पुण्यतिथि पर विशेष : …और जब 1984 में कांग्रेस के चक्रव्यूह में फंसे थे अटल बिहारी वाजपेयी
अनुज कुमार सिन्हापूर्व प्रधानमंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की आज पहली पुण्यतिथि है. वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ और दिल्ली के एम्स अस्पताल में उन्होंने 16 अगस्त, 2018 को शाम 5 बजकर 5 मिनट पर अंतिम सांस ली. आइए आज आपको फ्लैश बैक में […]
अनुज कुमार सिन्हा
पूर्व प्रधानमंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की आज पहली पुण्यतिथि है. वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ और दिल्ली के एम्स अस्पताल में उन्होंने 16 अगस्त, 2018 को शाम 5 बजकर 5 मिनट पर अंतिम सांस ली. आइए आज आपको फ्लैश बैक में ले जाते हैं और साल 1984 के चुनाव के बारे में बताते हैं…
-वाजपेयी को आभास भी नहीं था कि ग्वालियर के लिए कांग्रेस ने की है इतनी बड़ी तैयारी
यह 1984 का चुनाव था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चुनाव हो रहा था. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे किसी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ें ताकि उन्हें पूरे देश में चुनाव प्रचार करने का पूरा समय मिल सके. इसके लिए ग्वालियर सीट का चुनाव किया गया. वाजपेयी वहां से 1971 का चुनाव जीत चुके थे. ग्वालियर वाजपेयी का जन्म स्थान भी था. इसके साथ उन्हें राजमाता विजयाराजे सिंधिया का समर्थन भी था. सिंधिया परिवार से ग्वालियर से किसी और के चुनाव लड़ने की बात भी नहीं थी. माधव राव सिंधिया के अपनी मां से जरूर विवाद चल रहे थे, लेकिन कांग्रेस ने ग्वालियर से एक कमजोर प्रत्याशी विद्या राजदान का नामांकन कराया था. सिंधिया ने गुना सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर नामांकन भरा था. सारा कुछ ठीक चल रहा था. वाजपेयी भी आसान जीत की उम्मीद कर रहे थे. लेकिन, भाजपा या वाजपेयी को इस बात का आभास भी नहीं था कि ग्वालियर सीट के लिए कांग्रेस ने कितनी बड़ी तैयारी कर रखी है. कांग्रेस हर हाल में वाजपेयी को रोकना चाहती थी.
नामांकन के बचे थे मात्र डेढ़ घंटे
नामांकन का अंतिम दिन आ गया. जब नामांकन खत्म होने में डेढ़ घंटे बचे थे, अचानक माधव राव सिंधिया अपने मित्र बालेंदू शुक्ल के साथ ग्वालियर पहुंचे और वहां से नामांकन कर दिया. वाजपेयी को पता चला. समय कम था, लेकिन उन्होंने भिंड जा कर नामांकन करने का प्रयास किया. तब तक नामांकन का वक्त खत्म हो गया था. (उस साल भिंड से सिंधिया की बहन वसुंधरा राजे ने चुनाव लड़ा था.) सिंधिया खुद जब ग्वालियर आ गये, तो उन्होंने गुना से अपना नामांकन वापस ले लिया और वहां से अपने मित्र महेंद्र सिंह कालूखेदा को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया. वाजपेयी कांग्रेस के चक्रव्यूह में फंस चुके थे. कांग्रेस ने सिंधिया को गुना से नामांकन पत्र भरवा कर वाजपेयी को गुमराह कर दिया था.
सिंधिया परिवार के काफी करीबी थे वाजपेयी
ऐसी बात नहीं थी कि वाजपेयी माधव राव सिंधिया से डरते थे. सिंधिया परिवार से वाजपेयी का करीबी संबंध था. ग्वालियर महाराज जीवाजी राव सिंधिया से वाजपेयी के पिता के संबंध थे. महाराज ने ही वाजपेयी की उच्च शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की थी. उन्हें 75 रुपये प्रति माह की छात्रवृत्ति दी थी. राजमाता को वाजपेयी ने ही जनसंघ में लाया था. वे भाजपा में शीर्ष पदों पर रहीं. वाजपेयी ने पूरी जिंदगी सिंधिया परिवार से अपने रिश्ते को निभाया. कांग्रेस जानती थी कि अगर वाजपेयी को ग्वालियर से कोई हरा सकता है, तो सिर्फ माधव राव सिंधिया. अगर वाजपेयी को पहले मालूम हो जाता कि सिंधिया ग्वालियर से लड़ना चाहते हैं, तो पुराने संबंध को देखते हुए वे पहले ही वहां से चुनाव लड़ने से इनकार कर देते. दूसरा क्षेत्र चुनते और वहां से जीत जाते. कांग्रेस उन्हें ग्वालियर में ही उलझाये रखना चाहती थी. इसमें वह सफल भी रही. चुनाव प्रचार के दौरान एक बार भी वाजपेयी ने सिंधिया या सिंधिया घराने के खिलाफ कुछ नहीं बोला.