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खुदकुशी के आंकड़े चिंताजनक, निराशा का भी है निवारण, जानें अवसाद के लक्षण

दुनिया भर में होनेवाली आत्महत्याओं में भारतीय महिलाओं की संख्या एक-तिहाई से अधिक और पुरुषों की संख्या लगभग एक-चौथाई है. हमारे देश में ऐसी घटनाओं की दर वैश्विक औसत से भी ज्यादा है. किन्हीं कारणों से अपनी जान देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है और इसमें हर उम्र के लोग हैं. पिछले कुछ दिनों […]

दुनिया भर में होनेवाली आत्महत्याओं में भारतीय महिलाओं की संख्या एक-तिहाई से अधिक और पुरुषों की संख्या लगभग एक-चौथाई है. हमारे देश में ऐसी घटनाओं की दर वैश्विक औसत से भी ज्यादा है.

किन्हीं कारणों से अपनी जान देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है और इसमें हर उम्र के लोग हैं. पिछले कुछ दिनों में तेलंगाना से 20 से अधिक छात्रों की आत्महत्या की खबर है. तकनीकी खराबी से परीक्षा के परिणाम ठीक से नहीं आने के कारण निराश बच्चों ने ऐसा किया इस बेहद चिंताजनक मसले पर देश-दुनिया की अहम सूचनाओं के साथ इन दिनों की यह प्रस्तुति…

मिलने-जुलने व बातचीत से िडप्रेशन में आती है कमी

डॉ राजीव मेहता/ मनोचिकित्सक, दिल्ली

आत्महत्या की अगर हम मेडिकल वजह देखें, तो वह है डिप्रेशन यानी विषाद. सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले इसी वजह से आते हैं, क्योंकि गहरी निराशा आदमी को शक्तिहीन बना देती है, जिससे वह मौत का रास्ता अख्तियार कर लेता है. आत्महत्या दो तरह की होती है- आवेग में आकर आत्महत्या करना (इम्पल्सिव सुसाइड) और दूसरा है गहरे अवसाद में आकर आत्महत्या करना (डिप्रेसिव सुसाइड).

इम्पल्सिव सुसाइड में होता यह है कि व्यक्ति त्वरित निर्णय लेता है, मसलन अगर किसी बच्चे का परीक्षा परिणाम अच्छा नहीं आया, तो आवेग में आकर अपनी जान गंवा देता है. जहां तक डिप्रेसिव सुसाइड का मामला है, तो जब धीरे-धीरे गहरी निराशा जकड़ लेती है, तब व्यक्ति मर जाना बेहतर समझने लगता है.

डिप्रेसिव सुसाइड के अनेक कारण हैं. मसलन- आर्थिक स्थिति, मानसिक स्थिति, अकादमिक परेशानियां, प्रोफेशनल दबाव, रिलेशनशिप की उलझनें, पारिवारिक झगड़े, विवाहेत्तर संबंध आदि ऐसे मुख्य कारण हैं, जो डिप्रेसिव सुसाइड के लिए जिम्मेदार हैं. इन कारणों का सही तरीके से निवारण न हो, तो व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है.

गहरी निराशा की चरम अवस्था ही आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है. अंग्रेजी में एक शब्द है- होपलेसनेस, यह गहरी निराशा से जन्म लेता है कि अब तो मेरा कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए मर जाना ही बेहतर है. अक्सर लोग यह भी सोचते हैं कि परेशानियां हैं, ठीक हो जायेंगी. डिप्रेशन है, तो यह भी अपने आप ठीक हो जायेगा. लेकिन, ऐसा होता बहुत कम है कि कोई बीमारी अपने आप ठीक हो जाये.

एक तीसरा प्रकार भी है, जिसे एक्सिडेंटल सुसाइड कहते हैं. अगर कोई किसी बात के लिए पागल हो, उत्तेजित हो, मसलन कोई किसी ने ऊंचाई से सेल्फी लेते हुए गिरकर अपनी जान गंवा दी, तो इसे एक्सिडेंटल सुसाइड कहते हैं. दरअसल, इसमें व्यक्ति जान-बूझकर आत्महत्या नहीं करना चाहता, लेकिन पागलपन में ऐसी स्थिति बना देता है कि उसकी जान चली जाती है. हालांकि, इस प्रकार की आत्महत्या के मामले बहुत कम हैं.

वैसे तो जितने भी कारण है डिप्रेशन बढ़ने के, उन सबको ठीक करने के लिए अलग-अलग उपाय हैं. किसी एक सामान्य उपाय से इसे ठीक नहीं किया जा सकता. लेकिन हां, एक बात बहुत महत्वपूर्ण है, जिस पर हम सबको बहुत ध्यान देना चाहिए.

वह है परिवार, दोस्त, रिश्तेदार आदि के साथ बात करना और पारस्परिक व्यवहार करना. आज के दौर का आदमी अगर रोजाना अपने एकल परिवार में या संयुक्त परिवार में या फिर दोस्तों-यारों के साथ मिल-बैठकर कुछ देर बातचीत में बिताये, तो मैं समझता हूं कि डिप्रेशन का स्तर तेजी से गिरता है. अगर हम रोज सिर्फ एक घंटा मोबाइल, टीवी और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट को दूर रखकर अपने घर में परिवार के सदस्यों या फिर दोस्तों-पड़ोसियों के साथ बातचीत करें, तो मैं समझता हूं कि निराशा कभी पास नहीं आयेगी.

और सबसे महत्वपूर्ण बात, हम बच्चों के बचपन को बच्चों की नजर से देखें, बड़ों की तरह नहीं, तो ही बेहतर है. बच्चे हमारी बुनियाद हैं, इसलिए उन पर गैर-जरूरी दबाव बनाने की कभी कोशिश न करें. बात-बात पर टोकने की आदत बहुत खराब है, बच्चों के साथ संयम के साथ पेश आना उन्हें तमाम अच्छी और सकारात्मक बातों को समझने में मदद करना है. लेकिन, मुश्किल यह है कि हम अपने बच्चों पर सबसे ज्यादा अपने सपने थोपते हैं और उनके हर काम में टोका-टिप्पणी करते रहते हैं. इससे बच्चों में नकारात्मकता आती है और उनका व्यवहार बिगड़ता चला जाता है.

प्रति 40 सेकेंड में एक आत्महत्या

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में प्रतिवर्ष लगभग 8,00,000 लोग आत्महत्या करते हैं, यानी प्रति 40 सेकेंड में एक व्यक्ति खुद की जान ले लेता है.

आत्महत्या का बढ़ता ग्राफ

वर्ष 2016 में वैश्विक स्तर पर प्रति एक लाख पर 10.6 लोगों ने आत्महत्या की थी, जिसमें पुरुषों की दर 13.5 और महिलाओं का 7.7 था. वर्ष 2015 में प्रति एक लाख पर 10.7 लोगों ने खुदकशी की थी, जिनमें 13.6 पुरुष और 7.8 महिलाएं शामिल थीं.

क्रूड सुसाइड रेट (प्रति एक लाख पर आत्महत्या की दर)

का वैश्विक क्षेत्रवार आंकड़ा (वर्ष 2016 में)

क्षेत्र कुल पुरुष महिला

अफ्रीका 7.4 9.9 4.8

अमेरिका 9.8 15.1 4.6

दक्षिण-पूर्व एशिया 13.2 14.8 11.6

यूरोप 15.4 24.7 6.6

पूर्वी भूमध्यसागर 3.9 5.1 2.7

पश्चिमी प्रशांत महासागर 10.2 10.9 9.4

स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन

खुदकुशी में लिथुवानिया शीर्ष पर

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 176 देशाें में किये गये अध्ययन (वर्ष 2016) के अनुसार, सर्वाधिक आत्महत्या के मामले में शीर्ष पांच देशों में पहले और दूसरे पायदान पर क्रमश: पूर्वी यूरोप के दो देश लिथुवानिया और रूस हैं. इस सूची में प्रति एक लाख पर 16.3 आत्महत्या दर के साथ भारत 21वें स्थान पर है. रिपोर्ट की मुताबिक 1.9 के साथ सीरिया, 1.7 के साथ ग्रेनाडा व बहमास, 0.8 के साथ बारबाडोस और 0.7 के साथ एंटीगुआ और बारबुडा निचले पायदान पर हैं.

शीर्ष आत्महत्या दर वाले पांच देश (वर्ष 2016 में)

देश खुदकुशी (प्रति एक लाख पर) रैंक

लिथुवानिया 31.9 1

रूस 31 2

गुयाना 29.2 3

दक्षिण कोरिया 26.9 4

बेलारूस 26.2 5

छात्रों में आत्महत्या के बढ़ते मामले

अच्छे करियर और असफलता के भय के बढ़ते दबाव में आकर छात्र कई बार आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देशभर में साल 2014 से 2016 के बीच 26,476 छात्रों ने आत्महत्या की. इनमें 7,462 छात्रों ने आत्महत्या विभिन्न परीक्षा में फेल होने के डर से की थी. बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा व्यवस्था कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है.

अच्छे भविष्य और रोजगार की है बड़ी चिंता

भारत में शिक्षण से उम्मीद की जाती है कि भविष्य में नौकरी के अच्छे मौके के साथ सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर बेहतर पृष्ठभूमि तैयार हो सकेगी. लेकिन, भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर्याप्त नौकरियों के विकल्प तैयार करने में असफल रही है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट ‘विश्व रोजगार एवं सामाजिक आउटलुक ट्रेंड्स-2018’ कहती है कि लगभग 77 प्रतिशत भारतीय कामगारों की नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है. साथ ही 1.89 करोड़ भारतीयों के बेरोजगारी के भंवर में फंसने का डर है.

अच्छे प्रदर्शन का छात्रों पर बढ़ता दबाव

भविष्य में जॉब की कमजोर होती संभावनाओं के कारण छात्रों पर लगातार बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बढ़ रहा है. पढ़ाई के दौरान मिलनेवाले आनंद से छात्र वंचित हो रहे हैं. लगातार बढ़ते दबाव और तनाव के कारण छात्रों में सामाजिक जुड़ाव के प्रति अनिच्छा पैदा हो रही है, जिससे वे खुलकर लोगों में मिलना पसंद नहीं करते.

माहौल में लचीलापन जरूरी

बच्चों के व्यवहार में बदलाव और आत्महत्या का ख्याल आने जैसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि आसपास के माहौल को खुशनुमा और लचीला बनाया जाये. अगर किसी बच्चे में अवसाद या तनाव के लक्षण दिखते हैं, तो स्कूल, परिवार और दोस्तों को माहौल बेहतर बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए. जैसे-

अच्छे कम्युनिकेशन के साथ फैमिली सपोर्ट जरूरी

सहपाठी छात्रों और दोस्तों का सपोर्ट जरूरी, सोशल नेटवर्किंग साइट को बंद करें.

स्कूल और कम्युनिटी कार्यक्रमों में भागीदारी.

सांस्कृतिक या धार्मिक विश्वासों से जुड़ाव. इससे आत्महत्या का ख्याल नहीं आयेगा और स्वस्थ्य जीवनशैली बनेगी.

समस्या को सुलझाने का गुण विकसित करना चाहिए.

सामान्य जीवन में संतुष्टि, आत्मसम्मान और उद्देश्य की भावना जरूरी.

प्रभावी चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक आसान पहुंच.

भारत में प्रत्येक 55 मिनट में एक छात्र आत्महत्या कर लेता है.

शैक्षणिक सत्र 2017-18 में आंध्र और तेलंगाना में 150 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या कर ली.

1,00,000 की आबादी पर 14-17 आयु वर्ग में आत्महत्या की घटना दर 9.52 है.

30 से अधिक छात्रों ने हैदराबाद में आत्महत्या कर ली शैक्षणिक सत्र 2017-18 में.

2016 में हर रोज 17 किसानों ने की आत्महत्या

किसानों की आत्महत्या की अगर बात करें तो वर्ष 2016 में देश भर में 17 किसानों ने हर रोज खुदकुशी की थी. यानी कुल 6,351 किसानों ने खुद की जान ली थी. जबकि वर्ष 2015 में 22 किसानों ने प्रतिदिन अपनी जान दी थी. यानी इस वर्ष कुल 8,007 किसानों ने आत्महत्या की थी.

2016 में सबसे ज्यादा महाराष्ट्र के किसानों (3,661) ने आत्महत्या की थी. इसके बाद इस वर्ष किसानों द्वारा आत्महत्या करने वाले राज्यों में कर्नाटक (2,079), मध्य प्रदेश (1,321), आंध्र प्रदेश (804), छत्तीसगढ (682) और तेलंगाना (645) प्रमुख थे. एनसीआरबी 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, किसानों द्वारा आत्महत्या करने के प्रमुख कारणों में कर्ज में डूबना (38.7 प्रतिशत), कृषि संबंधी मामले (19.5 प्रतिशत), पारिवारिक समस्या (11.7 प्रतिशत), बीमारी (10.5 प्रतिशत) आदि प्रमुख थे.

अवसाद के लक्षण

परिनों और दोस्तों से दूरी.

व्यवहार में बदलाव (भय, दुख और चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण).

खाने और सोने की आदतों में बदलाव.

ड्रग और शराब सेवन की आदत.

खतरनाक बर्ताव करना.

पहले पसंद किये जानेवाले काम में दूरी बनाना.

भारत में किसानों से जुड़े आत्महत्या के मामले (2014-15)

आत्महत्या के प्रमुख कारण : एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में पारिवारिक समस्याएं (27.6 प्रतिशत) और बीमारी (15.8 प्रतिशत) भारत में आत्महत्या करने के प्रमुख कारण रहे.

वहीं इस वर्ष 4.8 प्रतिशत लोगों ने वैवाहिक जीवन से संबंधित मामले, 3.3 प्रतिशत ने दिवालियापन व इतने ही प्रतिशत ने प्रेम से जुड़े मामले, 2.7 प्रतिशत ने नशा व शराब की लत, 2.0 प्रतिशत परीक्षा में असफलता व इतने ही प्रतिशत ने बेरोजगारी, 1.9 प्रतिशत ने संपत्ति विवाद, 1.3 प्रतिशत ने गरीबी और 1.2 प्रतिशत लोगों ने पेशेवर/ करियर संबंधी समस्याओं के कारण आत्महत्या कर ली थी.

इन देशों में खुदकुशी में आयी कमी

चीन : वर्ष 1990 के दशक में प्रति 1,00,000 पर 23 आत्महत्या दर वाला देश था चीन, जो विश्व की सर्वाधिक आत्महत्या दर थी. इस देश में पुरुषों की तुलना में खुदकुशी करनेवाली महिलाओं की संख्या भी ज्यादा थी. लेकिन 2014 तक चीन की आत्महत्या दर गिरकर आधी से कम हो गयी. महिलाओं की खुदकुशी दर में 70 प्रतिशत तक की गिरावट आयी. पर्यवेक्षक मानते हैं कि गांव से शहरों में पलायन और ज्यादा लोगों के शहरी मध्य वर्ग का हिस्सा बनने से यहां आत्महत्या दर में कमी आयी.

श्रीलंका : 1990 के दशक में इस देश में 8,500 लोगों ने खुदकुशी की थी. यहां प्रति एक लाख पर आत्महत्या दर 57 थी. वर्ष 2016 तक यहां आत्महत्या करनेवालों की संख्या घटकर 3,000 रह गयी. वहीं खुदकुशी मामलों में 70 प्रतिशत की गिरावट आयी और प्रति एक लाख पर खुदकुशी की दर घटकर 17 रह गयी. इस संख्या में कमी का प्रमुख कारण वर्ष 1995 में विषैले कीटनाशकों के आयात और बिक्री पर प्रतिबंध लगाना रहा. एक अनुमान के अनुसार, कीटनाशकों पर प्रतिबंध से 1995 से 2015 के बीच तकरीबन 93,000 लोगों की जान बचायी जा सकी.

फिनलैंड : फिनलैंड ऐसा पहला देश था जहां खुदकुशी रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सरकार द्वारा पहल की गयी थी. 1970 के दशक में ही यहां सरकार ने खुदकुशी के कारणों की पड़ताल शुरू कर दी थी. आत्महत्या के कुल मामलों में 90 प्रतिशत लोग मानसिक विकारों के कारण एेसा करते थे. सरकार ने अवसाद की पहचान और उपचार के लिए लोगों को प्रशिक्षित किया और एक राष्ट्रीय नेटवर्क द्वारा लोगों के रुख में बदलाव लाने का प्रयास शुरू हुआ. इसके बाद 1990 से 2014 के बीच इस देश की आत्महत्या दर प्रति एक लाख पर 30.3 से गिरकर 14.6 पर आ गयी.

स्कॉटलैंड : वर्ष 2000 में यहां प्रति एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर 31.2 थी, इंग्लैंड से लगभग दोगुना. इससे निपटने के लिए सरकार ने 2002 में ‘चूज लाइफ’ नामक एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की. नतीजा, वर्ष 2011 तक पुरुष आत्महत्या दर में 21 प्रतिशत और कुल दर में 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी.

भारत में प्रति एक लाख पर 16 लोगों ने की खुदकुशी

डब्ल्यूएचओ के आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2016 में भारत में प्रति एक लाख पर 16.3 लोगों ने आत्महत्या की थी. वहीं वर्ष 2015 में प्रति एक लाख लोगों पर खुदकुशी की दर 16.5 (पुरुष और महिला क्रमश: 18.0 और 14.9) थी.

क्या कहती है लॉन्सेट पब्लिक हेल्थ की रिपोर्ट

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी (1990 से 2016) के आधार पर ऑनलाइन जर्नल लॉन्सेट पब्लिक हेल्थ की बीते वर्ष जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में सर्वाधिक आत्महत्याएं भारत में हुई थीं. विश्वभर में 8,17,000 लोगों ने खुदकुशी की थी, जबकि भारत में यह संख्या 2,30,314 थी. इस रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में महिला और पुरुष दोनों में आत्महत्या से होनेवाली मृत्यु की दर बढ़ रही है. इस रिपोर्ट के अनुसार,

आत्महत्या करनेवाली प्रति तीन महिलाओं में एक भारत से थी वर्ष 2016 में.

भारत में वर्ष 2016 में होनेवाली मृत्यु का नौवां प्रमुख कारण खुदकुशी थी.

आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 में आत्महत्या से होनेवाली मृत्यु एड्स से होने वाली मृत्यु (62,000) से और वर्ष 2015 में मातृ मुत्यु संख्या (45,000) से अधिक थी.

भारत में महिला आत्महत्या वैश्विक औसत से 2.1 गुना अधिक है.

भारत में खुदकुशी में विवाहित महिलाओं का प्रतिशत बहुत ज्यादा है.

महाराष्ट्र में सर्वाधिक लोगों ने ली खुद की जान

वर्ष 2015 में, देश में आत्महत्या के कुल मामलों में सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र (16,970) से थे. 15,777 आत्महत्या मामलों के साथ तमिलनाडु दूसरे, 14,602 के साथ पश्चिम बंगाल तीसरे, 10,786 के साथ कर्नाटक चौथे और 10,293 के साथ मध्य प्रदेश पांचवें स्थान पर था. इस प्रकार देश में होनेवाली कुल आत्महत्याओं का 51.2 प्रतिशत अकेले इन पांचों राज्यों में हुआ. जबकि 48.8 प्रतिशत में बाकी बचे 24 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश शामिल थे. नागालैंड इस सूची में निचले पायदान पर था.

नोट : वर्ष 2015 में झारखंड में 835 और बिहार में 516 लोगों ने खुदकुशी की थी.

स्रोत : एनसीआरबी (2015 के बाद

की रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है)

पुदुचेरी में उच्च रही आत्महत्या दर

वर्ष 2015 में पुदुचेरी आत्महत्या दर में सबसे आगे रहा. प्रति एक लाख पर जहां पूरे भारत की आत्महत्या दर 10.6 थी, पुद्दुचेरी में यह 43.2 थी. वहीं 37.5 के साथ सिक्किम दूसरे, 28.9 के साथ अंडमान व निकोबार द्वीप समूह तीसरे, 27.7 के साथ तेलंगाना एवं छत्तीगढ़ चौथे और 25.4 के साथ दादर व नागर हवेली पांचवें स्थान पर थे. पूरे भारत वर्ष में बिहार में आत्महत्या दर इस वर्ष सबसे कम 0.5 दर्ज की गयी थी, जबकि झारखंड में यह दर 2.5 थी.स्रोत : एनसीआरबी

आत्महत्या से निपटने में पीछे हैं हम

हमारे देश में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, लेकिन पूरे देश में सिर्फ 44 सुसाइड हेल्प सेंटर हैं. इनमें भी सिर्फ नौ सेंटर ऐसे हैं जो 24 घंटे खुले रहते हैं. इतना ही नहीं, कोई एक ऐसा नंबर भी नहीं है, जो इन हेल्प सेंटरों को आपस में जोड़ सके. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि मानसिक विकारों से ग्रस्त लोगों की संख्या और आत्महत्या करनेवालों की संख्या में इजाफा हाेने के बावजूद हमारे पास इससे निपटने व इसकी संख्या में कमी लाने के कारगर उपाय मौजूद नहीं हैं.

अगर आप किसी प्रकार का तनाव महसूस कर रहे हैं और आपको किसी प्रकार की मदद की दरकार है, तो आप इन केंद्रों पर संपर्क कर सकते हैं. ऑल-इंडिया टोल-फ्री हेल्पलाइन नंबर,

कनेक्टिंग इंडिया 18002094353 (दोपहर 12ः00 बजे से शाम 8ः00 बजे तक) टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज-आईकॉल टेलीफोन आधारित परामर्श ः 022-25521111 (सोमवार से शनिवार, सुबह 8ः00 बजे से रात्रि 10 बजे तक)

इ-मेल आधारित परामर्श ः icall@tiss.edu चैट आधारित परामर्श ः nULTA App (सोमवार से शुक्रवार, सुबह 10ः30 बजे से शाम 5ः30 बजे तक)

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