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विश्व आदिवासी दिवस 2019 : आदिवासी प्रतिरोध में निहित आकांक्षाओं को समझने की दरकार

प्रो जोसेफ बारा इतिहासकार संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व आदिवासी दिवस सभी आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का एक विशेष अवसर है. आक्रामक उपनिवेशवादियों द्वारा हर जगह के स्थानीय आदिवासियों का भयावह दमन जगजाहिर है. इसके विरोध में बीसवीं सदी के शुरू से ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों ने स्वयं को […]

प्रो जोसेफ बारा
इतिहासकार
संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व आदिवासी दिवस सभी आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने का एक विशेष अवसर है.
आक्रामक उपनिवेशवादियों द्वारा हर जगह के स्थानीय आदिवासियों का भयावह दमन जगजाहिर है. इसके विरोध में बीसवीं सदी के शुरू से ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों ने स्वयं को ‘फर्स्ट नेशन’ कहते हुए पहले राष्ट्र संघ और बाद में संयुक्त राष्ट्र के सामने आवाज उठायी थी. उनके सघन प्रयासों के कारण 1989 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में उनके अधिकारों और आकांक्षाओं को स्वीकार किया गया, पर सम्मेलन के विचारों पर सदस्य देशों की सहमति जुटाने में बहुत समय लगा और जून, 2006 में संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे पर एक ‘घोषणा’ को स्वीकृत कर लिया.
कुछ प्रावधानों से असहमत होने के कारण कई देशों की तरह भारत ने भी इस घोषणा पर हस्ताक्षर नहीं किया है. फिर भी, यह अचरज की बात है कि हमारा देश हर साल विश्व आदिवासी दिवस मनाता है. असल में भारत सरकार ने कभी भी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से संबंधित प्रक्रिया में गंभीरता नहीं दिखायी है. देश के पास आदिवासी समुदायों के संरक्षण के लिए अपना राष्ट्रवादी विमर्श है. संविधान सभा के कुछ आदिवासी प्रतिनिधियों में से एक जयपाल सिंह ने आदिवासी दृष्टिकोण और आकांक्षाओं को सामने रखने की पुरजोर कोशिश की थी.
अनेक सवालों को खारिज किये जाने के बावजूद संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों पर जयपाल सिंह के विचारों की छाप है.
एक दशक बाद जयपाल सिंह के समूचे विचारों की गूंज 1958 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पंचशील के तहत व्यक्त आदिवासी नीति तथा 1960 के ढेबर आयोग की रिपोर्ट में अभिव्यक्त हुई. नेहरू ने आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक ‘मेधा’ को चिह्नित करते हुए बाहर से ‘किसी चीज को थोपने’ के बजाय उनका उपयोग आदिवासी विकास के लिए करने पर जोर दिया था.
नेहरू के विचारों और संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की वैचारिकी में बहुत समानता है. आज जब हम विश्व आदिवासी दिवस मना रहे हैं, तो यह देश के लिए आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए कि भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित हिस्सों में से एक आदिवासियों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कितना कुछ किया सका है.
सरकारी आयोजन अक्सर औपचारिक और नियमित होते हैं. इसके उलट देश के अलग-अलग भागों में आदिवासियों में इस दिवस के प्रति उत्साह को देखा जा सकता है. यह उत्साह आम तौर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों और लोकप्रिय गीत-नृत्य के रूप में प्रतिबिंबित होता है, परंतु इन अभिव्यक्तियों में मनुष्य जीवन के लिए प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित उपयोग के आग्रह की अंतर्धारा होती है, जो ‘जल, जंगल, जमीन’ के नारे में गूंजती है.

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