आदिवासी दिवस पर विशेष: पर्यावरण का सवाल और आदिवासी
नयन सोरेन पीएच डी स्कॉलर, आइआइटी, दिल्ली जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है, प्रति व्यक्ति जमीन और संसाधन की उपलब्धता कम हो रही है. जमीन के लिए जंगल काटे जा रहे हैं, जलस्रोत घट रहे हैं और जीवाश्म ईंधन का बेतरतीब इस्तेमाल पर्यावरण समस्याओं को बढ़ा रहा है. हमारे पास इनका समाधान भी है, लेकिन सीमित […]
नयन सोरेन
पीएच डी स्कॉलर, आइआइटी, दिल्ली
जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ रही है, प्रति व्यक्ति जमीन और संसाधन की उपलब्धता कम हो रही है. जमीन के लिए जंगल काटे जा रहे हैं, जलस्रोत घट रहे हैं और जीवाश्म ईंधन का बेतरतीब इस्तेमाल पर्यावरण समस्याओं को बढ़ा रहा है. हमारे पास इनका समाधान भी है, लेकिन सीमित राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इसका अनुपालन करने की कोशिश हो रही है. ऐसे में आज पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में आदिवासियों के योगदान को स्वीकार किये जाने की जरूरत है.
संयुक्त राष्ट्र के आदिवासी मामलों के स्थायी फोरम की 2007 में जारी रपट के मुताबिक, आदिवासी समुदाय विश्व के कुल 80 फीसदी सांस्कृतिक और जैव विविधता के संरक्षण और संवर्धन के लिए सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं. बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में लोगों ने हर वस्तु की कीमत लगायी है, लेकिन इस तरह से संसाधनों के मूल्य का सही आकलन शायद मुमकिन नहीं है. जिस वस्तु का विनिमय मूल्य नगण्य होता है, अक्सर उनका प्रयोग मूल्य बहुत ज्यादा होता है. जैसे जल, जिसका जिक्र सबसे पहले ‘हीरक-पानी विरोधाभास’ में अर्थशास्त्र के पिता एडम स्मिथ ने किया था. दरअसल, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में संसाधनों का सही मूल्य लगाने में हम नाकाम रहे हैं. इसलिए जंगल घट रहे हैं.
आदिवासी समुदाय पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन स्वस्थ मंत्रालय, भारत सरकार की नवीनतम ‘ट्राइबल हेल्थ रिपोर्ट’ के अनुसार भारत के आदिवासी समुदाय के आधे लोग अपना प्राकृतिक आवास छोड़ चुके हैं. आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण करने में तमाम देशों की सरकारें विफल रही हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के वर्तमान परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में आदिवासियों को उनका हक देना चाहिए.