महालय आज : श्रद्धा के एक फूल से प्रसन्न हो जाती हैं मां भगवती, जानें कैसे करें पूजन व व्रत-उपवास
मार्कण्डेय शारदेय ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ नवरात्रि, नवरात्रा नहीं, नवरात्र ही शुद्ध है. नवरात्र सर्वव्यापिनी मां का यह सामाजिक व लौकिक उत्सवकाल है. इसमें भी शरद ऋतु का यह काल उत्सव ही नहीं, महोत्सव काल है. ‘दुर्गासप्तशती’ में स्वयं उन्होंने ही इसे महापूजा कहा है – ‘शरत्काले महापूजा क्रियते…’(12.12). इसलिए उत्साहपूर्वक घर-घर, गांव-गांव में पूजा-पाठ, […]
मार्कण्डेय शारदेय
ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ
नवरात्रि, नवरात्रा नहीं, नवरात्र ही शुद्ध है. नवरात्र सर्वव्यापिनी मां का यह सामाजिक व लौकिक उत्सवकाल है. इसमें भी शरद ऋतु का यह काल उत्सव ही नहीं, महोत्सव काल है. ‘दुर्गासप्तशती’ में स्वयं उन्होंने ही इसे महापूजा कहा है –
‘शरत्काले महापूजा क्रियते…’(12.12).
इसलिए उत्साहपूर्वक घर-घर, गांव-गांव में पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान अवश्य चलना चाहिए. कुछ नहीं तो चलते-फिरते भी दर्शन, वंदन, स्पर्श व पूजन करना चाहिए. कहा भी गया है –
दुर्गायाः दर्शनं पुण्यं दर्शनादभिवन्दनम्।
वन्दनात् स्पर्शनं श्रेष्ठं स्पर्शनादपि पूजनम्।।
अर्थात्, देवी का दर्शन पुण्यदायक है, पर दर्शन से वंदना, वंदना से स्पर्श एवं स्पर्श से पूजन ही श्रेष्ठ है. मतलब यह कि पूजा का सर्वाधिक महत्व है, परंतु आज श्रद्धावानों के साथ समय एवं स्थान की बड़ी कमी हो गयी है. उनकी मजबूरी है कि न तो दस दिनों तक की छुट्टी लेकर व्रतोपवास कर सकते हैं, न इस शुभप्रद समय का आध्यात्मिक लाभ उठाने से दूर रह सकते हैं. ऐसे में उनके लायक सहज उपाय अपेक्षित है.
उन्हें बैठ कर पूजा न बन पड़े, तो देवीप्रतिमा का स्पर्श, वह भी न हो सके तो किसी मंदिर आदि में जाकर स्तोत्रपाठ, वंदना व प्रार्थना या दर्शन करना चाहिए, जो भी सुलभ हो.
यदि यह भी न हो, तो जानना चाहिए कि मुनिमार्ग ने हमें हर असंभव में संभव उपाय दिखाया है. विदेशों में कार्यरत लोगों के लिए मंदिर प्रायः दुर्लभ ही है. ऐसी स्थिति में सबसे आसान है कि आप सूर्य-चंद्र या जल में ही मां को मान कर जितना कर सकते हैं, करें. ऐसा निर्देश ‘देवीभागवत’ में भी है –
मूर्तौ वा स्थण्डिले वापि तथा सूर्येन्दु-मण्डले।
जलेsथवा बाणलिंगे यन्त्रे वापि महापटे….।।
(7.39.38-39)
अर्थात्, मूर्ति,अग्निकुंड, सूर्य, चंद्र, जल, शिवलिंग, यंत्र, चित्र अथवा अपने हृदय में (श्रीहृदयाम्भोजे) सबमें रहकर भी सबसे परे रहनेवाली भगवती का ध्यान करें.
सबसे महत्वपूर्ण है भावों का अर्पण : जब इतनी सुविधा शास्त्रकारों ने दी है, तो मां की आराधना से हम वंचित कैसे रह सकते हैं? उनका कृपापात्र कैसे नहीं हो सकते हैं? देश-विदेश, प्रवास, सेवाकार्य की अड़चनें ही कहां हैं?
एक बात और कि पूजा की विधियां एवं अर्पणीय वस्तुओं की संख्या बहुत है, परंतु केवल एक फूल से भी पूजा संभव है. वह भी न हो तो फूल के पौधे का कोई भाग भी चढ़ा सकते हैं. वह भी नहीं, तो भावों का अर्पण हो सकता है. तो फिर हम किसी भी स्थिति में हों, बाधकता कहां है? हां, रोग-शोक, सूतक तथा अज्ञान-भय भी हो सकता है, परंतु भावों के समर्पण में इनका कोई स्थान नहीं.
सांसारिक एवं पारलौकिक सुख सुलभ करानेवाली ममतामयी जगन्माता का यह अनुष्ठान काल यों ही नहीं गंवाना चाहिए. अपने पारिवारिक, सामाजिक व जीविकोपार्जन के साथ ही इन दस दिनों को भी दैनिक कृत्यों में जोड़ लेना चाहिए. ऐसा भी नहीं कि फांकीबाजी व लापरवाही करें, इससे आपकी राष्ट्र-हितैषी, लोकहितैषी, परिवारहितैषी व संस्थाहितैषी सेवा कुप्रभावित हो जायेगी.
न तो पुण्य होगा और न मां की प्रसन्नता ही प्राप्त होगी. हां, समय-नियोजन का सदुपयोग कर सकते हैं. कोई जरूरी नहीं कि आप रात-दिन एकांत साधना में ही लगे रहें. घंटा या मिनट में भी निर्बाध साधना-आराधना की जा सकती है.
कैसे करें पूजन व व्रत-उपवास
नवरात्र में उपवास के अनेक रूप बताये गये हैं, परंतु निराहार और भूमि-शयन का बड़ा महत्व है, पर बुद्धि की दृढ़ता एवं जितेंद्रीय होना भी निर्दिष्ट है. हां, नक्तव्रत यानी दिनभर उपवास तथा गोधूलि के बाद शुद्ध-सात्त्विक भोजन उचित है.
फिर भी सेहत को देखते हुए चलें. संयम अवश्य बरतें. स्त्रियां खुले केश पूजा न करें. पुरुष भी शिखा-बंधन एवं तिलक लगाये बिना पूजन न करें. आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा से नवमी तक की ये नौ तिथियां अत्यधिक पुण्यप्रद हैं. तन-मन की शुद्धता के साथ मां चंडिका के निमित्त घर पर कलश स्थापित करें अथवा मंदिर में भी पूजा-पाठ करें. शास्त्रीय विधियों में शुद्धिकरण के बाद अखंडदीप का पूजन तदुपरांत पंचांग-पूजन विहित है. कलश पर अथवा उच्चासन पर भगवती की प्रतिमा रखें तथा इस प्रार्थना से आवाहित करें –
आगच्छ वरदे! देवि! दैत्य-दर्प-निषूदिनि।
पूजां गृहाण सुमुखि! नमस्ते शंकरप्रिये।।
फिर ‘ऊँ दुर्गायै नमः’मंत्र से प्रातः मध्याह्न एवं सायं नित्य तीन बार पूजन करें.अतिरिक्त वस्तुओं में प्रतिपदा को केश-संस्कारक द्रव्य आंवला आदि, द्वितीया को केश बांधने का फीता आदि, तृतीया को आलता, सिंदूर आदि, चतुर्थी को काजल, बिंदी आदि, पंचमी को उबटन, चंदन-जैसे सुगंधित पदार्थ तथा अलंकार, षष्ठी को बेल वृक्ष में पूजन एवं बिल्वफल सप्तमी को पूजा स्थान ले जाने का निमंत्रण, सप्तमी को पत्ते सहित श्रीफल सादर लाना और उसके साथ भगवती की पूजा करना, अष्टमी को विशिष्ट उपहारों के साथ पूजन तथा नवमी को पाठ पूर्ण कर हवन करना; ये ही नवरात्र के मुख्य कृत्य हैं. दशमी को अपराजिता एवं शमी का पूजन कर स्थापित कलश आदि का संक्षिप्त पूजन के बाद विसर्जन तथा नवरात्र व्रत का पारण करें.
यदि नौ दिनों तक उपवास एवं पूजन अशक्य हो, तो सप्तमी से नवमी तक ही करें, अन्यथा महाष्टमी को ही करें. कारण कि दुर्गापाठ एवं नवरात्र व्रत की महिमा अपार है.