भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है
भारतेंदु हरिश्चंद्र आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाये वही बहुत है. बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया […]
भारतेंदु हरिश्चंद्र
आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाये वही बहुत है. बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है.
इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रकट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहां सारा समाज ही एकत्र है. राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहां हो वहां क्यों न ऐसा समाज हो. जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुल फजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया. यहां राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुल फजल और टोडरमल हैं.
हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है. यद्यपि फर्स्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते. इनसे इतना कह दीजिए ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है. सो बल कौन याद दिलावे.
हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम. राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं. हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थिएटर में समय लगा. कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरह है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें. बस यही मसल रही –
तुम्हें गैरों से कब फुर्सत, हम अपने गम से कब खाली
चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली
तीन मेंढ़क एक के ऊपर एक बैठे थे. ऊपर वाले ने कहा, ‘जौक शौक’, बीच वाल बोला, ‘गम सम’,सब के नीचे वाला पुकारा, ‘गये हम’. सो हिंदुस्तान की प्रजा की दशा यही है ‘गये हम’. पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे राजा और ब्राह्मणों के जिम्मे यह काम था कि देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावें और अब भी ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन क्या प्रति क्षण बढ़े. पर इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है.
‘बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः समर दूषिताः’ हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरुखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ कर बांस की नालियों से जो तारा, ग्रह आदि वेध कर के उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपये की लागत से विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को वेध करने में भी ठीक वही गति आती है और अब आज इस काल में हम लोगों की अंग्रेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं जब हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं.
यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है. अमेरिकन, अंग्रेज, फ्रांसिस आदि तुरकी-ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं. सब के जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें. उस समय हिंदू का टियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं. इनको औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को हांफते हुए दौड़ते देख कर के भी लाज नहीं आती. यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जायेगा फिर कोटि उपाय किये भी आगे न बढ़ सकेगा. लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आंखों में मूर्खता की पट्टी बंधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए.
मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिंदुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है. भला इस विषय पर मैं और क्या कहूं भागवत में एक श्लोक है – नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं मया नुकूलेन तपः स्वतेरितं पुमान भवाब्धि न तरेत स आत्महा.
भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता. इतना सामान पाकर भी मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाये उसको आत्म हत्यारा कहना चाहिए, वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है. अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पा कर भी हम लोग जो इस समय उन्नति न करें तो हमारे केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है.
अंग्रेजों के राज्य में भी जो हम मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो फिर हमारी कमबख्ती ही है. बहुत लोग यह कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती, बाबा, हम क्या उन्नति करें. तुम्हारा पेट भरा है तुम को दून की सूझती है. उसने एक हाथ से अपना पेट भरा दूसरे हाथ से उन्नति के कांटों को साफ किया.
क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते, किंतु वे लोग जहां खेत जोतते-बाते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी कौन नयी कल व मसाला बनावें जिससे इस खेत में आगे से दून अनाज उपजे. विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं. जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहां गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला. यहां उतनी देर कोचवान हुक्का पियेगा या गप्प करेगा. सो गप्प भी निकम्मी. वहां के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छांटते हैं. सिद्धांत यह कि वहां के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक क्षण भी व्यर्थ न जाये. उसके बदले यहां के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है. आलस्य यहां इतनी बढ़ गयी कि मलूकदास ने दोहा ही बना डाला –
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गये सबके दाता राम
चारों ओर आंख उठाकर देखिए तो बिना काम करने वालों की ही चारों ओर बढ़ती है. रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है अमीरों, मुसाहिबी, दलालों या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना इनके सिवा बताये और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले.
चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाये जाती है. वही दशा हिंदुस्तान की है. मुर्दम-शुमारी का रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहां बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है. सो अब बिना ऐसा उपाय किये काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े और वह रुपया बिना बुद्धि के न बढ़ेगा.
भाइयों, राजा-महाराजों का मुंह मत देखो. मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में ऐसा उपाय बतायेंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े. तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो, कब तक अपने को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोक पुकरवाओगे. दौड़ो इस घुड़दौड़ में, जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है.
‘फिर कब-कब राम जनकपुर एहै’ अब की जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुंचोगे. जब पृथ्वीराज को कैद कर के गोर ले गए तो शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन से किसी ने कहा कि वह शब्दबेधी बाण बहुत अच्छा मारता है. एक दिन सभी नियत हुई और सात लोहे के तावे बाण से फोड़ने को रखे गये. पृथ्वीराज को लोगों ने पहिले से ही अंधा कर दिया था. संकेत यह हुआ कि जब गयासुद्दीन ‘हूं’ करे तब वह तावे पर बाण मारे. चंद कवि भी उसके साथ कैदी था. यह सामान देख कर उसने यह दोहा पढ़ा –
अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े
जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर उसका संकेत समझ कर जब गयासुद्दीन ने ‘हूं’ किया तो पृथ्वीराज ने उसी को बाण मार दिया. वही बात अब है. ‘अब की चढ़ी’ इस समय में सरकार का राज्य पाकर और उन्नति का इतना सामान पाकर भी तुम लोग अपने को न सुधारों तो तुम्हीं रहो और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो.
धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में,बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो. सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों. चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहें तुम केवल अपने देश की दीन दशा को देखो और उनकी बात मत सुनो.
अपमान पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः स्वकार्य साधयेत धीमान कार्यध्वंसो हि मूर्खता. जो लोग अपने को देश-हितैषी मानते हों वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो. देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जायेगा. अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो. कोई धर्म की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं. उन चोरों को वहां-वहां से पकड़ कर लाओ. उनको बांध-बांध कर कैद करो.
हम इससे बढ़ कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्याभिचार करने आवे तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहां तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे उसी तरह इस समय जो-जो बातें तुम्हारे उन्नति पथ की कांटा हों उनकी जड़ खोद कर फेंक दो. कुछ मत डरो. जब तक सौ, दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जायेंगे , दरिद्र न हो जायेंगे , कैद न होंगे वरंच जान से न मारे जायेंगे तब तक कोई देश न सुधरेगा.