‘गीत गोविंद’ का खोरठा में अनुवाद किया सुधांशु शेखर ने
सुबोध चौरसिया खोरठा साहित्यकार सुधांशु शेखर दुबे उर्फ सुधांशु शेखर गंवार का एक गीत है- ‘किरिन फूटेक छने, छाती बिछ हली बोने/छवि देखी नयन जुडइली/अईसन रूप आर नाइ देखली/सोना बरन मुहेक आभा, तकर उपर लालीक सोभा/सीते भींजल लागे गुलाब कली/नाक छवि के झीकी मीकी…’ जयदेव की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीत गोविंद’ के अंशों को खोरठा में […]
सुबोध चौरसिया
खोरठा साहित्यकार सुधांशु शेखर दुबे उर्फ सुधांशु शेखर गंवार का एक गीत है- ‘किरिन फूटेक छने, छाती बिछ हली बोने/छवि देखी नयन जुडइली/अईसन रूप आर नाइ देखली/सोना बरन मुहेक आभा, तकर उपर लालीक सोभा/सीते भींजल लागे गुलाब कली/नाक छवि के झीकी मीकी…’
जयदेव की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीत गोविंद’ के अंशों को खोरठा में अनुवाद करने वाले सुधांशु शेखर गंवार का निधन बीते 08 सितंबर को हो गया. सुधांशु जी धनबाद के तोपचांची अंचल के लक्ष्मणपुर गांव के रहनेवाले थे. उनके पिता मथुरा प्रसाद दुबे व माता जानकी देवी थीं.
वह माता-पिता की इकलौती संतान थे. खोरठा के इस लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार का जन्म 08 जून, 1924 को हुआ था. वह बाल्यावस्था से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे. वह हिंदी, बांग्ला व अंग्रेजी भाषा के भी जानकार थे. संगीत में भी उनकी रुचि थी. वे वॉयलिन, फ्लूट व हारमोनियम बजाने में पारंगत थे. वन्य प्राणियों के संरक्षण व संवर्धन तथा इसकी फोटोग्राफी के शौकीन थे.
सुधांशु जी ने 1987 को जयदेव झुमैर नाम की एक पुस्तक खोरठा में प्रकाशित करायी. इसी पुस्तक का एक अंश मोनेक कथा को खोरठा विभाग में पढ़ाई के लिए उस समय रांची विश्वविद्यालय में लिया गया था. कई छात्रों ने इस पर शोध भी किया है.
दुबे की कई कविताएं झारखंड की जानी-मानी पत्रिका ‘लुआठी’ में प्रकाशित हुई है. खोरठा में लिखी दुबे की कई कृतियां, कविता संग्रह, खोरठा व्याकरण, झुमैर, इतिहास आदि अप्रकाशित रह गये हैं. इसमें प्रमुख हैं- खोरठा व्याकरण व खोरठा भाषा एक परिचय, पूजाक फूल आर सबरंग-कविता संग्रह, अपना बचपन, झारखंड का इतिहास आदि. शुरू में खोरठा की स्थिति विषम थी.
इस भाषा को न तो सही मंच मिल पाता था और न ही सही प्रकाशक. खोरठा के रचयिताओं को अपनी पुस्तकों व रचनाओं को अपनी राशि खर्च कर प्रकाशित कराना पड़ता था. ऐसी ही स्थिति में दुबे जी की रचनाएं, पुस्तकें अप्रकाशित रह गयी.
दुबे जी के रचनाओं व कविताओं में प्रेम रस की अनुभूति व्यापक रूप से पायी जाती थी. खास कर राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग मे. जैसे- रास रचे जमूना किनारे किनारे, चल राधा चल तो हे श्याम पुकारे, नील साड़ी पिन्धोना चोली बंद बांधोना, सोना रंग चुड़ी चांद मुखे ओढ़ोना…
स्व दुबे खोरठा के पुरोधा डाॅ एके झा व खोरठा जगत के विभूति अर्जुन पानुरी के समकालीन रहे थे. सत्तर-अस्सी के दशक में खोरठा को जानो और इसको जगाओ अभियान के तहत खोरठा कवि सम्मेलन का आयोजन भी इनके द्वारा किया गया था. खोरठा गीत, संगीत, साहित्य को जगाने के लिए इनका प्रयास निरंतर रहा था. उनके चले जाने से खोरठा साहित्य जगत में एक बड़ी खालीपन आ गया है, जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं दिख रही है.