प्रभात खबर खास: अमिट छाप छोड़नेवाले आत्मीय मित्र
एम वेंकैया नायडु उपराष्ट्रपतिबीते 10 दिनों में दो प्रतिष्ठित और प्यारे दोस्तों जयपाल रेड्डी और सुषमा स्वराज को खो देना मेरे लिए बड़ी क्षति है. एस जयपाल रेड्डी और सुषमा स्वराज मेरे लिए वास्तव में भाई-बहन जैसे थे. जयपाल मेरे बड़े भाई जैसे, तो सुषमा छोटी बहन की तरह.हालिया समय में देश में लोकप्रिय दोनों […]
एम वेंकैया नायडु उपराष्ट्रपति
बीते 10 दिनों में दो प्रतिष्ठित और प्यारे दोस्तों जयपाल रेड्डी और सुषमा स्वराज को खो देना मेरे लिए बड़ी क्षति है. एस जयपाल रेड्डी और सुषमा स्वराज मेरे लिए वास्तव में भाई-बहन जैसे थे. जयपाल मेरे बड़े भाई जैसे, तो सुषमा छोटी बहन की तरह.हालिया समय में देश में लोकप्रिय दोनों बेहतरीन सांसद, कुशल प्रशासक और ओजस्वी वक्ताओं में से एक थे. दोनों में बहुत-सी समानताएं थीं, तो कुछ अंतर भी. उनकी योग्यता, अशक्तता और लंबे सार्वजनिक जीवन की सफलता में समानताएं थीं.
पहले अशक्तता. सतहत्तर वर्षीय जयपाल रेड्डी के लिए पोलियो गंभीर बाधा थी, लेकिन यह उनके उत्साह को कभी कम नहीं कर सका. अपने शब्दों, कर्मों और उपलब्धियों से उन्होंने ‘अलग सक्षमता’ के वास्तविक अर्थ को स्पष्ट किया और साबित किया कि वे असाधारण रूप से सक्षम हैं.मैं अक्सर उनसे पूछता था कि क्या उन्होंने यह महसूस किया है कि शारीरिक अक्षमता बाधा बन रही है? वे ऐसे विचारों को दरकिनार कर देते थे और कहते थे कि उत्साह ज्यादा मायने रखता है. उनके अदम्य उत्साह में शारीरिक अक्षमता कभी बाधा नहीं बनी.
उनका जीवन रचनात्मक भावनाओं का अपरिवर्तनीय गाथा है. वे सभी बाधाओं को दूर कर अविश्वसनीय ऊंचाई पर पहुंचे.एस जयपाल रेड्डी ओजस्वी वक्ता और बौद्धिक व्यक्तित्व थे, जो प्रत्येक मुद्दे के विश्लेषण की योग्यता रखते थे. कुशाग्र बुद्धि और दक्षता के साथ अपने दल के मजबूत प्रवक्ता थे. वे महान बौद्धिक और अंग्रेजी व तेलुगु, दोनों भाषाओं में बेहतरीन वक्ता थे. आंध्र प्रदेश विधानसभा में हम दोनों आमने-सामने होते थे और विभिन्न मसलों पर चर्चा करते थे. सत्ताधारी दल के सदस्य अक्सर हमें तिरुपति वेंकट कावुलु कहा करते थे, हमारी तुलना तेलुगु के दो प्रसिद्ध कवियों से करते थे, जो संयुक्त रूप से कविताएं करते थे.हमारे सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में लैंगिक भेद आज भी बड़ा मुद्दा है. महिलाओं को उनका हक दिलाने में कई बाधाएं हैं. 67 वर्षीया सुषमा स्वराज ने इस ‘सामाजिक अक्षमता’ को चुनौती दी.
जयपाल की तरह उन्होंने भी अपने शब्दों, कर्मों और सफलता से कई सामाजिक बाधाओं को पार किया. हरियाणा के रुढ़िवादी समाज में जन्मी सुषमा ने अपना सफर राज्य की सबसे युवा कैबिनेट मंत्री से लेकर अपना कार्यकाल पूरा करनेवाली देश की पहली विदेश मंत्री के रूप में किया. यह किसी मानक से कम उपलब्धि नहीं थी.अब असमानता. वैचारिक रुझान के आधार पर जयपाल और सुषमा में भिन्नता थी, लेकिन राजनीतिक घटनाक्रम में दोनों की स्थिति एक समय एक जैसी थी. आपातकाल के बाद से जयपाल जनता पार्टी में थे, लेकिन अपनी राजनीतिक संबद्धता के आधार पर देश निर्माण में दोनों ही समर्पित रहे.
आंध्र प्रदेश की राजनीति में जयपाल और मैं लंबे समय तक सहयात्री रहे. राज्य विधानसभा की कार्यवाही में लोकहित के मुद्दों को हम मुखरता से उठाते थे तथा सरकार की चूक और आयोगों पर केंद्रित करते थे. जब मैंने वर्ष 1978 में पहली बार आंध्र प्रदेश की विधानसभा में प्रवेश किया, तो विधानसभा में एक कार्यकाल वरिष्ठ होने के नाते वे शुरुआती वर्षों में मित्रवत मार्गदर्शक थे. हम एक-दूसरे के घर प्रत्येक दिन नाश्ते पर मिलते थे और विधानसभा में दिन के एजेंडे को तय करते और चर्चा करते थे. विधानसभा में हमारे हस्तक्षेप के आधार पर मीडियाकर्मी अपने अगले दिन के समाचारों के लिए हमसे पूछते थे और उसके साथ ही दिन का अंत होता था.
पारंपरावादी परिवार में जन्मे जयपाल ने आधुनिक न्याय एवं अधिकार आधारित परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक जीवन को ऊंचाई दी. उन्होंने कभी नैतिक और राजनीतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया और न ही राजनीतिक दल और नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने से हिचकिचाये. हम अक्सर अपने देश में बदलाव और राजनीतिक सुधार के मुद्दों पर चर्चा करते थे. राजनीति में सुषमा हमारी आत्मीय सहयोगी रहीं. हमारे बीच मजबूत अपनापन था, जो दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होता गया, उनके अंतिम समय तक. जब मैं सुषमा को श्रद्धांजलि देना पहुंचा, तो उनकी बेटी बांसुरी आंखों में आंसू लिये फफक पड़ी.
मां को याद करते हुए उसने कहा- वह कहती थीं कि हर बार जब मैं वेंकैया जी से मिलती हूं, तो तमाम तरह के विचारों के बोझ से हल्का महसूस करती हूं, जैसे कोई बहन अपने बड़े भाई से मिलती है. क्रूर नियति ने मेरे हाथों से मेरी एक स्नेहमयी बहन को छीन लिया. मैं सुषमा के राजनीतिक सफर से जुड़ा रहा. यह बढ़ता गया और कई मोड़ आते रहे. साल 1998 में जब मैं कर्नाटक का प्रभारी था, मेरे सुझाव पर वह कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ने को तैयार हो गयी थीं. बाद में जब पार्टी की तरफ से मैं दिल्ली का प्रभारी बनाया गया, तो उन्होंने दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना स्वीकार किया. वह हार और जीत, दोनों स्थिति में शालीन रहती थीं.