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विश्व आदिवासी दिवस 2019 : इंडिजिनस दर्शन का महत्व
डॉ आयशा गौतम सहायक प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र विभाग, डीयू प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल के अनुसार, हम मनुष्यों की चीजों को द्विभाजन में देखने की प्रवृत्ति ही विभिन्न प्रकार के विरोधाभास को जन्म देती है. डाइकोटॉमी (द्विभाजन) के लेंस को अवधारित करते ही हम चीजों तथा लोगों को अच्छे बनाम बुरे, श्रेष्ठ बनाम हीन जैसे विभिन्न वर्गों […]
डॉ आयशा गौतम
सहायक प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र विभाग, डीयू
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हेगेल के अनुसार, हम मनुष्यों की चीजों को द्विभाजन में देखने की प्रवृत्ति ही विभिन्न प्रकार के विरोधाभास को जन्म देती है.
डाइकोटॉमी (द्विभाजन) के लेंस को अवधारित करते ही हम चीजों तथा लोगों को अच्छे बनाम बुरे, श्रेष्ठ बनाम हीन जैसे विभिन्न वर्गों में विभाजित कर देते हैं और दूसरों से आगे बढ़ने की रेस में शामिल हो जाते है. इस विभाजन से ही असमानता जैसे विध्वंसकारी प्रणाली का जन्म होता है. आदिवासियों की प्रथागत कानून, त्योहार, जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार तथा उनकी जीवनशैली का अगर विस्तृत विवेचन किया जाये, तो यह समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी कि द्विभाजन नामक सिद्धांत की जगह आदिवासियों ने तालमेल/ सामंजस्य नामक सिद्धांत को हमेशा सर्वोपरि माना है.
इन प्रतिवादों के ही संदर्भ में शायद इंडिजिनस दर्शन तथा इंडिजिनस ज्ञान प्रणाली की महत्ता को स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर में भी स्वीकारा जा रहा है. आदिवासी दर्शन और आदिवासियों के जीवन जीने की शैली मनुष्यों, गैर-मनुष्यों और प्रकृति के बीच संतुलन को बनाये रखने का सबसे अच्छा उदाहरण है. क्रमागत उन्नति के सिद्धांत को सही मायने में शायद आदिवासी दर्शन ने ही समझा है. आज भी कई आदिवासी समूह धरती की पहली उपज (अनाज, फल, फूल) को धरती को ही अर्पित कर देते हैं.
इससे वे यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रकृति में अंकुरण और विकास की विधि यथावत कायम रहे. जिस सतत विकास के फाॅर्मूले को लोगों ने दो दशक पहले ही समझा, उसके सूत्र का पालन आदिवासी अनंत काल से कर रहे हैं. जल, जंगल, जमीन को बचाने की आदिवासियों की मुहिम इसी समझ का प्रत्यक्ष प्रमाण है. यही कारण है कि यूनाइटेड नेशन ने आदिवासी दर्शन को ‘सेवंथ जनरेशन फिलोसॉफी’ की संज्ञा दी है.
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