिर में लोगों की भीड़ देखी. सभी लोग जय श्री राम, जय श्री राम, बजरंग बली की जय… का जयकार कर रहे थे. उन्होंने लोगों से पूछा, तो उन्हें रामनवमी की जानकारी मिली. इसे देख वे काफी प्रभावित हुए थे.
कपड़े से काट कर तैयार की हनुमान जी की आकृति
कृष्ण लाल ने लोगों को मंदिर में हनुमान जी का पताका लगाते देखा. इसके बाद वे एक दर्जी के पास गये, गेरुआ रंग का कपड़ा मांगा और उसपर हनुमान जी की आकृति बना दी. हनुमान जी की आकृति को कैंची से काटा और उसे दूसरे कपड़े पर जोड़ने को कहा. दर्जी ने भी अन्य पताकों की तरह रामनवमी का पताका तैयार कर दिया, जिसे कृष्ण लाल ने महावीर मंदिर में लगा दिया.
दो पताकों के साथ निकाली गयी थी पहली शोभायात्रा
कृष्ण लाल अपने ससुराल से लौटकर हजारीबाग की पूरी बात अपने बड़े भाई डॉ रामकृष्ण लाल को बतायी. इसके बाद चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी (17 अप्रैल 1929) के दिन शोभायात्रा निकालने का निर्णय लिया. इसमें दोनों भाई का सहयोग उनके तीन मित्रों ने दिया. शोभायात्रा के लिए डॉ राम ने खादी कपड़े का झंडा बनवाया. पूजा पाठ करने के बाद दो पताकों और दोस्तों के साथ तपोवन मंदिर डोरंडा के लिए निकल पड़े. शोभायात्रा देख कई लोगों ने मजाक भी उड़ाया. धीरे-धीरे लोग श्रद्धा भाव से जुट गये. इसी से शोभायात्रा की परंपरा शुरू हो गयी.
1930 से शोभायात्रा में जुटने लगे थे लोग
साल 1929 में पांच लोगों से शुरू की गयी शोभायात्रा 1930 में वृहद रूप में बदल गयी. ठीक एक साल बाद 1930 में स्व नानू भगत के नेतृत्व में रातू रोड के ग्वाला टोली से शोभायात्रा निकली. साल दर साल लोग जुड़ते गये. परंपरा बनी रहे इसके लिए पांच अप्रैल 1935 को अपर बाजार स्थित संत लाल पुस्कालय (वर्तमान में गोविंद भवन के नाम से जाना जाता है) में शोभायात्रा को लेकर बैठक हुई. इसमें रांची के कई लोग शामिल हुए. बैठक के निर्णय से श्री महावीर मंडल का गठन किया गया. मंडल के प्रथम अध्यक्ष स्व महंत ज्ञान प्रकाश उर्फ नागा बाब और महामंत्री डॉ राम कृष्ण लाल को मनोनीत किया गया. इसके बाद स्व नानू, स्व कपिलदेव, स्व गंगा प्रसाद बुणिया, स्व जगदीश नारायण शर्मा, स्व. हरवंश लाल ओबरॉय, स्व. परशुराम शर्मा, सरयू यादव और स्व. किशोर सिंह यादव के नेतृत्व में शोभायात्रा निकलती रही.
साइकिल और बैलगाड़ी में निकलती थी शोभायात्रा
पहले की शोभायात्रा वर्तमान के विपरीत थी. लोगों के पास संसाधन की कमी होने से बैलगाड़ी, साइकिल और ठेले को सजाकर शोभायात्रा निकालते थे. महावीर चौक से निकलकर तपोवन और वापस लौटकर अखाड़े पर विश्राम करते थे. जहां पताकों को एकजुट कर घरों पर लगाने का काम किया जाता था. इसे लोग चैती दुर्गा पूजा के बाद निकाल ही हटाते थे.
दूसरे राज्यों से शोभायात्रा देखने पहुंचते थे लोग
स्व कृष्ण लाल के पोते अजय गुप्ता ने बताया कि शोभायात्रा साल दर साल बड़ा रूप लेता गया. साल 1960 में जब वह छह साल के थे, उस समय दादा के साथ जीप में बैठकर शोभायात्रा में शामिल होते थे. शोभायात्रा देखने रांची में घर और पड़ोस में लोग जसपुर छत्तीसगढ़, गुमला, लोहरदगा, हजारीबाग, रामगढ़ से लोग पहुंचते थे. सुबह की पूजा में शामिल होने के बाद दोपहर बाद शोभायात्रा में शामिल होते थे और अगले दिन ही अपने-अपने घर लौट जाते थे.