चंपारण में किसानों की लड़ाई ने गांधी जी को बनाया महात्मा

जोहान्सबर्ग में 11 सितंबर,1906 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में एशियाई देशों के नागरिक एकत्रित हुए थे. ये लोग सरकार के उस निर्णय का विरोध कर रहे थे जिसके तहत इन्हें उंगलियों के निशान लगे हुए परिचय पत्र हमेशा साथ रखना था. उस समय अखबारों में इस विरोध का नाम ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ दिया गया, लेकिन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 29, 2019 2:58 AM

जोहान्सबर्ग में 11 सितंबर,1906 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में एशियाई देशों के नागरिक एकत्रित हुए थे. ये लोग सरकार के उस निर्णय का विरोध कर रहे थे जिसके तहत इन्हें उंगलियों के निशान लगे हुए परिचय पत्र हमेशा साथ रखना था. उस समय अखबारों में इस विरोध का नाम ‘पैसिव रेसिस्टेंस’ दिया गया, लेकिन गांधी इस नामकरण से संतुष्ट नहीं थे. उन्हें इस शब्द में नकारात्मक ‍भाव नजर आ रहा था.

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा कि यह बुराइयों का अहिंसक विरोध है. गांधी के भतीजे मगनलाल गांधी ने ‘सदाग्रह’ का नाम दिया. महात्मा गांधी के चंपारण आंदोलन के दौरान प्रस्फुटित होकर यह ‘सत्याग्रह’ में बदल गया जिसमें ‘अहिंसा’ अनिवार्य अंग था.
राजकुमार शुक्ल के साथ गांधी जी 10 अप्रैल, 1917 पटना पहुंचे और मजहरूल हक से मिलने के बाद रात में मुजफ्फरपुर पहुंचे. ‍स्थानीय वकीलों के अनुरोध पर गया प्रसाद सिंह के घर पर ठहरने के लिए राजी हुए. रामनवमी प्रसाद,रामदयालु सिन्हा, जनकधारी प्रसाद आदि वकीलों से उन्होंने नील उत्पादन की पूरी प्रक्रिया एवं रैयतों के शोषण के संबंध में विस्तृत जानकारी ली. निलहों के गैर कानूनी शोषण के विरुद्ध रैयत सरकारी अधिकारियों को आवेदन देते थे.
न्यायालय में मुकदमा करते थे और समय-समय पर हिंसक आंदोलन भी करते थे. गांधी के समक्ष यह स्पष्ट हो रहा था कि रैयतों को शोषण से उबारने के लिए न्यायालय सक्षम नहीं है. 13 अप्रैल को तिरहुत के कमिश्नर एलएफ मोर्शिड से मिलने के बाद गांधी को यह एहसास हो गया कि निलहे एवं सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से ही रैयतों का शोषण हो रहा है.
गांधी यह भी समझ गये रैयत-निलहों के बीच के तनावपूर्ण संबंध के कारणों की जानकारी तो नहीं ही मिलेगी, सरकार उन्हें कभी-भी गिरफ्तार कर सकती है. गांधी के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न रैयतों के मन से निलहों का डर खत्म करना था. गांधी ने सोचा कि यदि गिरफ्तारी ही होनी है तो चंपारण में होनी चाहिए ताकि रैयतों में यह संदेश जाये कि काठियावाड़ का एक आदमी चंपारण आकर रैयतों के लिए जेल जा रहा है.
15 अप्रैल को दोपहर तीन बजे रामनवमी प्रसाद, धरणीधर प्रसाद एवं गोरख प्रसाद के साथ गांधी जी मोतिहारी पहुंचे. 16 अप्रैल को जसौलीपट्टी जाने के क्रम में चंद्रहिया गांव में गांधी जी को कलक्टर का संदेश मिला और वे उसी समय मोतिहारी वापस आ गये.
रास्ते में धारा-144 का नोटिस मिला. हालांकि, मोर्शिड चाह रहा था कि भारत रक्षा अधिनियम, 1915 की धारा-3 के अंतर्गत गांधी जी की गिरफ्तारी हो, लेकिन डीआइजी के विशेष सहायक डब्ल्यू सिले ने आपत्ति जतायी कि पूरे देश में अब तक कहीं भी गांधी के खिलाफ न तो शिकायत की गयी है और न मुकदमा दर्ज किया गया है. गोरख प्रसाद के घर से गांधी जी ने कमिश्नर, कलक्टर सहित राजेंद्र प्रसाद, मजहरूल हक, मदन मोहन मालवीय, पोलक आदि लोगों को चिट्ठी लिखकर वस्तुस्थिति से अवगत कराया.
उन्होंने भारत के वायसराय को भी पत्र लिखा. साथ ही, साबरमती आश्रम में अपने पुत्र को भी एक पत्र लिखा कि यदि उनकी गिरफ्तारी होती है तो ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि वापस कर दी जाये. वायसराय के निजी सचिव मैफी को संबोधित पत्र में उल्लेख था कि एक तरफ इंग्लैंड की महारानी उन्हें ‘कैसर-ए-हिंद’ से सम्मानित करती हैं और दूसरी ओर, उनका अफसर उन पर विश्वास भी नहीं करता है.
अधिकारियों को लिखी चिट्ठी में गांधी जी ने स्पष्ट आश्वासन दिया कि वे यहां स्थिति की जानकारी लेने आये हैं, दंगा-फसाद के लिए रैयतों को उकसाना उनका उद्देश्य नहीं है.
लेकिन गांधी या उनके सहयोगियों के अनुरोध का अधिकारियों पर कोई असर नहीं पड़ा. गांधी जी को समन मिला कि 18 अप्रैल को दिन के साढ़े बारह बजे उन्हें मोतिहारी के एसडीओ जॉर्ज चंदर की अदालत में उपस्थित होना है. गांधी जी ने रणनीति बना ली. चंपारण के स्थानीय अधिकारियों के मनोबल को तोड़ना उनका पहला कदम होनेवाला था.
गांधी जी को मुजफ्फरपुर में छोड़कर राजकुमार शुक्ल चंपारण वापस आये और अपने सभी संपर्कों को सूचित कर दिया कि गांधी जी चंपारण आ रहे हैं. रैयतों का आत्मविश्वास वापस आया. इसी का परिणाम हुआ कि कोर्ट में गांधी के दर्शन के लिए भारी भीड़ जमा हो गयी. गांधी जी के अभियान को जन समर्थन मिलना आरंभ हो गया था. इन पांच दिनों में गांधी जी कार्यकर्ताओं को शृंखलाबद्ध कार्यक्रम के लिए प्रशिक्षित एवं तैयार भी कर चुके थे.
18 अप्रैल को गांधी जी ने न्यायालय में जो बयान दिया वह गांधी का भारत में ‘प्रथम सत्याग्रह’ के नाम से प्रसिद्ध है. गांधी जी का कहना था कि रैयतों की स्थिति की जानकारी लेना उनका अधिकार है और इसी के लिए वे यहां आये हैं. उन्होंने कमिश्नर एवं कलक्टर की सोच एवं भावना को नकार दिया कि उनके यहां रहने से रैयत हिंसक हो जायेंगे.
इतना ही नहीं, गांधी ने कहा कि इसके लिए यदि उन्हें सरकार का नियम तोड़ना पड़े और इसके लिए सजा झेलनी पड़े तो वे इसके लिए भी तैयार हैं. अब परेशान होने की बारी मजिस्ट्रेट की थी. अब तक उसके इजलास में आकर लोग कहते थे कि वे निर्दोष हैं, उन्हें सजा नहीं दी जाये.
गांधी कह रहे हैं कि चंपारण से बाहर नहीं जाकर वे अधिकारियों के आदेश की अवहेलना कर रहे हैं और इसके लिए यदि उन्हें सजा दी जाती है तो वे इसके लिए तैयार हैं.
मजिस्ट्रेट ने तत्काल कार्यवाही स्थगित कर दी. तीन बजे पुन: गांधी उपस्थित हुए. मजिस्ट्रेट ने गांधी से कहा कि यदि वे चंपारण से बाहर चले जाएं तो मुकदमा बंद कर दिया जायेगा.
गांधी ने कहा कि यदि वे जेल जाएंगे तो जेल से वापस आकर इसी चंपारण में अपना घर बनाएंगे. मजिस्ट्रेट ने जमानतदार की मांग की. गांधी ने कहा कि उनके पास कोई जमानतदार नहीं है. मजिस्ट्रेट ने कहा कि मुचलका के लिए 100 रुपये ही जमा कीजिए , गांधी ने कहा कि वे नहीं करेंगे.
आखिर मजिस्ट्रेट ने व्यक्तिगत मुचलके पर गांधी को रिहा कर दिया. वायसराय को जब पूरे प्रकरण की जानकारी मिली तो उसने बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर को डांटा कि बिना सरकार की अनुमति से गांधी पर मुकदमा कैसे चला दिया गया.
दक्षिण अफ्रीका में ऐसी ही गलती की गयी थी और गांधी ने पूरी अंग्रेजी सत्ता की किरकिरी कर दी थी. मुकदमा चलाने से यहां भी वे ‘हीरो’ बन जायेंगे. उन्होंने कहा कि गांधी ने उन्हें राजनीतिक जाल में फंसा लिया है.
समन मिला कि 18 अप्रैल को दिन के साढ़े बारह बजे उन्हें मोतिहारी के एसडीओ जॉर्ज चंदर की अदालत में उपस्थित होना है.
गांधी जी ने रणनीति बना ली. चंपारण के अधिकारियों के मनोबल को तोड़ना उनका पहला कदम होनेवाला था.

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