बीते 19 अगस्त को अफगानिस्तान ने अपनी आजादी के सौ साल पूरे कर लिये, पर इस इतिहास के हर पन्ने पर युद्ध और गृहयुद्ध की त्रासदी है तथा सभ्यता-संस्कृति की विरासत तबाही के खंडहरों में बदल चुकी है.
अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते से एक नये युग के शुरुआत की उम्मीद तो है, पर इस समझौते में अब भी कई पेच हैं. यह भी एक सच है कि इस समझौते को सरकारी पक्ष और अन्य जातीय समूह किस तरह से स्वीकार या अस्वीकार करते हैं. इस पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान की स्थिति पर एक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता दूर करने और शांति बहाली के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच कई महीनों से वार्ता चल रही है. कतर की राजधानी दोहा में तीन अगस्त से 12 अगस्त के बीच दोनों पक्षों की बातचीत असफल रहने के बाद नौवें दौर की वार्ता बीते 22 अगस्त को शुरू की गयी.
हालांकि, आठ दौरों की बातचीत के बाद उम्मीद जतायी जा रही है कि नौवें दौर में वार्ता मुकाम पर पहंुंच सकती है. इसके स्पष्ट संकेत उभर रहे हैं. इस वार्ता में शामिल अमेरिकी दूत जालमे खलीलजाद ने बातचीत को उपयोगी बताया है.
दोनों पक्ष एक ऐसे समझौते की कोशिश में हैं, जिसके तहत अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हट जायेगी और तालिबान यह वादा करेगा कि देश को दुनियाभर में आतंकी हमलों के लिए आधार नहीं बनने दिया जायेगा. इसके अलावा अमेरिका यह भी चाहता है कि तालिबान अफगानिस्तान के अमेरिका-समर्थित सरकार से सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बात करे और युद्धविराम की घोषणा करे.
हालांकि, इस द्विपक्षीय बातचीत के साथ रूस, चीन और पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों के साथ भी अमेरिकी और तालिबानी प्रतिनिधियों की बैठकें हुई हैं. इनमें अफगान सरकार के प्रतिनिधियों ने भी भागीदारी की है, लेकिन अमेरिका और तालिबान की बातचीत में अफगानिस्तान सरकार शामिल नहीं है, क्योंकि तालिबान अभी तक उसे वैध सरकार नहीं मानता है और उससे कोई समझौता नहीं करना चाहता है.
पांच हजार अमेरिकी सैनिकों की होगी वापसी
तालिबान के साथ हुए मसौदा शांति समझौते के तहत अमेरिका शुरुआती चरण में अफगानिस्तान से अपने लगभग पांच हजार सैनिकों को वापस बुलायेगा और 135 दिनों के भीतर पांच सैन्य ठिकानों को बंद करेगा. तोलो न्यूज टेलीविजन को दिये एक साक्षात्कार में अमेरिका के प्रमुख वार्ताकार, जालमे खलीलजाद ने दो सितंबर को इस बात की घोषणा की.
इस समझौते के अनुसार, चरणबद्ध वापसी के बदले में तालिबान अल कायदा या इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी समूहों को अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए अफगानिस्तान को आधार बनाने की अनुमति नहीं देगा. हालांकि खलीलजाद ने यह बताने से इंकार कर दिया कि बाकी बचे हुए लगभग 14 हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में कब तक रहेंगे. खलीलजाद ने यह भी कहा कि इस समझौते का उद्देश्य युद्ध समाप्त करना था और इससे हिंसा में कमी आयेगी, लेकिन यह औपचारिक युद्धविराम समझौता नहीं है. अफगानों के बीच आपसी समझौते के लिए बातचीत जारी रहेगी.
राजदूतों ने अमेरिका को चेताया
सैनिकों की वापसी को लेकर अमेरिका के नौ राजदूतों ने चेताया है कि काबुल सरकार और तालिबान के बीच शांति समझौता से पहले अगर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी पूरी सेना वापस बुला ली, तो अफगानिस्तान ‘गृह युद्ध’ में तबाह हाे सकता है.
अफगान सरकार और तालिबान की बातचीत
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान के साथ मुलाकात के लिए एक 15 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल नियुक्त किया है, अगामी हफ्तों में नॉर्वे में इनके बीच वार्ता आयोजित हो सकती है. खलीलजाद की मानें तो इस वार्ता का उद्देश्य व्यापक राजनीतिक समझौता और काबुल में तालिबान और अफगान सरकार के बीच के युद्ध को समाप्त करना है.
काबुल में धमाका
दो सितंबर की रात जिस समय तोलो न्यूज टेलीविजन पर जालमे खलीलजाद का साक्षात्कार प्रसारित हो रहा था, उसी समय मध्य काबुल पर तालिबान द्वारा एक बड़ा हमला किया गया. ग्रीन विलेज के रिहायशी इलाके में हुए इस विस्फोट में कम-से-कम पांच लोगों की जान चली गयी.
इस इलाके में सहायता एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के कार्यालय हैं. इस हमले के बाद, बंदूक चलने और दूसरे विस्फोट की आवाज सुनायी दी, जिससे नजदीकी पेट्रोल पंप में आग लग गयी. इस वर्ष हुई 1100 से अधिक आतंकी वारदातों में 466 नागरिक, 553 सुरक्षाबल और 7175 अातंकी मारे गये हैं. वहीं, हाल ही में तकरीबन 23 तालिबानी मार गिराये गये.
विदेशी दखल मंजूर नहीं : अफगान राष्ट्रपति
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा है कि विदेशी दखल को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. उन्होंने कहा है कि इस महीने होनेवाला राष्ट्रपति चुनाव बेहद अहम है, क्योंकि देश के नेता के पास भविष्य के निर्धारण के लिए मजबूत जनादेश होगा. यह बयान मौजूदा माहौल में बहुत मानीखेज है. अमेरिका से बातचीत में तालिबान की एक मुख्य मांग यह है कि सितंबर के चुनाव को स्थगित किया जाये.
अमेरिका की कोशिश है कि जल्द से जल्द तालिबान से समझौते को पूरा कर लिया जाये. राष्ट्रपति के बयान के बाद उसी दिन कतर में तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने ईद के संदेश में कहा था कि अफगानिस्तान अगली ईद इस्लामिक तंत्र में बिना कब्जे के शांति व एकता के माहौल में मनायेगा. एक तरफ राष्ट्रपति गनी चुनाव पर अड़े हैं, तो दूसरी तरफ तालिबान ने लोगों को इससे दूर रहने को कहा है. लगभग आधे अफगानिस्तान पर काबिज तालिबान अफगानी सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों पर हमले करने से बाज नहीं आ रहा है.
ऐसे में चुनाव की तारीख 28 सितंबर तक हिंसा की वारदातें बढ़ सकती हैं. यदि चुनाव को रोका जाता है, तो यह तालिबान की जीत के रूप में देखा जायेगा. अफगानिस्तान सरकार ऐसा कर खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहेगी. पर्यवेक्षकों की मानें, तो राष्ट्रपति का बयान एक तरह से अमेरिका और तालिबान-समर्थक पाकिस्तान की ओर इंगित करते हुए दिया गया है, क्योंकि ये दोनों देश तालिबान को अलग-अलग कारणों से बहुत अधिक अहमियत दे रहे हैं.
229 जिले सरकार के नियंत्रण में
वर्ष 2001 में अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले के बाद तालिबान को सत्ता से हटना पड़ा था. इसके बाद देश के कई हिस्से विभिन्न लड़ाके समूहों के नियंत्रण में आ गये और इस नियंत्रण का विस्तार घटता-बढ़ता रहा.
अफगानिस्तान पुनर्निर्माण के विशेष महानिरीक्षक के मुताबिक, बीते वर्ष 31 जनवरी तक अफगानिस्तान के 229 जिले, जो कुल जिलों का 56.3 प्रतिशत है, अफगान सरकार के नियंत्रण में थे.
वहीं दूसरी ओर, 59 जिले, कुल जिलों का लगभग 14.5 प्रतिशत, तालिबान के नियंत्रण में थे.
शेष बचे 119 जिलों पर, जो लगभग 29.2 प्रतिशत है, न तो अफगान सरकार का नियंत्रण था, न ही विद्रोहियों का.
फरवरी, 2018 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान को बिना शर्त बातचीत के लिए आमंत्रित किया था. लेकिन तालिबान ने सरकार से किसी भी तरह की बातचीत को खारिज कर दिया और अमेरिकी अधिकारियों से बातचीत की पेशकश की थी.
पिछले साल अक्तूबर में संसदीय चुनाव के समय तालिबान द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान 10 उम्मीदवारों की हत्या कर दी गयी थी, जबकि हिंसा के कारण 33 सीटें खाली रह गयी थीं.
समझौते में भारत की भूमिका
साद मोहसेनी, अफगानिस्तान के सबसे बड़े मीडिया समूह मोबी के मालिक
अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए सऊदी अरब, खाड़ी देश और अमेरिका जैसे प्रभावशाली देशों के साथ भारत भी अपनी भूमिका निभा सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हम सभी पर इसका विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा. एक पड़ोसी होने के नाते, इस क्षेत्र में भारत का प्रभाव है. और उसी प्रभाव को देखते हुए भारत अभी भी एक समझदार भागीदार की भूमिका निभा सकता है.
हालांकि एक बार वास्तविक शांति वार्ता आरंभ हो जाने के बाद, मुझे नहीं लगता कि क्षेत्रीय सहमति के बिना किसी भी समझौता पर पहुंचा जा सकता है. ऐसी स्थिति में भारत भी इस समझौते में शामिल होगा. यहां तक कि तालिबान भी किसी शांति समझौते में भारत को एक भागीदार बनाना चाहेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि भारत कोई बाधा उत्पन्न करे.
भारत का स्पष्ट रुख
तालिबान और अमेरिका के बीच आठवें दौर की वार्ता के शुरू होने से पहले ही भारत ने सुरक्षा परिषद् को अपनी चिंता से अवगत करा दिया था. सुरक्षा परिषद् मेंं अपनी बात रखते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने कहा था कि दक्षिण एशिया में आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों को बंद करना इस शांति समझौते की पूर्व शर्त होनी चाहिए. अफगानिस्तान के गृहयुद्ध को समाप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों की सराहना करते हुए उन्होंने कहा था कि आतंकी समूह और अमेरिका के बीच हाेनेवाली बातचीत जल्दबाजी में तय की गयी है और इसमें अफगानिस्तान के हितों की बहुत ज्यादा अनदेखी हुई है.
हालांकि, भारतीय प्रतिनिधि ने राजनयिक तौर पर अमेरिका या पाकिस्तान का नाम लिए बिना आतंकी समूहों को लेकर स्पष्ट संदेश दिया था. उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि इन समूहों को हिंसा करने और आतंकी गतिविधियां अंजाम देने के लिए सीमा-पार से समर्थन हासिल है और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है.
ऐसे में इन आतंकी संगठनों को बातचीत की अनुमति नहीं देनी चाहिए. साथ ही, वास्तविक और स्थायी शांति हासिल करने के लिए आतंकी नेटवर्क को सुरक्षित पनाह देनेवालों से भी पूछताछ होनी चाहिए. भारत की तरफ से यह भी कहा गया कि शांति के लिए तालिबान, हक्कानी नेटवर्क, इस्लामिक स्टेट के साथ ही अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा व जैश-ए-मोहम्मद जैसे उसके सहयोगियों के खात्मे की जरूरत है.
प्रस्तुति : आरती श्रीवास्तव