इसरो की अहम यात्रा
अमिताभ घोष, वरिष्ठ वैज्ञानिक, नासा लैंडर से सिग्नल नहीं मिलने के अनेक मतलब हो सकते हैं, जैसे- संचार की गड़बड़ी, रोवर के साथ ऊर्जा की समस्या, लेकिन इसमें यह डरावनी आशंका भी है कि रोवर नहीं बचा होगा. वह बहुत तेज गति से चांद की सतह से टकराया होगा और टूट गया होगा.आधे दशक से […]
अमिताभ घोष, वरिष्ठ वैज्ञानिक, नासा
लैंडर से सिग्नल नहीं मिलने के अनेक मतलब हो सकते हैं, जैसे- संचार की गड़बड़ी, रोवर के साथ ऊर्जा की समस्या, लेकिन इसमें यह डरावनी आशंका भी है कि रोवर नहीं बचा होगा. वह बहुत तेज गति से चांद की सतह से टकराया होगा और टूट गया होगा.आधे दशक से भी ज्यादा समय से जारी कुछ हजार वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की बड़ी मेहनत लैंडिंग के बाद के इस अहम सिग्नल पर टिकी हुई थी क्योंकि लैंडिंग की जगह ने इसरो की इस यात्रा को महत्वपूर्ण और प्रासंगिक बना दिया था.
चंद्रयान-2 से हमेशा छाया में रहनेवाले चांद के गड्ढों में जमा पानी के बर्फ की जगह से जुड़ी सूचनाएं मिल सकती थीं. नासा और जेफ बेजोस की कंपनी ब्लू ऑरिजिंस की योजनाओं पर इसका असर पड़ेगा.
विशेष रूप से बर्फ की जगह और मात्रा से जुड़ी जानकारी, पानी निकालने, उसकी ढुलाई और भंडारण के लिए भविष्य के रोबोटिक्स अभियानों और तकनीकी विकास के प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा.
भारत और इसरो के लिए यह एक बड़ी यात्रा रही है. साल 2000 में इसरो के पास ग्रहों के अनुसंधान का कार्यक्रम नहीं था, पर अब वह एक खगोलीय पिंड पर उतरने के लिए तैयार था. ऐसा लगता है कि भारत की आशाएं और आकांक्षाएं अब कम-से-कम एक हद तक उसके अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम से जुड़ गयी हैं.
जिस तरह से चांद और मंगल के इसरो अभियानों का स्वागत हुआ है, संभव है कि अंतरिक्ष अनुसंधान एक भारतीय धुन बन जाए, जिससे सभी भारतीय सहमत भी होंगे और उन्हें इस पर गर्व भी होगा. इस यात्रा में एक अभियान की असफलता सीखने का एक बड़ा कदम भी हो सकती है.(द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख का अंश)