मोबाइल इंटरनेट पर जब सब देखेंगे तो पढ़ेगा कौन?
राजेश प्रियदर्शी डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी एक शोध के मुताबिक, भारत के लोग औसतन ढाई घंटे सोशल मीडिया पर बिता रहे हैं, इसका तकरीबन आधा समय यानी सवा घंटे वे यूट्यूब के वीडियो देखने में लगा रहे हैं. बाजार से ज्यादा समझदार कौन है? यूट्यूब पर विज्ञापनों की भरमार है. प्रिंट और टीवी के मुकाबले […]
राजेश प्रियदर्शी
डिजिटल एडिटर, बीबीसी हिंदी
एक शोध के मुताबिक, भारत के लोग औसतन ढाई घंटे सोशल मीडिया पर बिता रहे हैं, इसका तकरीबन आधा समय यानी सवा घंटे वे यूट्यूब के वीडियो देखने में लगा रहे हैं. बाजार से ज्यादा समझदार कौन है? यूट्यूब पर विज्ञापनों की भरमार है. प्रिंट और टीवी के मुकाबले वीडियो के विज्ञापन ज्यादा टार्गेटेड हैं.
करीब बीस साल पहले अखबारों और मीडिया समूहों ने वेबसाइट या पोर्टल शुरू करने के बारे में सोचना शुरू किया. निवेश ठिठक-ठिठकर आता रहा, क्योंकि लागत निकालना मुश्किल काम था. धीरे-धीरे वेबसाइटों को विज्ञापनों के जरिये थोड़ी आमदनी होने लगी, लेकिन उतनी नहीं जितनी उम्मीदों के साथ वेबसाइटें शुरू की गयी थीं.
वेबसाइटें आर्थिक तौर पर भले ही लड़खड़ाकर चल रही थीं, लेकिन उनकी लोकप्रियता एप्प, डेलीहंट जैसे एग्रीगेटरों और सोशल मीडिया की मदद से तेजी से बढ़ रही थी. यही वजह थी कि ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने साइटों को चलाये रखा. कुछ प्रिंट में छपनेवाली खबरों को ही जस-का-तस परोसती रहीं, तो कुछ साइटों ने मोबाइल इंटरनेट की जरूरतों के हिसाब से सामग्री तैयार करने पर जोर दिया.
पिछले पांच सालों में कई ऐसी साइटें आयीं, जिनका कोई बना-बनाया ब्रैंड नहीं था, लेकिन अपने अनूठेपन और पत्रकारिता की धार की वजह से उन्होंने बहुत जल्दी अपनी पहचान बना ली. ‘स्क्रॉल’, ‘द वायर’, ‘इन शॉर्ट्स’, ‘द प्रिंट’ और ‘क्विंट’ कुछ ऐसे ही ब्रैंड हैं, जो खालिस तौर पर मोबाइल इंटरनेट का इस्तेमाल करनेवाले लोगों को ध्यान में रखकर शुरू किये गये, बहुत जल्दी उनका कंटेंट पढ़ा और सोशल मीडिया पर शेयर किया जाने लगा.
नोकिया के पुराने फोन की जगह धीरे-धीरे भारत के करोड़ों हाथों में चीपी स्मार्टफोन आ गये. यह कोई मामूली बदलाव नहीं था, लेकिन इसके बावजूद मामला अभी अधूरा ही था, क्योंकि डेटा काफी महंगा था और कनेक्टिविटी ऐसी नहीं थी कि कोई वीडियो बिना रुके देखे जा सकें.
देश के सभी अग्रणी अखबारों की वेबसाइटें इस बात की जरूरत महसूस करने लगीं कि उन्हें वीडियो कंटेंट भी देना चाहिए. टीवी चैनलों से जुड़ी साइटों के लिए यह आसान था, लेकिन अखबार के कंधे पर सवार वेबसाइटों के लिए यह मुश्किल काम था. मीडिया संस्थान इस दिशा में कुछ ठोस कर पाते इससे पहले ही एक बड़ा धमाका हुआ, उस धमाके का नाम ‘जियो’ है.
अब लोगों के पास स्मार्टफोन था, जो वीडियो दिखा सकता था, जिओ ने डेटा कनेक्टिविटी इतने सस्ते में दी कि लोग अपने मोबाइल की स्क्रीन से चिपककर एक-के-बाद-एक वीडियो देखने लगे. फेसबुक और यूट्यूब जैसी साइटों ने ऑटोस्ट्रीम का ऑप्शन ऑन कर दिया, यानी बिना चलाये ही वीडियो चलने लगे, लोगों को यह जादू की तरह लगा.
अब मोबाइल पर वीडियो देखने और शेयर करने का जुनून लगातार बढ़ता जा रहा है. नयी पीढ़ी, अर्धशिक्षित, अल्पशिक्षित, ग्रामीण और यहां तक कि निरक्षर आबादी भी मोबाइल वीडियो न सिर्फ देख रही है, बल्कि बना और शेयर कर रही है. चीनी मोबाइल मीडिया कंपनी ‘टिक टॉक’ की कामयाबी ने परंपरागत मीडिया तंत्र को हैरान कर दिया है.
‘विडियोली’ के एक शोध के मुताबिक, भारत के लोग औसतन ढाई घंटे सोशल मीडिया पर बिता रहे हैं, इसका तकरीबन आधा समय यानी सवा घंटे वे यूट्यूब के वीडियो देखने में लगा रहे हैं. बाजार से ज्यादा समझदार कौन है? यूट्यूब पर विज्ञापनों की भरमार है. प्रिंट और टीवी के मुकाबले वीडियो के विज्ञापन ज्यादा टार्गेटेड हैं.
उसके बाद सटीक आंकड़े भी मिलते हैं कि उस विज्ञापन को कितने लोगों ने देखा, यह सुविधा प्रिंट के पास नहीं है, टीवी के मामले में बहुत सीमित है. और तो और, हिंदी में टाइप करना सीखने या उसका की-बोर्ड इस्तेमाल करने की मेहनत से बचने के लिए लोग बोलकर यानी वॉइस सर्च कर रहे हैं. कुल-मिलाकर ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जो न तो पढ़ना चाहते हैं, न ही लिखना चाहते हैं. यह एक नया बाजार है.
मोबाइल इंटरनेट क्रांति अब ‘इंडिया’ से ‘भारत’ पहुंच चुकी है. यह बहुत बड़ा बदलाव है और मीडिया उद्योग के लिए अवसर और चुनौती दोनों है. यूट्यूब के अपने आंकड़े बताते हैं कि अब यूट्यूब पर बिताये गये समय का 60 प्रतिशत हिस्सा देश के छह बड़े शहरों के बाहर से आता है. यही नहीं, सभी क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में यूट्यूब कंटेंट बनाया जा रहा है, और इस सामग्री को देखनेवाले लोग गांवों और कस्बों में बैठे हैं.
साल 2016 में भारत में मोबाइल डेटा की खपत प्रति महीने 20 करोड़ जीबी थी, 2018 के अंत में यह संख्या 370 करोड़ जीबी तक पहुंच गयी थी. इसमें 29 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण भारतीय लोगों का योगदान है, जिनकी तादाद दो साल पहले महज 18 करोड़ थी. वीडियो कंटेंट का एक बहुत बड़ा हिस्सा घटिया, अर्थहीन, तथ्यहीन और फूहड़ है.
खुद को लोगों का जीवन बेहतर बनाने का माध्यम समझनेवाले सभी मीडिया संस्थानों के सामने यही चुनौती है कि अब तक मोबाइल इंटरनेट से वंचित रहे करोड़ों-करोड़ ग्रामीण, गरीब और अल्प-शिक्षित या अशिक्षित आबादी के लिए बेहतर वीडियो तैयार करें, क्योंकि यह पूरे देश, लोकतंत्र और समाज की फौरी जरूरत है.
आज एक बात तो तय है कि लोगों को पढ़ने के लिए मनाना आसान काम नहीं है. इसके लिए लिखनेवालों को सोचना होगा कि वे क्या और कैसे लिखें, ताकि कोई वीडियो देखने की जगह, उन लिखे हुए अक्षरों को पढ़ना चाहे.