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एक और जनी शिकार का आह्वान करती हैं ग्रेस कुजूर की कविताएं

सावित्री बड़ाईक हिंदी कविता में झारखंड की वरिष्ठ आदिवासी कवयित्री ग्रेस कुजूर के अवदानों की समुचित चर्चा अपेक्षित है. ग्रेस कुजूर ने 1980 के दशक में अपनी कवितओं के द्वारा रचनात्मक उड़ान तेज कर दी थी. हिंदी की इस वरिष्ठ एवं विशिष्ट आदिवासी स्त्री कवि ग्रेस कुजूर की अगुवाई में नयी सदी के पहले दशक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 30, 2019 8:49 AM
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सावित्री बड़ाईक
हिंदी कविता में झारखंड की वरिष्ठ आदिवासी कवयित्री ग्रेस कुजूर के अवदानों की समुचित चर्चा अपेक्षित है. ग्रेस कुजूर ने 1980 के दशक में अपनी कवितओं के द्वारा रचनात्मक उड़ान तेज कर दी थी.
हिंदी की इस वरिष्ठ एवं विशिष्ट आदिवासी स्त्री कवि ग्रेस कुजूर की अगुवाई में नयी सदी के पहले दशक के प्रथम वर्ष से ही स्त्री स्वर प्रमुखता से उभरने लगा है. ‘एक और जनी शिकार’ से इसका प्रारंभ माना जाना चाहिए. वर्तमान समय पूंजीवाद, बाजारवाद, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद का है. आदिवासी जल, जंगल, जमीन और जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
कई आदिवासी स्त्री कवि अपनी कविताओं में वर्तमान समय के यथार्थ व प्रतिरोध को असरदार ढंग से दर्ज कर रहे हैं. इसे प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने वालों में ग्रेस कुजूर का नाम सर्वोपरि है.
ग्रेस कुजूर की महत्वूपर्ण कविताएं हैं – ‘एक और जनी शिकार’, ‘कलम को तीर होने दो’, ‘हे समय के पहरेदारों’, पानी ढोती औरत, आग, ‘रेशमी सपने’, ‘धार के विपरीत’, ‘बौना संसार’, ‘नन्हीं हरी दूब’, ‘बिचौलियों के बीज’, ‘गांव की मिट्टी’, ‘मेरा आदम मुझे लौटा दो’, ‘दो बूंद आंसू’, ‘प्रतीक्षा’, ‘नाल’, ‘प्यार का बेटन’, ‘स्त्री’. वे 1996 से 2000 तक आकाशवाणी पटना में केंद्र निदेशक रही. झारखंड गठन के दौरान ‘एक और जनी शिकार’ नामक महत्वपूर्ण कविता लिखी जो पहली बार 2001 में आर्यावर्त्त में छपी.
ग्रेस कुजूर की यह अद्भुत कविता एक ही बैठक में पूरी हुई थी. वे अपनी कविताओं के द्वारा झारखंड के आदिवासी समुदाय से मुखातिब होती है संघर्ष की जमीन तैयार करती है और आंदोलनकारियों में ऊर्जा भरती हैं – हे संगी/तानों अपना तरकश/ नहीं हुआ है भोथरा अब तक/ ‘बिरसा आबा का तीर’.
हर आदिवासी समुदाय के पास संघर्ष और आंदोलन का लंबा इतिहास है. उरांव समुदाय भी अपने इतिहास से सिनगी दई, कैली दई, चंपा दई को याद करता है जिनके नेतृत्व में आदिवासी समुदाय ने तीन बार विजय प्राप्त की थी.
ग्रेस कुजूर अतीत और इतिहास को याद करती हैं और वर्तमान समस्याओं पर विचार करते हुए कह उठतीं हैं– ‘और अगर अब भी तुम्हारे हाथों की/ अंगुलियां थरथराईं/ तो जान लो मैं बनूंगी एक बार और/ ‘सिनगी दई’/ बांधूंगी फेंटा/ और कसेगी फिर से/‘बेतरा’ की गांठ/ नहीं छुपेंगी अब/ किसी ग्वालिन की कोई साठ-गांठ/ सच/ बहुत जरूरत है झारखंड में/ फिर एक बार/ एक जबरदस्त जनी-शिकार.’
वे अपनी कविताओं में झारखंड के लोगों से सीधे मुखातिब होती हैं. प्रतीक्षा में कविता की इन पंक्तियों को देखिए –
‘कुछ तो बोलो/ झारखंड की विशाल पट्टिका में रेंगते/ तांबे के तार/ क्या तुम्हारी रगों में नहीं दौड़ते?/ लोहे की धरती का पानी/ पीने के बावजूद/ हवा के एक झोंके में उड़ जाते हो/ आसाम, भूटान, ईंट भट्ठा और महानगर
ग्रेस कुजूर की कविताओं में आदिवासी संस्कृति, आदिवासी जीवन, आदिवासी जीवन मूल्य का वह पक्ष सामने आया है, जिससे दूसरे लोग अनजान थे. कवयित्री ने मध्य भारत के जंगल, नदियों, खेतों, गांव, घरों से कविता के बिंब लिए हैं और आदिवासी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा से देशज और तद्भव शब्द लेकर हिंदी कविता को समृद्ध किया है.
उनकी कविताओं में जरिए स्थानीय बिंब, मुहावरे पहली बार हिंदी कविता से जुड़े. स्वर्णरेखा सी खिलखिलाती/तुम्हारी हंसी (बिचोलियों के बीच) इंद्रधनुष सा परचम लहराना– सेमल के फाहे-सा अंतस में एक नन्हा बीज समेटे (नन्ही हरी दूब).
ग्रेस कुजूर की कविताओें में वर्तमान जलसंकट, पर्यावरण संकट, पहाड़ों को तोड़े जाने, कन्या भ्रूण हत्या, पलायन करते आदिवासी, आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने वाले युवाओं, पानी के लिए मीलों चलने वाली औरतों आदि को लेकर चिंता झलकती है.
मुझे लगता है आदिवासी स्त्री कविता में सर्वाधिक चिंतनशील और स्वप्नशील कवयित्री के रूप में ग्रेस कुजूर का नाम सर्वप्रमुख है. जल संकट और पहाड़ों के तोड़े जाने से क्षुब्ध होकर वे लिखती हैं–
न छेड़ो प्रकृति प्रकृति को/ अन्यथा यही प्रकृति/एक दिन मांगेंगी हमसे/ तुमसे अपनी तरुणाई का/ एक-एक क्षण और करेगी/ भयंकर बगावत और तब/ न तुम होगे/ न हम होंगे
ग्रेस कुजूर ने अपनी कविताओं में आदिवासी जीवन के प्रतीकों के द्वारा आदिवासियों के संघर्ष को व्यक्त किया है. उनकी कविताओं में प्रतीक और बिंब का प्रयोग प्रतिरोध की भाषा के रूप में हुआ जो एकजुट होकर संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं. उनकी भाषा पठार की पहाड़ी नदियों की तरह प्रवाहमान है. ग्रेस कुजूर की भाषा अपने समुदाय, संस्कृति के संपूर्ण यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सक्षम है.
ग्रेस कुजूर हिंदी की महत्वपूर्ण वरिष्ठ कवयित्री हैं और वर्तमान अग्नितत्व से लैस कवयित्रियों में सर्वप्रमुख हैं. कविताओं में ग्रेस कुजूर का विश्व दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है. उन्होंने परिवेश संस्कृति और इतिहास से कविता का विषय प्राप्त किया है. जो भावनाएं वे झारखंड गठन के दौरान अहर्निश महसूस कर रही थी. जो विचार मंथन उनके दिमाग में चलता था.
उसी की सफल काव्यात्मक अभिव्यक्ति है ‘कलम को तीर होने दो’ और ‘एक और जनी शिकार’. ग्रेस कुजूर ने पूरे मध्य भारत के आदिवासियों के जीवन संघर्ष को ध्यान में रखा है. वे अपने दायित्वों के प्रति सजग व सचेत हैं. वे अपनी कविताओं के द्वारा जल, जंगल, जमीन और जीवन बचाने की निरंतर प्रेरणा दे रही हैं.

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