लोक पर्व भादु की दिलचस्प कहानी, जानें
दीपक सवाल झारखंड और पश्चिम बंगाल में मनाये जाने वाले प्रायः सभी लोक पर्वों का इतिहास काफी रोचक है. भादु पर्व भी कुछ ऐसा ही निराला है. एक ‘शोक पर्व’ के ‘लोक पर्व’ में स्थापित होने की यह दिलचस्प कहानी है. भद्रेश्वरी नामक एक राजकुमारी के कथित तौर पर सती हो जाने के बाद हर […]
दीपक सवाल
झारखंड और पश्चिम बंगाल में मनाये जाने वाले प्रायः सभी लोक पर्वों का इतिहास काफी रोचक है. भादु पर्व भी कुछ ऐसा ही निराला है. एक ‘शोक पर्व’ के ‘लोक पर्व’ में स्थापित होने की यह दिलचस्प कहानी है. भद्रेश्वरी नामक एक राजकुमारी के कथित तौर पर सती हो जाने के बाद हर साल उसे ‘भादु पर्व’ एवं ‘भादु गान’ के रूप में याद करने का प्रचलन शुरू हुआ था. इसके गीतों में इसकी पूरी कहानी समायी हुई है.
कालातंर में यह दो राज्यों में लोक पर्व में तब्दील होकर आस्था एवं विश्वास का प्रतीक पर्व बन गया है. वैसे, भादु गान की उत्स भूमि मानभूम (पुरुलिया) है. इसके अंतर्गत ही पंचकोट की अंतिम राजधानी काशीपुर अवस्थित है. इस पर्व का संबंध इसी काशीपुर राजघराना से जुड़ा हुआ है.
पुरुलिया, पश्चिम बांकुड़ा, पश्चिम वर्द्धमान के कई इलाकों के अलावा झारखंड के रांची जिले के सिल्ली, मुरी, बुंडू, तमाड़ समेत समग्र पंच परगनिया एवं छोटानागपुर प्रमंडल सहित झारखंड के कुछ अन्य हिस्सों में भादु गान का प्रचलन है. इसे विशेष तौर पर कुंवारी कन्याएं गाती-मनाती हैं. पूरा उत्सव स्त्री पर केंद्रित है. इसमें पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. केवल बीरभूम जिले में यह उत्सव पुरुष केंद्रित है. अन्य जिलों में रीति रिवाजों के साथ बीरभूम जिला के भादु गान अलग होने पर इसकी आलोचना भी होती रही है.
काशीपुर राजघराना के लावण्य किशोर नाथ सिंह देव एवं भवुनेश किशोर सिंह देव का मानना है कि जब काशीपुर में राजा नीलमनि सिंह का शासन था, तब किसी ब्राह्मण परिवार में जन्मी एक बच्ची की काफी अवहेलना हो रही थी. उसके लालन-पालन में परिवार विशेष ध्यान नहीं देता था.
इसकी जानकारी जब राजा नीलमनि सिंह को हुई, तो करीब सात-आठ वर्षीय उस बच्ची को वे अपने पास ले आये और अपनी बेटी की तरह उसका पालन-पोषण किया. वह राजकुमारी की तरह ही राजमहल में पली-बढ़ी. उसका नाम भद्रेश्वरी कुमारी था. वह विलक्षण प्रतिभा की धनी थी. उसका विवाह वर्द्धमान के राजपुत्र के साथ तय हुआ था.
बारात आने के क्रम में इलाम बाजार के आगे चौपारी के सालबन में डकैतों के हाथ उस राजपुत्र की मृत्यु हो गयी. इससे पूरा पंचकोट शोक में डूब गया. इसकी जानकारी मिलने पर भादु ने अपने होने वाले पति के साथ-साथ स्वयं देह त्याग दी. बताया गया कि उसकी याद को बनाये रखने के लिए ही एक शोक पर्व के रूप में हर साल भादु पर्व मनाने की शुरुआत हुई और लोकगीतों में उसे याद किया जाने लगा. धीरे-धीरे इस पर्व का प्रचार-प्रसार होता गया. काशीपुर राजघराना की महिलाएं-युवतियां आज भी इससे जुड़े लोकगीतों को गाकर भादु को याद करती है.
भादु गान की सृष्टि के बारे में 1985 में गजेटियर ऑफ बंगाल में पुरुलिया ग्रंथ में भी प्रकाशित हुआ है. इसके अनुसार, राजकन्या भद्रेश्वरी का विवाह एक राजपुत्र के साथ तय हुआ था. शादी के लिए आने के समय डकैत के हाथों मारे गये थे. इसकी खबर राजाबड़ी पहुंचते ही पूरा राजामहल शोक में डूब गया और भद्रेश्वरी भी इस शोक में सती हो गयी. हालांकि, उनके होने वाले पति किस राजपरिवार के थे, इसका उल्लेख इसमें कहीं नहीं मिलता है.
वैसे, इस पर्व को लेकर एक किंवदंती यह भी है कि पंचकोट के राजा की लड़ाई छातना राजा के साथ हुई थी. इसमें छातना राजा पराजित हुए थे. तब पंचकोट राजा ने इसकी जीत की खुशी में भादु पर्व की शुरुआत की. हालांकि, पंचकोट इतिहास में छातना राजा के साथ युद्ध होने का कोई लिखित उल्लेख नहीं है. क्योंकि, छातना राजा के साथ पंचकोट राजा की मित्रता थी.
पंचकोट राजपरिवार में जब विपत्ति आई थी, तब नाबालिग राजपुत्र मनिलाल शेखर को छातना के राजा ने ही आश्रय दिया था. माना जाता है कि यह 1750-51 की घटना है. इसका उल्लेख पंचकोट के इतिहास में भी मिलता है. यही कारण है कि छातना राजा के साथ लड़ाई की बात किसी के लिए भी स्वीकार्य करना सहज नहीं हो पाता है.
भादु गीतीर इति कोथा ग्रंथे में एक और किंवदंती का उल्लेख मिलता है. वह यह कि देवी दुर्गा स्वर्गलोक से कुछ दिनों के लिए गायब हो गयी थी. पंचकोट राजा जंगल में मिली एक सुंदर कन्या को लेकर घर आये थे. तब राजा की अपनी कोई कन्या नहीं थी. धूमधाम से उसे राजमहल में रखा गया.
समय बीतने के बाद भगवान शिव की चिंता को देखते हुए नारद मुनि ने इसकी खोज शुरू की. इसी दौरान उनकी नजर पंचकोट में पल रही कन्या पर पड़ी और उन्हें पहचान लिया. उन्हें स्वर्गलोक की स्थिति और चिंता से अवगत कराया. फिर दुर्गा वापस स्वर्गलोक चली गयी. जाने के समय राजा को भादु पूजा करने की परामर्श दी गयी। पुस्तक के लेखक युधिष्ठिरजी के अनुसार, इस किंवदंती को राजपुरोहित ने प्रचार किया था. खैर, भादु गान के सृष्टि का इतिहास चाहे जो भी हो, लेकिन आम लोगों में यह आस्था एवं मान्यता है कि भादु की पूजा करने वाले परिवारों में अवश्य कन्या संतान होती है. यह विश्वास बंगाल-झारखंड के जन-मन में आज भी प्रबल है.
भादु पर्व भाद्र (भादो) महीने में मनाया जाता है. उल्लेखनीय है कि कृषि कार्य से जुड़े लोग भादो महीना को विश्राम काल मानते हैं. कारण कि आषाढ़ व श्रावण माह कृषि कार्य में बीतता है. इसके बाद भाद्र महीना में कृषक परिवार व्यस्त नहीं रहते हैं. उस समय चारों ओर हरियाली फैल जाती है.
तालाब, नदी में पानी लबालब भरा रहता है. नीले आकाश में धान की फसल लहलहाती नजर आती है. शरत काल के आगमन की झलक मिलती है. ऐसे समय में भाद्र मास की प्रथम तिथि में गांव की कुंवारी कन्याएं किसी घर में भादु की प्रतिष्ठा करती है. लकड़ी या मिट्टी की भादु की प्रतिमा स्थापित कर उसकी पूजा की जाती है.
फूल मालाओं से उसे सजाया जाता है. उच्च वर्गीय कृषक परिवार से लेकर निम्न वर्गीय परिवार की कुंवारी कन्याएं भादु गान गाती हैं. भादु गान मूलतः समूह गान में गाने का प्रचलन है. हालांकि इसे अकेले भी गाया जाता है. गांव के विभिन्न जगहों पर भादु प्रतिष्ठा होती है. संध्या समय में भादु गान से पूरा वातावरण गूंज उठता है.